यह समय है जब ग़ैर-कृषि वर्ग को किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए: पी. साईनाथ

कृषि मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ ने कहा कि सरकार समझ रही थी कि यदि वो इस समय ये क़ानून लाती है तो मज़दूर और किसान संगठित नहीं हो पाएंगे और न विरोध कर पाएंगे, लेकिन उनका यह आकलन ग़लत साबित हुआ है.

पी. साईनाथ. (फोटो साभारः विकिपीडिया कॉमन्स)

कृषि मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ ने कहा कि सरकार समझ रही थी कि यदि वो इस समय ये क़ानून लाती है तो मज़दूर और किसान संगठित नहीं हो पाएंगे और न विरोध कर पाएंगे, लेकिन उनका यह आकलन ग़लत साबित हुआ है.

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पी. साईनाथ. (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)

नई दिल्ली: कृषि मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ ने कहा कि यह समय है, जब समाज के गैर कृषि वर्ग को तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों के साथ शामिल होना चाहिए.

उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस महामारी के दौरान इन कानूनों को पारित करने का केंद्र सरकार का आकलन सही साबित नहीं हुआ.

किसान आंदोलन के समर्थन में अलग-अलग नागरिक समूहों द्वारा आयोजित डिजिटल प्रेस सम्मेलन में साईनाथ ने कहा कि ट्रेड यूनियनों और मजदूर अपनी व्यापक हड़ताल के दौरान पहले ही रास्ता दिखा चुके हैं. लाखों मजदूरों ने किसानों की मांगों का समर्थन किया है.

उन्होंने कहा कि सरकार समझ रही थी कि यदि वो इस समय ये कानून लाती है तो मजदूर और किसान संगठित नहीं हो पाएंगे और न विरोध कर पाएंगे. उसका यह आकलन गलत साबित हुआ.

हरियाणा और उत्तर प्रदेश को जोड़ने वाले बॉर्डर्स पर पिछले एक हफ्ते से भी ज्यादा समय से किसान डटे हुए हैं और केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं.

किसान एवं कृषि संगठनों ने इस बात की आशंका जाहिर की है कि इन कानूनों के जरिये सरकार एपीएमसी मंडियां और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) खत्म करना चाह रही है, जिसके चलते उन्हें ट्रेडर्स और बड़े कॉरपोरेट के रहम पर जीना पड़ेगा.

साईनाथ ने कहा कि ये कानून किसानों को कोई कानूनी सुरक्षा नहीं प्रदान करते हैं.

उन्होंने कहा, ‘भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इकट्ठा होने की स्वतंत्रता के बारे में है, लेकिन यहां यह (कृषि कानून) सरकार की कानूनी मशीनरी में किसी भी कमी को कानूनी जांच-पड़ताल से छूट देने के बारे में है.’

सम्मेलन में अन्य उल्लेखनीय वक्ताओं में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रवीण झा, अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ की एनी राजा और कविता कृष्णन शामिल थीं.

विभिन्न समूहों ने शांतिपूर्ण संघर्ष के ‘क्रूर दमन’ की निंदा की और किसानों के खिलाफ दर्ज किए गए सभी मुकदमों को वापस लेने की मांग की.

किसान संगठन अपनी इस मांग को लेकर प्रतिबद्ध हैं कि सरकार को हर हालत में इन कानूनों को वापस लेना होगा. इस संबंध में सरकार और किसानों के बीच चार राउंड की बातचीत पूरी हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है. इसे लेकर अगली बातचीत शनिवार (पांच दिसंबर) को होनी है.

बता दें कि 26 नवंबर को ‘दिल्ली चलो मार्च’ के तहत शुरू हुए किसान आंदोलन में अब तक कम से कम छह लोगों की जान चली गई है.

नए कृषि कानून के खिलाफ पिछले नौ दिनों (26 नवंबर) से दिल्ली की सीमाओं पर हजारों की संख्या में किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. किसानों का कहना है कि वे निर्णायक लड़ाई के लिए दिल्ली आए हैं और जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, तब तक उनका विरोध प्रदर्शन जारी रहेगा.

मालूम हो कि केंद्र सरकार की ओर से कृषि से संबंधित तीन विधेयक– किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्‍य आश्‍वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 और आवश्‍यक वस्‍तु (संशोधन) विधेयक, 2020 को बीते 27 सितंबर को राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी थी, जिसके विरोध में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं.

किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन अध्यादेशों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की स्थापित व्यवस्था को खत्म कर रही है और यदि इसे लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.

दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली मोदी सरकार ने बार-बार इससे इनकार किया है. सरकार इन अध्यादेशों को ‘ऐतिहासिक कृषि सुधार’ का नाम दे रही है. उसका कहना है कि वे कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बना रहे हैं. 

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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