पत्रकारों का काम सरकारों का प्रवक्ता बनना नहीं, उनसे सवाल पूछना है

पत्रकारिता और देशभक्ति का साथ विवादास्पद है. देशभक्ति अक्सर सरकार के पक्ष का आंख मूंदकर समर्थन करती है और फिर प्रोपगेंडा में बदल जाती है. आज सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर अपना प्रोपगेंडा फैलाने की कला में पारंगत हो चुकी है और जिन पत्रकारों पर सच सामने रखने का दारोमदार था, वही इसमें सहभागी हो गए हैं.

//
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पत्रकारिता और देशभक्ति का साथ विवादास्पद है. देशभक्ति अक्सर सरकार के पक्ष का आंख मूंदकर समर्थन  करती है और फिर प्रोपगेंडा में बदल जाती है. आज सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर अपना प्रोपगेंडा फैलाने की कला में पारंगत हो चुकी है और जिन पत्रकारों पर सच सामने रखने का दारोमदार था, वही इसमें सहभागी हो गए हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

नवंबर, 1969 में माय लाय नरसंहार (वियतनाम) पर खोजी पत्रकार सेमोर हर्श की न्यूज रिपोर्ट प्रकाशित होने के साथ ही संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में तूफान खड़ा हो गया.

डिस्पैच न्यूज सर्विस इंटरनेशनल द्वारा डिस्ट्रीब्यूट की गई और कई अख़बारों में छापी गई हर्श की स्टोरी में इस बात का पर्दाफाश किया गया कि किस तरह से अमेरिकी सेना की एक यूनिट ने निहत्थे ग्रामीणों, जिनमें बच्चे और बूढ़े शामिल थे, की हत्या की थी और औरतों के साथ बलात्कार किया था. अमेरिकी सैनिकों ने 500 से ज्यादा ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया.

इसके बाद अमेरिका में कोहराम मच गया और इन आरोपों की नए सिरे से जांच कराए जाने की मांग उठाई गईं, क्योंकि सेना द्वारा की गई पिछली जांच में कुछ भी गलत होने का सबूत नहीं मिला था.

इस खुलासे ने अमेरिका में परवान चढ़ रहे युद्ध विरोधी आंदोलन को हवा देने का काम किया. इन हत्याओं को रोकने की कोशिश करने वाले तीन सैनिकों को कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने देशद्रोही कहकर भर्त्सना की थी.

हर्श को इंटरनेशनल रिपोर्टिंग के लिए पुलित्जर पुरस्कार से नवाजा गया. उनकी छवि एक बड़े खोजी पत्रकार के तौर पर स्थापित हुई.

अगर हर्श आज के भारत में काम करते तो क्या होता?

भारत मे हर्श के साथ क्या हुआ होता? पहली बात तो यह है कि कोई भी प्रकाशन वैसी किसी खबर को छापता ही नहीं. भारतीय मीडिया में सेना के खिलाफ लिखना किसी कुफ़्र के समान है.

अगर कोई प्रकाशन या वेबसाइट ऐसी न्यूज रिपोर्ट को प्रकाशित कर भी देता तो उन्हें और उनकी रिपोर्ट छापने वाली संस्था को तुरंत देशद्रोही का तमगा दे दिया जाता- सिर्फ ऑनलाइन ट्रोल्स द्वारा नहीं, बल्कि सरकार और तथाकथित न्यूज चैनलों के द्वारा भी.

जल्दी ही उनके ख़िलाफ़ टैक्स रिटर्न की जांच समेत हर तरह की जांच बैठा दी जाती.

सबसे बढ़कर उनके ज्यादातर साथी उनकी पीठ नहीं थपथपाते, या उन्हें पुरस्कारों से नहीं नवाजते, बल्कि इसके बदले वे त्योरियां चढ़ाकर हमारे ‘शहीदों’ का अपमान करने की शिकायत करते और सेना के बारे में ‘नकारात्मक’ खबरें लिखने के लिए उनकी आलोचना करते.

क्योंकि, पत्रकारों ने अपने कंधे के ऊपर देश की रखवाली करने का जिम्मा ले लिया है और वे सबसे बड़े देशभक्त हैं, जो किसी भी तरह से भारत के थोड़े से अपमान को भी बर्दाशत नहीं कर सकते हैं.

क्या पत्रकारों को देशभक्त नहीं होना चाहिए? यह एक सरलीकृत सवाल है. कोई भी पत्रकार एक प्राइवेट सिटिजन -निजी तौर पर नागरिक- भी होता है और किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह देशभक्त हो सकता है.

लेकिन उसे स्पष्ट तौर पर पेशेवर और निजी प्रतिबद्धताओं के बीच एक लकीर खींचनी होगी. सत्ता, विचारधारा और भावुक देशभक्ति या समूह भक्ति से एक निश्चित दूरी एक अनिवार्य शर्त है.

एक पत्रकार का काम सवाल पूछना है, सिर्फ उनसे नहीं जो सत्ता में हैं, बल्कि संस्थाओं से भी, चाहे वे कॉरपोरेट हों या राजनीतिक. साथ ही उनका काम इन जवाबों को जनता तक पहुंचाना है.

जनहित एक अस्पष्ट-अनिश्चित पद है, लेकिन इसका कम से कम यह अर्थ तो निकलना चाहिए कि ‘लोगों के हित में क्या है?’

और सत्ता में बैठे लोगों और पदाधिकारियों के बारे मे जानकारी उनके हित में हैं- अगर सेना द्वारा खरीदे गए नए अस्त्र-शस्त्रों और नियंत्रण रेखा पर हमारे बहादुर जवानों द्वारा चीनियों से लोहा लेने के बारे में लिखा जा सकता है, तो हथियारों के काम न करने या चीनियों के हाथों भू-भाग गंवाने के बारे में क्यों नहीं लिखा जा सकता है?

भारतीय सैनिकों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघनों, जैसा कि हमने कश्मीर और उत्तर-पूर्व में देखा है, के बारे में क्यों नहीं लिखा जा सकता है? यह किस तरह से सैन्य बल में हमारी आस्था पर चोट पहुंचाता है?

इसी तरह से भारत को लेकर दुनिया की प्रतिक्रिया को बाहरी हस्तक्षेप समझ कर उस पर क्रोधित होना भी पत्रकार का काम नहीं है.

अमेरिका और कई पश्चिमी देश भारत को मानवाधिकारों पर उपदेश दिया करते थे- उनका उपदेश कानों को नहीं सुहाता था क्योंकि अमेरिका अक्सर उन देशों में, जिससे उसका हित जुड़ा होता था, में होने वाले सबसे खराब किस्मों के मानवाधिकार हननों के बारे में मौन धारण कर लेता था. लेकिन मानवाधिकार अब किसी एक देश का आंतरिक मसला नहीं रह गया है.

अतीत में भारत ने पाकिस्तानी हिंदुओं के घर ढहाए जाने को लेकर अपनी चिंता जताई थी, इस तथ्य के बावजूद कि वे भारतीय नागरिक नहीं हैं.

अपनी घोषित हिंदू समर्थक नीतियों वाली इस सरकार ने दुनियाभर में हिंदुओं के रक्षक की भूमिका धारण कर ली है. लेकिन यह भी दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना ही हुआ.

प्रतीकात्मक तस्वीर. (फोटो: रॉयटर्स)
प्रतीकात्मक तस्वीर. (फोटो: रॉयटर्स)

भारत में मीडिया सिर्फ खुलेआम नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का समर्थक ही नहीं हो गया है, बल्कि इसने वर्तमान निजाम के वृहत्तर एजेंडा को भी अलग-अलग मात्रा में अपना एजेंडा बना लिया है. इस एजेंडा में खुल्लम-खुल्ला सांप्रदायिकता से लेकर प्रपंच भरा अति राष्ट्रवाद भी शामिल है.

यह कोई नई बात नहीं है. अक्सर विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा जैसे मसलों को कवर करने वाले पत्रकार खुद को आधिकारिक पक्ष के साथ जोड़ना शुरू कर देते हैं.

वे तुरंत किसी भी मसले पर भारतीय पक्ष के ‘बचाव’ में उठ खड़े हो जाते हैं और किसी विपरीत या आलोचनात्मक नजरिये को सामने न आने देने की हद तक जा सकते हैं.

अक्सर ऐसा सरकार के भीतर पहुंच सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है, क्योंकि सरकारें उनके पक्ष से नाइत्तेफाकी रखने वालों की आवाज को दबाने के लिए निर्ममता की हद तक जा सकती हैं.

लेकिन इसका नतीजा सत्ता प्रतिष्ठान के साथ नत्थी हो जाने के तौर पर भी निकल सकता है.

एम्बेडेड पत्रकारिता का उदय

वियतनाम में रिपार्टिंग करने वाले पत्रकार सरकारी मिलिट्री ब्रीफिंग का मजाक उड़ाया करते थे. उन्होंने इस ब्रीफिंग को ‘पांच बजे की गपबाजी’ का नाम दे रखा था.

वे इसे लेकर चुटकुले सुनाया करते थे और इस ब्रीफिंग में बताई जा रही सारी बातों को कोरी गप्प मानते थे, जब तक कि उनकी सत्यता प्रमाणित न हो जाए.

आधिकारिक पक्ष में यह अविश्वास हर्श तथा अन्यों को तथ्यों की जांच खुद से करने के लिए प्रभावित क्षेत्र में लेकर गया और यही माय लाय स्टोरी का आधार बना.

1965 में वियतनाम में अमेरिकी सेना. (फाइल फोटो: रॉयटर्स/US Army)
1965 में वियतनाम में अमेरिकी सेना. (फाइल फोटो: रॉयटर्स/US Army)

मध्य-पूर्व में अमेरिकी और ब्रिटिश विदेश नीति के लंबे समय तक आलोचक रहे रॉबर्ट फिस्क अक्सर कहा करते थे, ‘पत्रकारों को सत्ता (अथॉरिटी) को चुनौती देना चाहिए.’

अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने वियतनाम युद्ध से मिले सबकों का पूरा ध्यान रखा. 2003 के खाड़ी युद्ध के दौरान पेंटागन ने अलग-अलग मिलिट्री यूनिटों के साथ पत्रकारों को जोड़ दिया और इस बात पर नजर रखा कि वे क्या रिपोर्ट कर रहे हैं.

यहीं से एम्बेडेड जर्नलिज्म शब्द प्रचलन में आया. अवज्ञा करनेवालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. दूसरे देशों ने भी इस मॉडल को जल्दी ही अपना लिया.

भारत में कारगिल के बाद कोई युद्ध नहीं हुआ है, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक और भारत और चीन के बीच संघर्ष को लेकर ज्यादातर जानकारियां रक्षा मंत्रालय से आई हैं और उन्हें लगभग बिना किसी अपवाद के हू-ब-हू छाप दिया गया है.

सोशल मीडिया पर हालात का ज्यादा स्वतंत्र मूल्यांकन मिलता है, जिस पर सेना के कई रिटायर्ड अधिकारी अपना मत रखते हैं. लेकिन भावुक देशभक्ति की पताका फहराने वाले टेलीविजन चैनल के प्रोपगेंडा के सामने इनकी कोशिशों का असर नक्कारखाने की तूती के समान होता है.

अपनी जमीन गंवाने का मसला खत्म हो चुका है, क्योंकि सरकार ने किसी भी विरोधी मत को सामने ही नहीं आने दिया.

पत्रकारिता और देशभक्ति का मसला काफी विवादास्पद है, और इसका जवाब देना आसान नहीं है. लेकिन देशभक्ति अक्सर खुद को सरकार या इसके पक्ष का आंख मूंदकर समर्थन में प्रकट करती है और इसके बाद यह प्रोपगेंडा में तब्दील हो जाती है.

हम आज यही होता देख रहे हैं. सरकार ने राष्ट्रवाद के नाम पर अपने प्रोपगेंडा को आगे बढ़ाने की कला में महारत हासिल कर ली है और जिन पत्रकारों पर सच को सामने रखने का दारोमदार था, वे इसमें सहभागी हो गए हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq