दिल्ली दंगा: आरोपियों की पैरवी कर रहे वकील के ऑफिस में छापेमारी, कंप्यूटर और दस्तावेज़ ज़ब्त

वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा दिल्ली दंगों के आरोपियों की अदालत में पैरवी कर रहे हैं. प्राचा के सहयोगी वकीलों का आरोप है कि पुलिस की यह छापेमारी सभी रिकॉर्ड और दस्तावेज़ नष्ट करने का प्रयास था.

वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा (फोटो साभारः ट्विटर)

वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा दिल्ली दंगों के आरोपियों की अदालत में पैरवी कर रहे हैं. प्राचा के सहयोगी वकीलों का आरोप है कि पुलिस की यह छापेमारी सभी रिकॉर्ड और दस्तावेज़ नष्ट करने का प्रयास था.

वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा (फोटो साभारः ट्विटर)
वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा (फोटो साभारः ट्विटर)

नई दिल्लीः दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल टीम ने दिल्ली दंगों के आरोपियों की पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता महमूद प्राचा के ऑफिस पर छापेमारी की.

प्राचा के सहयोगियों के मुताबिक, सर्च टीम ने प्राचा के कंप्यूटर और विभिन्न दस्तावेजों को जब्त करने पर जोर दिया, जिनमें केस की विस्तृत जानकारी है और इस तरह से पुलिस की यह कार्रवाई अवैध है.

प्राचा के एक सहयोगी वकील ने द वायर  को बताया कि गुरुवार को पुलिस की टीम के लगभग 50 सदस्य दोपहर लगभग 12:40 बजे निजामुद्दीन पश्चिम स्थित उनके ऑफिस पहुंचे.

टीम की अगुवाई दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के इंस्पेक्टर संजीव कर रहे थे.

उन्होंने पहले प्राचा से कहा कि वे उनसे तीन दस्तावेज चाहते हैं, लेकिन बाद में कहा कि वे उनके साथ कंप्यूटर को भी ले जाना चाहते हैं.

सहयोगियों के मुताबिक, प्राचा ने छापेमारी करने वाली टीम को यह भी बताया कि उनके (पुलिस) पास जिस तरह के आदेश हैं, उसमें उनके कंप्यूटर को जब्त करने की मंजूरी नहीं है. उन्होंने पुलिस को वे सभी दस्तावेज मुहैया कराने की पेशकश भी की, जो उन्होंने मांगे थे.

प्राचा के एक अन्य सहयोगी वकील ने बताया कि पुलिस का कहना है कि वह (प्राचा) जानकारी साझा करें, यह भी एडवोकेट्स एक्ट और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत अधिवक्ता-मुवक्किल संबंधों को मिले विशेषाधिकार के खिलाफ है.

पुलिस टीम अपने साथ दो लैपटॉप और एक प्रिंटर लेकर आई थी, उन्होंने कथित तौर पर प्राचा के कंप्यूटर को हैक किया. यह छापेमारी शाम 6:45 बजे तक चलती रही.

प्राचा का कहना है कि वह इस मामले को लेकर स्थानीय पुलिस में शिकायत दर्ज कराएंगे.

प्राचा के सहयोगी कुंवर नावेद ने द वायर  को बताया कि उन्होंने छापेमारी के दौरान स्थानीय पुलिस को बुलाया था.

उन्होंने कहा कि छापेमारी टीम ने अपनी कोई पहचान उजागर नहीं की. यह आशंका थी कि यह छापेमारी सभी रिकॉर्ड और दस्तावेज नष्ट करने का प्रयास था.

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 क्या कहता है

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 मुवक्किल के साथ वकीलों की किसी भी तरह की बातचीत का खुलासा करने से रोकती है.

धारा 128 कानूनी सलाहकार को धारा 126 के तहत किसी भी तरह की जानकारी उजागर करने से रोकती है, जब तक कि मुवक्किल गवाह के रूप में कानूनी सलाहकार को न बुलाए और इस पर सवाल करे.

अधिनियम की धारा 129 बताती है कि जब तक कोई शख्स खुद को गवाह के रूप में पेश नहीं करता, तब तक कोई भी उसके और उसके कानूनी सलाहकार के बीच होने वाली गोपनीय बातचीत को अदालत में बताने के लिए बाध्य नहीं है.

भारत में कानून कहता है कि कोई भी शख्स एडवोकेट्स एक्ट के तहत पंजीकृत वकील से सलाह मांगता है, उसे अधिवक्ता-मुवक्किल विशेषाधिकार का लाभ होगा और उसकी बातचीत साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 के तहत संरक्षित होगी.

ठीक इसी तरह प्राचा भी पुलिस को अपने मुवक्किल की गोपनीय जानकारी मुहैया नहीं करा सकते.

प्राचा के सहयोगी वकील ने कहा, ‘प्राचा ने पुलिस की टीम को नियमों और विभिन्न फैसलों एवं इस अधिनियम से जुड़े कागजात दिखाए, जो उन्हें कुछ दस्तावेज पुलिस के साथ साझा करने से रोकते हैं, लेकिन पुलिस ने प्राचा को बताया कि वे उनका कंप्यूटर जब्त करेंगे.’

प्राचा बनाम दिल्ली पुलिस

इस साल अगस्त की शुरुआत में दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस से उन आरोपों की जांच करने को कहा था, जिनमें प्राचा ने दिल्ली दंगे मामले में कुछ पीड़ितों और गवाहों को झूठे बयान देने के लिए कहा था.

पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक, दंगे के एक पीड़ित अली ने पुलिस को बताया कि उसे शरीफ नाम के एक प्रत्यक्षदर्शी को पहचानने को कहा गया था, जो एक अन्य मामले में गवाह था और जिसे वह जानते तक नहीं थे.

दिल्ली पुलिस के मुताबिक, अली का यह भी आरोप है कि प्राचा ने उन्हें कहा था कि इस मामले में शरीफ का बयान अली के मामले को मजबूत करेगा लेकिन इसके लिए अली को यह बताना होगा कि शरीफ ने उसकी दुकान जलते देखी थी.

हालांकि, दंगों की जांच में दिल्ली पुलिस के इस तरह के दावों की सत्यता बार-बार सवालों के घेरे में आती है.

प्राचा ने यह कहते हुए इन आरोपों से इनकार किया था, ‘मेरे खिलाफ आरोप यह है कि एक मुवक्किल मेरे पास आए और कुछ दिनों बाद वह चले गए, क्योंकि वह निराश थे कि मैं जज या पुलिस के साथ उनकी कोई सेटिंग नहीं करा पाया. मैं सिर्फ कानूनी रूप से केस लड़ता हूं. कुछ अन्य जजों ने उससे कहा कि मुझसे केस वापस ले लें और चूंकि हम यह काम बिना किसी पैसे के करते हैं तो मैं उन्हें रुकने के लिए नहीं कह सका. लक्ष्य न्याय है.’

दूसरे आरोप के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था, ‘जमानत याचिका में अली ने हलफनामे के जरिये कुछ दावे किए, जो उनकी मौजूदा कहानी से मेल नहीं खाते. हलफनामा किसी अन्य वकील के जरिये दायर किया गया. उसकी दोनों कहानियों में विरोधाभास है.’

उन्होंने कहा था, ‘अब दूसरा आरोप यह है कि हलफनामे पर एक वकील के हस्ताक्षर थे, जिसकी मौत हो चुकी है. अब मुझे बताएं, अगर आप अदालत जाते हैं और हलफनामे के लिए 20 रुपये देते हैं तो आप देखेंगे कि कौन हलफनामे पर स्टैंप लगा रहा है और किसने इसे सत्यापित किया है? हलफनामे उसके द्वारा तैयार किया गया. मैं इस प्रक्रिया में शामिल नहीं था.’

वह कहते हैं, ‘मेरे कई मुवक्किलों ने ये आरोप लगाते हुए पहले डीसीपी उत्तर-पश्चिम (दिल्ली) वेद प्रकाश सूर्या और अन्य पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि वे दंगे में शामिल थे. अब वे सभी पहले से ही आरोपी हैं. इसलिए पुलिस से लेकर अमित शाह सभी की मेरे खिलाफ एक ही कुंठा है. उनका नैरेटिव की मुस्लिमों ने इन दंगों की साजिश रची थी, को मैं चुनौती दे रहा हूं, वह भी अदालत के जरिये कानूनी रूप से. आरएसएस के कुछ सदस्यों को भी मेरे मामलों में सजा सुनाई गई थी.’

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