क्यों हिमाचल और उत्तराखंड के लोगों को कृषि क़ानूनों और किसान आंदोलन के बारे में चेत जाना चाहिए

वर्तमान में एमएसपी जैसे तरीके पहाड़ों की आबादी के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं, हालांकि मुख्यधारा के मीडिया और इन जगहों के दूर होने के चलते यहां के लोगों को इस मुद्दे पर इकट्ठा होना मुमकिन नहीं हो रहा है.

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पहाड़ों में उत्पादन की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं. (फोटो: मान्शी अशर)

वर्तमान में एमएसपी जैसे तरीके पहाड़ों की आबादी के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं, हालांकि मुख्यधारा के मीडिया और इन जगहों के दूर होने के चलते यहां के लोगों को इस मुद्दे पर इकट्ठा होना मुमकिन नहीं हो रहा है.

धर्मशाला कलेक्ट्रेट पर किसान आंदोलन को लेकर हुआ प्रदर्शन. (फोटो: सुमित महार)
धर्मशाला कलेक्ट्रेट पर किसान आंदोलन को लेकर हुआ प्रदर्शन. (फोटो: सुमित महार)

‘जब किसी को कोई दुख-दर्द होता है तो वो अपनों के बीच में जाता है,’ हांफते हुए हरप्रीत सिंह ने कहा जब शिमला पुलिस उन्हें रिज मैदान से धकलते हुए सदर थाने ले जा रही थी.

हरप्रीत और उसके दो किसान साथी गणतंत्र दिवस ‘किसान परेड’ से एक हफ्ते पहले अपने संघर्ष के बारे में लोगों को जागरूक करने सिंघू बॉर्डर से शिमला पहुंचे थे. पर किसान अपनी बात शुरू करते उससे पहले पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया.

‘ये सरकार नहीं चाहती की लोग अपनी बात कहें,’ हरप्रीत सिंह ने गुहार लगाई थी. मौके पर मौजूद मीडियाकर्मी बार-बार पूछ रहे थे कि आखिर इन तीन किसानों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जा रहा था- ‘क्या इससे वाकई में किसी की सुरक्षा को खतरा था?’

पर आज मीडिया का यह सवाल बेमानी सा लगता है. शायद इससे बड़ा और गहरा सवाल जो मीडिया को पहले पूछना चाहिए वो यह कि ‘आखिर पश्चिम हिमालय के पहाड़ी राज्यों की जनता और यहां के छोटे किसानों का मैदानी किसानों के इस आंदोलन से क्या लेना-देना है?’

वैसे भी हिमाचल और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड, दोनों राज्यों की भाजपा सरकारों ने तीन कृषि कानूनों का पूरा समर्थन किया है, जिसको खारिज करने की मांग पिछले दो महीनों से किसान ज़ोरों-शोरों से कर रहे हैं.

लेकिन स्थानीय मीडिया के माध्यम से पहाड़ी जनता के बीच तो यही संदेश पहुंचा है कि पहाड़ी बागवानों और किसानों को इन कृषि कानूनों से कोई नुकसान नहीं होगा- और एमएसपी का तो वैसे ही यहां के किसान फायदा नहीं उठा रहे.

पर मीडिया की बनाई आंदोलन से जुड़े मुद्दे की इस छवि (कि यह केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का आंदोलन है) को अलग-अलग स्तरों पर चुनौती दी गई है.

इसमें मुख्य तौर पर कई विशेषज्ञ यह तर्क सामने लाए हैं कि किसानों द्वारा पैदा किए गए अनाज पर एमएसपी के चलते ही सरकारी मंडियों से सरकार सीधे खाद्य सामग्री उठा कर पीडीएस (PDS) के माध्यम से सस्ता राशन जनता को उपलब्ध करवा पाती है. और खाद्य सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जिससे हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्य कतई मुंह नहीं फेर सकते.

आज के दिन हिमाचल प्रदेश के 90% परिवार डिपो के राशन का उपयोग करते हैं और इंडिया ह्यूमन डेवेलपमेंट सर्वे के आंकड़ों को देखें तो राज्य में 33% ऐसे परिवार हैं जिनका साल का 70% अनाज सरकारी डिपो से आता है.

कुल मिलाकर सस्ते सरकारी राशन पर निर्भरता में हिमाचल सभी राज्यों में सबसे आगे है. ऐसे ही उत्तराखंड में 45% राशन कार्ड धारकों में से 45% गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं.

यह वो परिवार हैं जो भूमिहीन हैं या इनके पास न के बराबर भूमि है और इनमें से अधिक दलित समुदाय से हैं. यह हिमाचल और उत्तराखंड दोनों ही राज्यों की सच्चाई है.

हिमाचल में तो पीडीएस की व्यवस्था इतनी कारगर रही है कि गरीबी रेखा से ऊपर के राशन कार्ड धारक भी डिपो की दुकानों से आटा, चावल, सरसों के तेल, चीनी के अलावा दाल भी कम दामों में लेते हैं- और बाज़ार से खरीदे हुए राशन के साथ पीडीएस के राशन पर घर चलता है.

केंद्र सरकार पिछले कुछ समय से डायरेक्ट कैश (Direct Cash) ट्रांसफर यानी डिपो के राशन की जगह सीधे धनराशि ज़रूरतमंद परिवारों के खाते में जमा करने की स्कीम चलाने की नीति बना रही है.

यदि एमएसपी या सरकारी मंडियों को कोई चोट पहुंचती है और यह कैश ट्रांसफर स्कीम लागू होती है तो उपभोगता बाज़ार के दामों पर ही राशन खरीदने के लिए विवश हो जाएंगे. इसकी सीधी मार गरीबों को झेलनी होगी.

ऐसा नहीं है कि पहाड़ में कृषि नहीं होती- लेकिन एक आंकड़े के अनुसार उत्तर-पश्चिमी हिमालय में केवल 15% किसान स्वयं के लिए अन्न पैदा कर पा रहे हैं.

एक तरफ पहाड़ी भूगोल और पारिस्थितिकी ही ऐसी है कि खेती योग्य ज़मीन कुल भूमि का केवल 10 या 15% है. साथ ही प्रति परिवार औसतन एक हेक्टेयर से कम ज़मीन होती है और मिट्टी की उर्वरकता भी कोई ख़ास नहीं होती- तो परंपरागत रूप से ही पहाड़ों में अन्न का उत्पादन कम रहा है.

हालांकि आज़ादी के बाद और ख़ासकर पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ों में खुद के गुजारे के लिए भी की जाने वाली खेती की हालत खस्ता हुई है. न केवल पुराने अनाज (जैसे जौ और मंडल/कोदरा) छूट गए, पर शिक्षा और आधुनिकता के युग में आने वाली पीढ़ी भी किसानी से दूर होती गई.

पशुपालन भी धीरे-धीरे घटा है और लोग नकदी फसलों की तरफ भी बढ़ गए. एक तरफ सरकारी नीति तो दूसरी तरफ बाजारीकरण ने कई बदलाव ला दिए.

पहाड़ों में उत्पादन की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं. (फोटो: मान्शी अशर)
पहाड़ों में उत्पादन की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं. (फोटो: मान्शी आशर)

हिमाचल जैसे राज्य में एक तरफ भूमि सुधार के कानून लाए गए तो दूसरी ओर बागवानी को बढ़ावा देने की नीति के चलते कृषि यहां की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बनी रही. पर आज पहाड़ी बागवान भी डांवाडोल स्थिति में हैं- उन पर बाज़ार की मार तो पड़ रही है और साथ में मौसम की भी.

जलवायु संकट के चलते ओलावृष्टि, बाढ़, बेमौसम बारिश और बढ़ते तापमान का सीधा वार फल-सब्जी उत्पादन और उससे हो रहे फायदे पर हो रहा है. जहां 2012 में कृषि का अर्थव्यवस्था में योगदान 14% था वो 2017 में घट कर 9.4% रह गया.

अब सरकार का ध्यान भी पर्यटन क्षेत्र को सुदृढ़ बनाने में लगा हुआ है. महामारी के साल में बाज़ार और मजदूरों तक पहुंच कम होने से बागवानी और बेमौसमी सब्जी पैदा करने वाले किसानों को और भी नुकसान का सामना करना पड़ा.

इस पूरे संकट के चलते आज हिमाचल के फल-सब्जी उत्पादकों की यूनियन मांग कर रही हैं कि इन उत्पादनों के लिए भी एमएसपी का प्रावधान हो.

आज की व्यवस्था में पहले ही बड़ी कमियां हैं और किसानों के लिए असुरक्षा भी लेकिन जो कृषि कानूनों के माध्यम से नये बदलाव लाए जा रहे हैं, ये पहाड़ी किसानों के लिए सभी दरवाज़े बंद कर सकते हैं.

सेब का उदाहरण देखें तो पिछले कुछ सालों से अदानी बागवानों से सेब खरीद रहा है – लेकिन आज किसान सरकारी मंडी (APMC) को भी बेच पा रहे हैं और आढ़तियों को भी. कल जब केवल अडानी या आईटीसी (ITC) जैसी बड़ी कंपनियां ही मैदान में होंगीं तो निश्चित है कि दाम तय करने में उनका एकाधिकार रहेगा जो कि किसान के हक में नहीं.

कई पर्यावरणविदों का मानना है की कुल मिलाकर पहाड़ी राज्यों को सरकार और बाज़ार दोनों पर ही निर्भरता कम कर खाद्य स्वायत्तता की तरफ बढ़ना होगा. प्राकृतिक और सतत खेती, पशुपालन, परंपरागत फसलों को वापस लाना – ये सब आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए ज़रूरी कदम हैं.

शायद लंबे समय में टिकाऊ खेती और अजीविकाओं के लिए यही रास्ता हो और इसके लिए कई ढांचागत, सामाजिक बदलाव तथा नीतिगत प्रयास भी करने होंगे- लेकिनआज की तारीख में पहाड़ी किसानों और जनता का जीवन और अस्तित्व पीडीएस और एमएसपी जैसी सुविधाओं के बिना अस्थिर होगा.

इसके बावजूद किसानों द्वारा चलाए जा रहे संघर्ष के समर्थन में हिमाचल और उत्तराखंड की जनता सड़कों पर नहीं उतरी. हां, कुछ किसान संगठन और तराई क्षेत्रों के किसानों की भागीदारी सामने आई है – पर पहाड़ के लोग क्यों इस मुद्दे पर इतने शांत हैं भला?

वजह अनेक हैं – शायद तीन कानूनों के प्रभावों को समझना इतना आसान नहीं, खासकर जब मीडिया की ओर से बहस को पहले ही सरकार का पक्ष लेकर सीमित कर दिया गया है. और शायद इसलिए भी कि पहाड़ों में लोगों का संगठित होना ही कई परिस्थियों के कारण मुश्किल रहता है.

और फिर पहाड़ों की छोटी जनसंख्या है – यहां से आवाज़ बुलंद भी हो तो राष्ट्रीय स्तर पर कहीं खो जाती है. अब यह लड़ाई इतनी व्यापक है कि देश के अन्नदाता ही इसे खुलकर और आगे बढ़कर लड़ सकते हैं. पर इसका अर्थ यह नहीं कि यह केवल उनकी ही लड़ाई है.

अनाज की टोकरी चाहे मैदान में हो, पर है तो यह हिमालयी क्षेत्र की गोद में ही. सिंधु और गंगा जैसी हिमालयी नदियों के पानी और मिट्टी से ही तो उत्तर के उर्वरक और खेती योग्य ये मैदान जन्मे हैं. इन्हीं ने विविध संस्कृतियों, कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं, व्यापार को पाला.

प्राचीन काल से सामंतवादी युग तक, औपनिवेशिक समय से लेकर आधुनिक समय तक- हर परिप्रेक्ष्य में इन मैदानों और पहाड़ों के विकास का साझा इतिहास रचा गया है जिससे यह जुड़े पर अलग-अलग परिदृश्यों और इनमें स्थित समाजों को संवारा या बिगाड़ा है.

हम नहीं भूल सकते कि हरित क्रांति भी तभी संभव हुई जब सतलुज, ब्यास और गंगा पर भाखड़ा, पोंग और टिहरी बांध बने. हिमाचल और उत्तराखंड के हज़ारों परिवार इन परियोजनाओं से विस्थापित हुए. प्रतिरोध को राष्ट्रीय हित के नाम पर दबाया गया.

पहाड़ों के लोगों से देश की भलाई के नाम पर कुर्बानी मांगी गई- तभी भारत को अन्न सुरक्षा मिली. आज कई दशक बीत गए, पहाड़ के विस्थापितों ने जिन्होंने अपनी ज़मीन, अपने गांव खो दिए या मैदान की मिट्टी से जुड़े किसान जो कृषि संकट के चलते आत्महत्या करने पर मजबूर हुए- दोनों ही उस ‘विकास’ के सपने से भ्रमित हुए, दोनों ने ही इस झूठे विकास के सपने के हाथों बराबर का धोखा खाया.

यही विकास है जिसके नाम पर पूंजीपतियों ने धीरे-धीरे इस देश के संसाधन अपने कब्ज़े में कर लिए. और आज इसी के खिलाफ ही तो दिल्ली की सीमाओं पर ‘किसान एकता’ के नारे गूंज रहे हैं.

जो धोखा साथ में खाया उसी धोखे का तो हिसाब मांग रहे हैं किसान. यही संदेश ले कर शिमला आए थे हरप्रीत और उसके साथी सिंघू बॉर्डर से. अपनों से अपना दुख बांटने.

(लेखक पर्यावरण-सामाजिक शोधकर्ता हैं और हिमधरा पर्यावरण समूह से जुड़ी हैं)

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