डीएन झा: वो इतिहासकार, जिसने तथ्यों-तर्कों के आधार पर इतिहास से जुड़े मिथकों को तोड़ा

डीएन झा ने राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा हिंदू संस्कृति को भारतीय संस्कृति का पर्याय बताने, सामाजिक विषमताओं की अनदेखी की आलोचना की थी. वे कहते थे कि ऐसे लोगों ने राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक औज़ार तो दिया, लेकिन भारतीय इतिहास संबंधी उनका लेखन ब्रिटिश इतिहासकारों से कम समस्याग्रस्त नहीं था.

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इतिहासकार डीएन झा. (फोटो साभार: ट्विटर/@manojkumarjnu)

डीएन झा ने राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा हिंदू संस्कृति को भारतीय संस्कृति का पर्याय बताने, सामाजिक विषमताओं की अनदेखी की आलोचना की थी. वे कहते थे कि ऐसे लोगों ने राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक औज़ार तो दिया, लेकिन भारतीय इतिहास संबंधी उनका लेखन ब्रिटिश इतिहासकारों से कम समस्याग्रस्त नहीं था.

इतिहासकार डीएन झा. (फोटो साभार: ट्विटर/@manojkumarjnu)
इतिहासकार डीएन झा. (फोटो साभार: ट्विटर/@manojkumarjnu)

‘द मिथ ऑफ होली काऊ’, ‘अगेंस्ट द ग्रेन’ और ‘रीथिंकिंग हिंदू आइडेंटिटी’ जैसी चर्चित पुस्तकों के लेखक और प्रसिद्ध इतिहासकार द्विजेंद्र नारायण झा का बीते चार फरवरी को निधन हो गया.

आज़ादी के बाद के वर्षों में जिन इतिहासकारों ने राजनीतिक इतिहास से परे जाकर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखकर प्राचीन भारत का इतिहास लिखा, उनमें द्विजेंद्र नारायण झा का नाम उल्लेखनीय है.

पचास के दशक में इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी (1907-1966) ने अपनी पुस्तकों ‘एन इंटरोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ (1957) और ‘कल्चर एंड सिविलाइजेशन ऑफ एंशियंट इंडिया इन हिस्टॉरिकल आउटलाइन’ (1965) के जरिये भारतीय इतिहासलेखन में क्रांतिकारी बदलाव की जो प्रक्रिया शुरू की, उसे द्विजेंद्र नारायण झा ने बख़ूबी आगे बढ़ाया.

दामोदर धर्मानंद (डीडी) कोसंबी ने न केवल राजनीतिक इतिहास की जगह सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संदर्भों से समृद्ध इतिहास की पैरोकारी की, बल्कि उन्होंने जेम्स मिल जैसे उपनिवेशवादी इतिहासकार द्वारा किए गए भारतीय इतिहास के उस काल-विभाजन को भी चुनौती दी, जिसे राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्रायः जस-का-तस अपना लिया था.

कोसंबी ने उत्पादन के साधनों और उत्पादन प्रणाली में आते बदलावों के आलोक में सामाजिक-आर्थिक इतिहास की बारीकियों को जानने-समझने का प्रयास किया.

संयोग नहीं कि अपने जीवन के आखिरी वर्षों में जब डीडी कोसंबी बिहार के गांवों का ऐतिहासिक दृष्टि से फील्ड सर्वे कर रहे थे. तब उनके सहयोगी के रूप में पटना विश्वविद्यालय के युवा छात्र द्विजेंद्र नारायण (डीएन) झा भी उनके साथ थे.

कोसंबी के अंतर्दृष्टिपूर्ण और विचारोत्तेजक लेखन से डीएन झा गहरे प्रभावित रहे. यहां तक कि उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया इन हिस्टॉरिकल आउटलाइन’ भी कोसंबी को ही समर्पित की है.

इस पुस्तक में डीएन झा ने भारतीय इतिहासलेखन की परंपराओं का गहन विश्लेषण किया. साथ ही, प्राच्यवादी, उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहासलेखन की सीमाओं को भी उन्होंने रेखांकित किया.

राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा हिंदू संस्कृति को भारतीय संस्कृति का पर्याय बताने, सामाजिक विषमताओं को अनदेखा करने की डीएन झा ने आलोचना की. उनका कहना था कि राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक वैचारिक औज़ार जरूर उपलब्ध कराया. लेकिन भारतीय इतिहास संबंधी उनका लेखन ब्रिटिश इतिहासकारों से कम समस्याग्रस्त नहीं था.

कहना न होगा कि बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में काशी प्रसाद जायसवाल जैसे इतिहासकारों के लेखन ने हिंदू पुनरुत्थानवाद की वैचारिक जमीन भी तैयार की. इसी वैचारिक धरातल पर खड़े होकर विनायक दामोदर सावरकर जैसे लोगों ने ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘हिंदुत्व’ जैसी अवधारणाएं गढ़ीं.

डीएन झा के अनुसार, राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने उपनिवेशवादी इतिहासकारों द्वारा किए गए काल विभाजन पर पुनर्विचार और वैज्ञानिक ढंग से काल निर्धारण की जरूरत पर कभी विचार ही नहीं किया.

डीएन झा ने कोसंबी और रामशरण शर्मा का अनुसरण करते हुए सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को समझने पर ज़ोर दिया और अपने समूचे लेखन में राजनीतिक बदलावों और इन प्रक्रियाओं के अंतरसंबंधों के पड़ताल की गंभीर कोशिश की.

अकादमिक यात्रा

वर्ष 1940 में पैदा हुए डीएन झा ने सत्रह वर्ष की उम्र में प्रेसीडेंसी कॉलेज (कोलकाता) से स्नातक की पढ़ाई की. आगे चलकर उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से वर्ष 1959 में एम.ए. और वर्ष 1964 पीएचडी पूरी की.

यहां वे इतिहासकार रामशरण शर्मा के छात्र रहे, जिनका गहरा वैचारिक प्रभाव डीएन झा पर पड़ा. डीएन झा ने मौर्योत्तर काल और गुप्त काल की राजस्व प्रणाली का ऐतिहासिक अध्ययन अपने शोध-प्रबंध में किया.

उनका यह शोध वर्ष 1967 में ‘रेवेन्यू सिस्टम इन पोस्ट-मौर्य एंड गुप्ता टाइम्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. अपने शिक्षक रामशरण शर्मा के सान्निध्य में रहते हुए उनका झुकाव ऐतिहासिक भौतिकवाद के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की ओर हुआ.

वर्ष 1975 तक उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में इतिहास का अध्यापन किया. बाद में, वे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शिक्षक बने और वहां लंबे समय तक उन्होंने अध्यापन किया.

उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं : स्टडीज़ इन अर्ली इंडियन इकनॉमिक हिस्ट्री (1980); इकॉनमी एंड सोसाइटी इन अर्ली इंडिया : इश्यूज़ एंड पैराडाइम्स (1993).

उन्होंने भारतीय इतिहास में सामंतवाद और सामाजिक इतिहास से संबंधित कई महत्वपूर्ण किताबें संपादित की. ये पुस्तकें हैं : फ्यूडल सोशल फॉर्मेशन इन अर्ली इंडिया (1987); सोसाइटी एंड आइडियोलॉजी इन इंडिया : एस्सेज़ इन ऑनर ऑफ प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा (1996).

इसके साथ ही उन्होंने डीडी कोसंबी के लेखन और ऐतिहासिक योगदान का मूल्यांकन करने वाले विचारोत्तेजक लेखों का एक संकलन ‘द मेनी कैरियर्स ऑफ डीडी कोसंबी’ शीर्षक से संपादित किया, जो वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ.

इस पुस्तक में डीएन झा के अलावा इरफान हबीब, प्रभात पटनायक, यूजेनिया वनीना, कृष्ण मोहन श्रीमाली, सुवीरा जायसवाल, केशवन वेलुथाट और सी.के. राजू के लेख भी शामिल हैं.

डीएन झा ने कृष्ण मोहन श्रीमाली के साथ ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ शीर्षक से एक पाठ्य-पुस्तक का संपादन भी किया. उनकी यह पुस्तक हिंदी माध्यम के छात्रों में अत्यंत लोकप्रिय रही.

डीएन झा वर्ष 1979 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के प्राचीन भारत इतिहास वर्ग के अध्यक्ष बने. उन्होंने पटियाला में आयोजित हुए पंजाब हिस्ट्री कॉन्फ्रेंस के 31वें अधिवेशन की अध्यक्षता की. वहां दिए अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने पंजाब के विशेष संदर्भ में इतिहास और सांप्रदायिकता के सवाल पर चर्चा की थी.

वर्ष 2005 में वे भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. इस अवसर पर दिए गए अपने विचारोत्तेजक अध्यक्षीय भाषण (‘लुकिंग फॉर ए हिंदू आइडेंटिटी’) में डीएन झा ने हिंदू अस्मिता की निर्मिति की ऐतिहासिक प्रक्रिया, इसमें भागीदार तत्त्वों, समूहों और उनकी सीमाओं का विस्तृत विवेचन किया.

‘स्वर्ण काल’ का मिथक

डीएन झा के इतिहासलेखन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही कि उन्होंने ठोस तथ्यों और अकाट्य तर्कों के आधार पर भारतीय इतिहास से जुड़ी कई भ्रांतियों और मिथकों का खंडन किया.

वर्ष 1977 में प्रकाशित हुई उनकी किताब ‘एंशियंट इंडिया’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसमें उन्होंने राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा गुप्त साम्राज्य के शासनकाल को ‘स्वर्ण काल’ घोषित किए जाने को आड़े हाथों लिया.

इस पुस्तक का एक पूरा अध्याय ही गुप्त साम्राज्य के स्वर्ण काल होने के मिथक को तोड़ते हुए लिखा गया है. डीएन झा ने दर्शाया कि जहां एक ओर गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में ही प्रशासनिक प्राधिकार (अथॉरिटी) के विकेंद्रीकरण की शुरुआत हुई.

वहीं गुप्त शासकों द्वारा दिए गए भूमि अनुदानों ने आगे चलकर सामंती व्यवस्था के उदय की भूमिका तैयार की. गुप्त काल के दौरान स्त्रियों की दशा और बदतर हो गई तथा ‘विष्टि’ के रूप में बेगार प्रथा की भी शुरुआत हुई.

डीएन झा इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘उच्च वर्गों के लिए इतिहास के सभी कालखंड स्वर्णिम ही रहे हैं, जबकि आम लोगों के लिए कोई भी काल स्वर्णिम नहीं रहा है. वस्तुतः आमजन का स्वर्णकाल अतीत में नहीं भविष्य में स्थित होता है.’

गुप्त काल में वर्ण व्यवस्था भी प्रचलन में थी. शूद्रों व अछूतों की सामाजिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी. अस्पृश्यता की अमानवीय व्यवस्था ने उन्हें अपमान और प्रताड़ना झेलने पर मजबूर कर दिया था. चीनी यात्री फ़ाहियान ने चांडालों की दुर्दशा का चित्रण अपने यात्रा-वृत्तांत में भी किया है.

कोसंबी को उद्धृत करते हुए डीएन झा ने ठीक ही लिखा था कि ‘गुप्त वंश के इतिहास ने राष्ट्रवाद को जीवन नहीं दिया, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद ने ही गुप्त शासकों को पुनर्जीवन दिया.’

डीएन झा ने आदिकालीन भारत का इतिहास लिखते हुए भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और निरंतरता के तत्त्वों को रेखांकित किया. उन्होंने सामाजिक तनावों की पृष्ठभूमि को समझने के क्रम में धर्म, मिथक व अंधविश्वास की सामाजिक भूमिकाओं की भी गहन पड़ताल की.

पवित्र गाय का मिथक

वर्ष 2001 में डीएन झा की चर्चित किताब ‘द मिथ ऑफ होली काऊ’ प्रकाशित हुई. इस पुस्तक में डीएन झा ने गाय की पवित्रता के मिथक का खंडन किया और प्राचीन भारत में गोमांस के उपयोग की ऐतिहासिकता को तथ्यों और प्रमाणों के साथ सिद्ध किया.

इस क्रम में, डीएन झा ने हिंदू, जैन और बौद्ध परंपरा से जुड़े धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ संस्कृत, पाली और प्राकृत साहित्य का भी विशद अध्ययन किया और अपने तर्क के पक्ष में अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत किए.

गौरतलब है कि डीएन झा से पहले भी एचएच विल्सन, राजेंद्रलाल मित्र, एचडी सांकलिया, पीवी काणे, लक्ष्मण शास्त्री जोशी सरीखे विद्वान प्राचीन भारत में गोमांस के प्रचलन पर सप्रमाण लिख चुके थे.

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजेंद्र लाल मित्र ने प्राचीन भारत में गोमांस के प्रचलन के बारे में एक लेख ‘द जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ में लिखा था, जो बाद में उनकी पुस्तक ‘द इंडो-आर्यन्स’ में भी संकलित होकर छपा.

डीएन झा ने लिखा कि गाय की पवित्रता से जुड़े मिथक और गाय के प्रति श्रद्धा का इस्तेमाल सांप्रदायिक दलों द्वारा हिंदुओं की सांप्रदायिक अस्मिता गढ़ने के लिए किया गया. उनके अनुसार वैदिक और उत्तर-वैदिक काल तक गाय या दूसरे दुधारू पशु पवित्र पशु की श्रेणी में नहीं रखे गए थे.

अपनी इस पुस्तक के लिए डीएन झा ने ऐतिहासिक स्रोत के रूप में वेदों और उपनिषदों के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथों, पुराणों, गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्र, स्मृति ग्रंथों के साथ-साथ चरक संहिता जैसी पुस्तकों का भी इस्तेमाल किया.

वर्ष 2009 में इस पुस्तक के भारतीय संस्करण का पुनर्प्रकाशन नवयान द्वारा किया गया. उक्त संस्करण की भूमिका में डीएन झा ने इस किताब के प्रकाशन में आई कठिनाइयों का ज़िक्र किया है.

एक प्रकाशक द्वारा इस पुस्तक को छापने से मना किए जाने के बाद यह किताब दिल्ली स्थित मैट्रिक्स बुक्स द्वारा अगस्त 2001 में प्रकाशित की गई. लेकिन इसके छपते ही कुछ दक्षिणपंथी नेताओं और कट्टरपंथी समूहों ने डीएन झा की गिरफ्तारी की मांग की और अदालत में अपील दायर कर पुस्तक के वितरण पर रोक लगवा दी.

इस दौरान किताब के संदर्भ में ही डीएन झा को धमकी भरे फोन आने शुरू हुए. फोन करने वालों द्वारा उन्हें चेताया जाता कि वे इस किताब को किसी भी सूरत में प्रकाशित न कराएं. लेकिन डीएन झा इन धमकियों के आगे झुके नहीं.

बाद में इस पुस्तक के अंतरराष्ट्रीय संस्करण का प्रकाशन इतिहासकार तारिक अली के सहयोग से वर्सो (लंदन) द्वारा किया गया.

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं.)

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