2019 में केंद्र की समिति ने बताया था कि फायदे के लिए पनबिजली प्रोजेक्ट गंगा में पानी नहीं छोड़ते

विशेष रिपोर्ट: मोदी सरकार ने अक्टूबर 2018 में एक नोटिफिकेशन जारी किया था कि गंगा की ऊपरी धाराओं यानी कि देवप्रयाग से हरिद्वार तक बनी सभी पनबिजली परियोजनाओं को अलग-अलग सीजन में 20 से 30 फीसदी पानी छोड़ना होगा. आरोप है कि ऐसी परियोजनाएं बहुत कम मात्रा में पानी छोड़ते हैं, जिससे नदी के स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है.

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उत्तराखंड के चमोली जिले में आए आपदा के बाद तपोवन बैराज में बचाव अभियान. (फोटो: पीटीआई)

विशेष रिपोर्ट: मोदी सरकार ने अक्टूबर 2018 में एक नोटिफिकेशन जारी किया था कि गंगा की ऊपरी धाराओं यानी कि देवप्रयाग से हरिद्वार तक बनी सभी पनबिजली परियोजनाओं को अलग-अलग सीजन में 20 से 30 फीसदी पानी छोड़ना होगा. आरोप है कि ऐसी परियोजनाएं बहुत कम मात्रा में पानी छोड़ते हैं, जिससे नदी के स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है.

Chamoli: Damaged Dhauliganga hydropower project after a glacier broke off in Joshimath causing a massive flood in the Dhauli Ganga river, in Chamoli district of Uttarakhand, Sunday, Feb. 7, 2021. (PTI Photo)(PTI02 07 2021 000195B)
प्राकृतिक आपदा के चलते तबाह हुई धौलीगंगा पनबिजली परियोजना. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: उत्तराखंड के चमोली जिले में आई प्राकृतिक आपदा के बाद एक बार फिर से हिमालयी क्षेत्रों में पनबिजली या जलविद्युत परियोजनाओं की उपयोगिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं. आरोप है कि ऐसी परियोजनाएं बहुत अधिक मात्रा में गंगा का पानी रोक रही हैं और बहुत कम पानी छोड़ते हैं, जिससे नदी के स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ रहा है.

ये बातें सिर्फ विशेषज्ञ और कार्यकर्ता ही नहीं करते हैं, बल्कि खुद केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की एक रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है.

द वायर  द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि जुलाई, 2019 में विशेषज्ञों की एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आर्थिक फायदे के लिए गंगा पर बनीं जलविद्युत परियोजनाएं पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं छोड़ रही हैं.

दरअसल मोदी सरकार ने अक्टूबर 2018 में एक नोटिफिकेशन जारी कर कानून बनाया था कि गंगा की ऊपरी धाराओं यानी कि देवप्रयाग से हरिद्वार तक बनी सभी पनबिजली परियोजनाओं को अलग-अलग सीजन में 20 से 30 फीसदी पानी छोड़ना होगा. इसे पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो कहा जाता है.

जल शक्ति मंत्रालय के इस नोटिफिकेशन के मुताबिक, इन परियोजनाओं को नवंबर से मार्च के दौरान 20 फीसदी, अप्रैल-मई और अक्टूबर के दौरान 25 फीसदी तथा जून से सितंबर के बीच 30 फीसदी पानी नदी में छोड़ने के लिए कहा गया था.

इसके अलावा गंगा की निचली धाराओं यानी कि उत्तराखंड से उन्नाव के बीच बने तमाम सिंचाई बराजों मानसून एवं गैर-मानसून सीजन के समय 24 से 57 घन मीटर प्रति सेकंड पानी छोड़ने का आदेश दिया गया था.

वैसे विशेषज्ञों ने पर्यावरणीय प्रवाह की इस मात्रा को बहुत अपर्याप्त बताया है और कहा है कि नदी एवं इसके जलीय जीवों को बचाने के लिए करीब 50 फीसदी पानी नदी में छोड़ना आवश्यक है. इन्हीं दलीलों के साथ ई-फ्लो नोटिफिकेशन को उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है.

बहरहाल दस्तावेज दर्शाते हैं कि ये परियोजनाएं इतना भी पानी नदी में नहीं छोड़ रही थीं.

इसे लेकर जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण विभाग के सचिव की अध्यक्षता में 10 मई 2019 को हुई एक बैठक में ये फैसला लिया गया कि विशेषज्ञों की एक समिति इन जगहों पर जाकर पता लगाए कि आखिर क्यों ये परियोजनाएं नियमों का पालन नहीं कर रही हैं.

विशेषज्ञ समिति ने 12-16 जून 2019 के बीच पांच पनबिजली परियोजनाओं का दौरा किया और 11 जुलाई 2019 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी.

समिति ने कहा है कि आर्थिक फायदे के लिए ये परियोजनाएं ई-फ्लो नियमों का पालन नहीं कर रही हैं और कम पानी छोड़ रही हैं.

E-Flow
विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षों का ब्योरा पेश करती एक फाइल नोटिंग.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सभी मौजूदा परियोजनाओं में ये प्रावधान है कि वे गेट इत्यादि के माध्यम से निर्धारित पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ सकते हैं और इनकी संरचनाओं में परिवर्तन करने की जरूरत नहीं है. आर्थिक कारणों (फायदे) के चलते कुछ परियोजनाएं, मुख्य रूप से पनबिजली परियोजनाओं, द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय प्रवाह का पालन नहीं किया जा रहा है.’

विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा कि अधिकतर परियोजनाओं ने अभी तक ऐसे सिस्टम अपने यहां नहीं लगाए हैं, जिससे ई-फ्लो की मॉनिटरिंग हो सके.

उन्होंने कहा, ‘अधिकतर परियोजनाओं ने अभी तक ‘ऑटोमैटिक डेटा एक्विजिशन एंड ट्रांसमिशन सिस्टम’ नहीं लगाया है. हालांकि परियोजना अधिकारियों ने वादा किया था कि वे दिसंबर 2019 तक इसे लगा देंगे.’

समिति ने कहा कि ई-फ्लो की मॉनिटरिंग और डेटा इकट्ठा करने के लिए केंद्रीय जल आयोग की मौजूदा व्यवस्था का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि परियोजनाओं द्वारा भेजे जा रहे आंकड़ों का सत्यापन किया जा सके. 

उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह के मॉनिटरिंग सिस्टम का जाल और जगहों पर बिछाया जाना चाहिए. इसके लिए ‘जीएसएम बेस्ड वॉटर लेवल सेंसर’ लगाने की सिफारिश की गई थी.

हालांकि पर्यावरणीय प्रवाह लागू करने के संबंध में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट (जुलाई, 2020) से पता चलता है कि मंत्रालय इन परियोजनाओं द्वारा भेजे गए आंकड़ों पर ही अंतिम विश्वास कर रहा है और खुद कोई मॉनिटरिंग नहीं कर रहा है कि ई-फ्लो नियमों को लागू किया जा रहा है या नहीं.

किन परियोजनाओं का निरीक्षण किया गया था

इस विशेषज्ञ समिति में ऊपरी गंगा बेसिन संगठन, केंद्रीय जल आयोग, लखनऊ के चीफ इंजीनियर भोपाल सिंह, रूड़की के राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक प्रदीप कुमार, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के डिप्टी डायरेक्टर बलवान कुमार, ऊपरी गंगा बेसिन संगठन, देहरादून के आशीष कुमार सिंहल शामिल थे.

इस टीम ने बांध/बराज/नहरों/पावरहाउस इत्यादि का दौरा किया और परियोजना अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श किया.

इन्होंने ऋषिकेश स्थित पशुलोक बराज, श्रीनगर जलविद्युत परियोजना, चमोली के विष्णुप्रयाग पनबिजली परियोजना, हरिद्वार का भीमगौड़ा बराज और चमोली के विष्णुगाड-पीपलकोटी पनबिजली परियोजना का निरीक्षण किया.

इसके अलावा ऊपरी गंगा बेसिन संगठन के चीफ इंजीनियर और मध्य गंगा मंडल-2 के अधिशासी अभियंता द्वारा कानपुर के गंगा बराज का निरीक्षण किया गया था.


Environmental Flow (E-Flow) by The Wire

रिपोर्ट के मुताबिक निरीक्षण के दौरान पशुलोक बराज से ई-फ्लो मानक के अनुसार पानी छोड़ा जा रहा था. हालांकि पानी की मात्रा का आकलन मैनुअल तरीके से हो रहा था.

इसके अलावा इनके आंकड़ों को सत्यापित करने के लिए सरकार की ओर से कोई सिस्टम या सेंसर नहीं लगाया गया था, जो ये पुष्टि कर सके कि वाकई उतना पानी छोड़ा जा रहा है, जितना कि परियोजना के अधिकारी दावा कर रहे हैं.

वहीं पर्यावरणीय प्रवाह को लेकर श्रीनगर जलविद्युत परियोजना में भारी अनियमितता देखने को मिली. रिपोर्ट के मुताबिक यहां से काफी कम मात्रा में पानी छोड़ा जा रहा था, जो कि करीब 13 वर्ग मीटर प्रति सेकंड था.

उन्होंने कहा, ‘परियोजना संचालकों ने बताया कि वे उतना ही ई-फ्लो छोड़ रहे है जितना की इस परियोजना को स्वीकृति देते समय तय हुआ था. उन्होंने कहा कि नए नियम के मुताबिक पानी छोड़ने पर उन्हें बिजली और कमाई का काफी नुकसान होगा.’

इसके अलावा इस परियोजना में ऐसे स्लुईस गेट लगाए गए हैं, जिससे पानी के साथ-साथ गाद भी बह रहा था. अधिकारियों ने इसके लिए कहा कि वे थोड़ा नीचे स्तर का गेट लगाएं ताकि कम गाद बहे.

करीब-करीब ऐसी ही स्थिति विष्णुप्रयाग पनबिजली परियोजना पर भी देखने को मिली.

रिपोर्ट में बताया गया है कि यहां पर ई-फ्लो छोड़ने के लिए जो सिस्टम लगाया गया है, वो काम नहीं कर रहा था. इसके लिए लगाई गईं पाइपें बंद पड़ी हुई थीं. इसे लेकर परियोजना संचालकों ने दलील दी कि नीचे जाकर कई सारी सहायक धाराएं अलकनंदा नदी में मिलती हैं, इसलिए ई-फ्लो की जरूरत इस तरह पूरी हो जाती है.

रिपोर्ट के मुताबिक, परियोजना के प्राधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया कि यदि वे सरकार द्वारा तय किए गए ई-फ्लो नियमों को लागू करते हैं तो उन्हें बिजली और कमाई का काफी नुकसान होगा.

विशेषज्ञों ने कहा, ‘परियोजना के प्राधिकारियों का कहना है कि यदि वे एक घन मीटर प्रति सेकंड भी अतिरिक्त पानी छोड़ते हैं तो उन्हें आठ मेगावॉट बिजली का नुकसान होगा.’

इस संबंध में समिति ने कहा कि केंद्रीय जल आयोग यहां पर खुद अपना सेंसर लगाए ताकि पर्यावरणीय प्रवाह के आंकड़ों का सत्यापन किया जा सके.

Chamoli: Villagers watch the rescue operations carried at Tapovan barrage, following the Sundays glacier burst in Joshimath causing a massive flood in the Dhauli Ganga river, in Chamoli district of Uttarakhand, Wednesday, Feb. 10, 2021. (PTI Photo/Arun Sharma) (PTI02 10 2021 000065B)
उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से जोशीमठ स्थित धौलीगंगा नदी में भीषण बाढ़ आ गई थी. तपोवन बराज के पास जारी बचाव कार्य को देखते ग्रामीण. (फोटो: पीटीआई)

वहीं भीमगौड़ा और गंगा बराज के निरीक्षण के दौरान ये पाया गया कि वे सरकार द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय प्रवाह नियमों का पालन कर रहे थे. हरिद्वार के नजदीक हर की पौड़ी में भीमगौड़ा बराज है, जो कि 455 मीटर लंबा है. इसका पानी ऊपरी गंगा नहर और पूर्वी गंगा नहर में भेजा जाता है.

क्या है वर्तमान स्थिति

जल शक्ति मंत्रालय की संस्था केंद्रीय जल आयोग गंगा पर स्थित (उन्नाव तक) 17 बड़ी परियोजनाओं में से 10 की निगरानी करता है कि इसमें से कितनी परियोजनाएं तय मात्रा में नदी में पानी छोड़ रहे हैं.

जुलाई 2020 की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने दावा किया है कि सिर्फ श्रीनगर पनबिजली परियोजना को छोड़कर ज्यादातर परियोजनाएं ई-फ्लो नियमों का पालन कर रही हैं.

हालांकि इसकी विश्वसनीयता पर काफी सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि ये आंकड़े खुद मंत्रालय अपनी किसी एजेंसी के जरिये इकट्ठा नहीं करता है, बल्कि परियोजनाओं द्वारा भेजे गए आंकड़ों को ही अंतिम मान लिया जाता है.

इसमें कहा गया है, ‘परियोजना के प्राधिकारियों द्वारा भेजे गए आंकड़ों के अनुसार ज्यादातर परियोजनाओं ने ई-फ्लो मानक का पालन किया है.’

रिपोर्ट के मुताबिक, टिहरी और कानपुर बराज से प्रति घंटे के आधार पर आंकड़े प्राप्त नहीं हुए हैं. टिहरी दिन के आधार पर और कानपुर बराज दो घंटे के आधार पर आंकड़े भेज रहा है.

अभी तक टिहरी, कोटेश्वर डैम, भीमगौड़ा बराज और नरौरा बराज पर ‘ऑटोमैटिक डेटा एक्विजिशन एंड ट्रांसमिशन सिस्टम’ नहीं लगाए गए हैं, जो कि पानी छोड़ने की मात्रा का आकलन करने के लिए महत्वपूर्ण होता है. जबकि विशेषज्ञ समिति द्वारा निरीक्षण के दौरान इन परियोजना संचालकों की ओर से कहा गया था कि वे दिसंबर, 2019 तक इसे लगा देंगे.

क्यों जरूरी है पर्यावरणीय प्रवाह

यदि साधारण शब्दों में कहें तो किसी भी नदी के विकास के लिए जरूरी न्यूनतम प्रवाह को पर्यावरणीय प्रवाह कहा जाता है. इसका मतलब ये है कि नदी के स्वास्थ्य और इसके जलीय जीवों जैसे कि मछलियां, घड़ियाल, डॉलफिन इत्यादि की आजीविका के लिए कम से कम इतना पानी होना चाहिए.

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) (2003) की परिभाषा के मुताबिक, किसी नदी, वेटलैंड या तटीय क्षेत्रों के इकोसिस्टम को बनाए रखने और उनके विकास में योगदान के लिए जितना पानी दिया जाना चाहिए, उसे पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो कहते हैं.

लेकिन नदियों पर जलविद्युत परियोजनाएं बनाने से नदी में पानी की मात्रा काफी प्रभावित होती है. पर्यावरणीय प्रवाह नदी की अविरलता सुनिश्चित करता है.

जलविद्युत परियोजनाओं की भरमार के बाद पिछले कई सालों से भारत की नदियों में पर्याप्त पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की मांग उठती रही है. इसे लेकर 2006 से 2018 के बीच विभिन्न स्तरों पर कम से कम 12 रिपोर्ट तैयार की गई, लेकिन इनके बीच सर्वसम्मति नहीं बन पाई और ई-फ्लो की मात्रा को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय रही.

द वायर  ने अपनी पिछली रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह से सरकार ने उस समिति की रिपोर्ट स्वीकार नहीं की, जिसने नदी में ज्यादा पानी छोड़ने की सिफारिश की थी, जबकि तत्कालीन केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने इस पर सहमति जताई थी.

इतनी ही नहीं सरकार ने जिस पॉलिसी पेपर के आधार पर मौजूदा ई-फ्लो घोषित किया है, उसमें किसी भी प्राथमिक (नए) आंकड़ों का संकलन नहीं है, बल्कि ई-फ्लो पर पूर्व में किए गए विभिन्न अध्ययनों का विश्लेषण करके इसकी सिफारिश कर दी गई थी.

कुल मिलाकर अगर देखें तो चार रिपोर्टों में पनबिजली परियोजनाओं के लिए करीब 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई है. वहीं तीन रिपोर्ट ऐसी हैं, जिसमें 20-30 फीसदी ई-फ्लो रखने की बात की गई है. जल शक्ति मंत्रालय ने इसी सिफारिश को लागू करना जरूरी समझा.

द वायर  ने अपने एक अन्य रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह उत्तराखंड सरकार ने पनबिजली परियोजनाओं द्वारा कम पानी छोड़ने की वकालत की थी और कहा था कि यदि मौजूदा नियमों को लागू किया जाता है तो इससे 3500 करोड़ रुपये का नुकसान होगा.