देश के राजनीतिक दल आरटीआई से क्यों डरते हैं?

राजनीतिक दलों के नाम एक आम नागरिक का पत्र.

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राजनीतिक दलों के नाम एक आम नागरिक का पत्र.

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(फोटो: पीटीआई)

 

सेवा में,

एक भारतीय नागरिक के नाते यह संयुक्त खुला पत्र आप सबको संबोधित कर रहा हूं. क्या आपको इस देश के संसदीय लोकतंत्र पर भरोसा है? क्या आपको संसद में खुद आप लोगों के द्वारा बनाए गए कानून पर भरोसा है? क्या आप सबने विभिन्न संवैधानिक पद ग्रहण करते हुए देश में विधि का राज स्थापित करने की शपथ ली है?

अगर हां, तो भला आप लोग सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 से खुद को ऊपर कैसे समझते हैं? केंद्रीय सूचना आयोग के तीन जून 2013 के आदेश की अनदेखी करने जैसी अवैधानिक हरकत करने की इजाजत आप सबको किसने दी?

यह खुला पत्र केंद्रीय सूचना आयोग की ताजा नोटिस के आलोक में लिख रहा हूं. केंद्रीय सूचना आयोग ने चार सदस्यीय बेंच बनाई है. आपको 16 से 18 अगस्त 2017 तक सुनवाई के लिए बुलाया गया है. आप सभी छह पार्टियों को सूचना कानून के दायरे में लाने का मामला चार साल से लटका है.

केंद्रीय सूचना आयोग ने तीन जून 2013 के आदेश में आप सभी छह पार्टियों को ‘लोक प्राधिकार’ का दर्जा दिया था. लेकिन आप सभी पार्टियों ने उस आदेश पर चुप्पी साध ली. उस आदेश का न तो पालन किया, न उसे अदालत में चुनौती दी और न ही सूचना कानून में कोई बदलाव करके खुद को इससे बाहर करने की हिम्मत दिखाई.

लिहाजा, यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि जिन राजनीतिक दलों ने संसद में सूचना कानून बनाया, उसका पालन वे स्वयं नहीं करेंगे तो आखिर देश में कानून का राज कैसे स्थापित होगा?

आप सब जानते हैं कि सूचना का अधिकार कानून बेहद सरल एवं स्पष्ट है. इसकी किसी व्याख्या या परिभाषा में विवाद की कोई गुंजाइश नहीं. इसके अनुसार ‘लोक प्राधिकार‘ से तात्पर्य ऐसे संस्थान से है, जिसकी स्थापना संविधान द्वारा अथवा संसद या विधानसभा के कानून द्वारा हुई हो, अथवा जो सरकारी संसाधनों से चलता हो. इसमें ऐसी गैर-सरकारी संस्थाएं भी शामिल हैं, जो सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित हों.

ऐसी स्पष्ट व्याख्या के बावजूद आप सभी राजनीतिक दल खुद को इस कानून से बाहर रखना चाहते हैं. इस मामले में एडीआर की ओर से अनिल बैरवार तथा आरटीआई के चर्चित कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने आपसे विभिन्न सूचना मांगी थी. सूचना नहीं मिलने पर मामला केंद्रीय सूचना आयोग में गया. आयोग ने तीन जून 2013 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए आप सभी छह दलों को ‘लोक प्राधिकार‘ का दरजा दिया था.

इस फैसले का आधार यह था कि राजनीतिक दलों को आयकर में भारी छूट, कार्यालयों हेतु सस्ती दर पर जमीन और भवन, चुनाव प्रचार हेतु रेडियो-टीवी पर निशुल्क प्रचार का अवसर इत्यादि दिये जाते हैं.

साथ ही, राजनीतिक दलों के पास अपने सांसदों, विधायकों इत्यादि के माध्यम से विभिन्न संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप के महत्वपूर्ण अधिकार हैं.

इस तरह इन दलों के संचालन में सरकार के संसाधनों का पर्याप्त हिस्से का उपयोग होता है. लिहाजा, इन्हें ‘लोक प्राधिकार‘ समझा जाना चाहिए. इसका आशय यह है कि इन दलों को अपने कार्यालय में जनसूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी नियुक्त करने होंगे.

साथ ही, सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा चार के आलोक में 17 बिंदुओं पर सूचनाओं की स्वयं घोषणा करनी होगी. लेकिन आप लोगों ने चार साल तक उक्त आदेश पर चुप्पी साधकर केंद्रीय सूचना आयोग को ठेंगा दिखाया है. यही कारण है कि अब केंद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले पर बड़ी बेंच बनाकर 16 अगस्त से तीन दिनों तक सुनवाई रखी है.

आप अवगत होंगे कि विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में निर्वाचन कानून में सुधार संबंधी सिफारिश की थी. इसके पैरा 3.1.2.1 में कहा गया था कि सभी राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही होनी चाहिए. जो राजनीतिक दल आंतरिक कार्यकलापों में लोकतांत्रिक नहीं हों, वे देश में सुशासन का माध्यम नहीं हो सकते. यह संभव नहीं कि किसी दल में आंतरिक तानाशाही हो और बाहर से लोकतंत्र.

हैरानी की बात तो यह है कि सीपीआई और सीपीएम जैसी कम्युनिस्ट पार्टियां भी सूचना कानून से मुंह चुरा रही हैं जबकि आपके पास तो छिपाने के लिए कुछ नहीं होता. आपको तो खुद आगे आकर आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए था.

कांग्रेस का रवैया भी गजब है. यूपीए के दस साल के शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि सूचना कानून बनाना ही है. लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान अर्णब गोस्वामी को इंटरव्यू देते हुए राहुल गांधी ने लगभग हर दूसरी-तीसरी पंक्ति में इस कानून का उल्लेख किया था लेकिन अब इस पर चुप्पी है.

क्या सूचना कानून पर सभी दलों का एक हो जाना आपके सबके सत्ताकेंद्रित और जनविरोधी चरित्र का उदाहरण मान लिया जाए? क्या इस कथन को सच मान लिया जाए कि ‘सब मिले हुए हैं?‘

आप सभी के अब तक के रवैये से स्पष्ट प्रतीत होता है कि आप सबने केंद्रीय सूचना आयोग को नीचा दिखाने का फैसला कर लिया है. संभव है कि 16 अगस्त से रखी गई सुनवाई में आप लोग उपस्थित ही न हों. संभव है कि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा भय अथवा चाटुकारिता में इस महत्वपूर्ण खबर की अनदेखी कर दे.

लेकिन नागरिक सब देख रहे हैं. आपके कार्यकर्ता भी सब देख रहे हैं. वामदलों और कांग्रेस ही नहीं, भाजपा, बसपा और एनसीपी में भी ऐसे गंभीर विचारवान लोग हैं जो देश में लोकतंत्र और विधि का राज चाहते हैं.

याद रहे कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में कानून का राज किसी पुलिस, फौज-फांटे के भरोसे नहीं चलता. वह कानून के प्रति सम्मान से चलता है. जिस तरह आपलोग कानून का मखौल उड़ा रहे हैं, उस तरह अगर देश की मात्र एक प्रतिशत आबादी ने भी कानून को ठेंगा दिखाना शुरू कर दिया तो सवा करोड़ अराजक लोगों को संभालना आपके वश के बाहर हो जाएगा. कई राज्यों में मामूली अराजक भीड़ के उत्पात के हर मौके पर आपकी पुलिस भाग खड़ी हुई है.

यह खुला पत्र इस उम्मीद के साथ लिखा जा रहा है कि 16 अगस्त की सुनवाई में आप सभी पार्टियां सकारात्मक रूप से उपस्थित होकर अपना कानूनी पक्ष रखेंगी और आयोग का जो भी निर्णय हो, उसका अनुपालन करेंगी. अगर उसमें कोई असहमति हो, तो उसे समुचित अदालत में चुनौती देने को आप स्वतंत्र हैं. लेकिन भला आप यह कैसे कह सकते हैं कि सूचना आयोग जाए भाड़ में, हम सब तो मिले हुए हैं.

और हां, क्या सीपीआई, सीपीएम, कांग्रेस से देश किसी वैकल्पिक रवैये की उम्मीद कर सकता है? जवाब के लिए 16 अगस्त का इंतजार रहेगा.

(विष्णु राजगढ़िया)
एक भारतीय नागरिक

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