हिंदुत्व के अधिनायकवाद की भी अपनी सीमाएं हैं

हिंदुत्व की विचारधारा का आधुनिक दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है.

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अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

हिंदुत्व की विचारधारा का आधुनिक दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है.

अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)
अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

भारत में आज जो हो रहा है, वर्तमान निजाम जिस तरह से विरोध प्रदर्शनकारियों, पत्रकारों, कॉमेडियनों, हर तबके के लोगों का दमन कर रहा है, उसे कई नामों से पुकारा गया है: अघोषित आपातकाल, तानाशाही, यहां तक कि फासीवाद.

राजनीति विज्ञान की सूक्ष्मताओं के मुरीद इसे आद्य फासीवाद, यानी असली फासीवादी का आगे ले जाने वाला कह सकते हैं. इन सभी अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि इनमें से कोई भी वर्तमान समय में जो हो रहा है, उसे पूरी तरह से बयान नहीं करता है.

वर्तमान समय को समझने के लिए और जिस तरह से दमनकारी शक्तियों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे समझने की कोशिश करने के लिए हमें विदेशी विचारधाराओं, परंपरागत राजनीतिक चिंतन और यहां तक कि हालिया इतिहास- जब राजनीति की झीनी ओट में छिपकर इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया- की शरण में जाने से बचना चाहिए.

योगी आदित्यनाथ और उनके राजनीतिक और वैचारिक आका जो कर रहे हैं, वह इन सबसे थोड़ा अलग है- यह खालिस भारतीय है, पूरी तरह से भारत की मिट्टी की उपज है और इसका जीवन तत्व भारतीय परंपराओं और सामाजिक हालातों से ग्रहण किया गया है.

अगर यहां कोई वाद है तो पूरी तरह से इस देश से निकला हुआ वाद है, ठीक वैसे ही जैसे अभिजात्य शिक्षा पाने वाले और मार्क्सवादी-लेनिनवादी झुकाव वाले पॉल पॉट का ख्मेर रूज खालिस कंबोडियाई अवतार था. लेकिन हिंदुत्व के हमारे लड़ाकों को यह भी उपलब्ध नहीं है.

हो सकता है कि आरएसएस हिटलर का प्रशंसक रहा हो, हो सकता है कि इसके सबसे बड़े नायकों में से एक वीडी सावरकर को 1930 के दशक के फासीवाद की जानकारी रही हो, लेकिन इसके देसी रंगरूट भारतीय मिथक और इतिहास को संगठन के नजरिये से पढ़ते हैं.

और वास्तविकता यह है कि आदित्यनाथ आरएसएस से नहीं निकले हैं- उनका संबंध गोरखनाथ पंथ से है, जो कि किसी जमाने में असंकीर्ण और समावेशी था और इसके अनुयायियों में मुस्लिम योगी भी शामिल थे. एक अमेरिकी विद्वान का लेख इस संबंध में काफी जानकारी देने वाला है.

गोरखनाथ पंथ अब काफी पथभ्रष्ट हो चुका है और इस पंथ से निकले आदित्यनाथ इसके सबसे ज्यादा विषैले हिंदुत्व के सिपाही हैं.

आदित्यनाथ हों या दिल्ली, नागपुर आदि में बैठे दूसरे लोग, वे सभी पूरी तरह से भारतीय हैं और सिर्फ भारतीय मूल्यों से परिचित हैं. असहमति से निपटने का उनका अक्सर बर्बर तरीका भारतीय पितृसत्तात्मक परंपराओं, जाति-संरचना, सामंतवाद और तगड़े मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह में धंसा हुआ है.

आदर्श सामाजिक संरचना की संघी समझ इन लक्षणों पर टिकी है- स्पष्ट तौर पर परिभाषित पदानुक्रमों वाला एक समाज और परिवार, जिस पर उच्च जाति के हिंदू मर्दों का दबदबा है. हर कोई अपना स्थान जानता है- घर का सबसे उम्रदराज व्यक्ति सभी फैसले लेता है और उसका कहा ब्रह्मा की लकीर होता है.

अन्य लोग उसके निर्देशों का पालन करते हैं. कोई सवाल नहीं पूछा जाता है. उसे सभी ज्ञान का सागर, दयालु, निष्पक्ष और देशभक्त माना जाता है और उसके विरोध या नाफरमानी की इजाजत नहीं है.

महिलाएं घरेलू काम करती हैं, गायों को पालती हैं, अपने पतियों और घर के बड़े उम्र के पुरुषों की आज्ञा का पालन करती हैं और सब को खुश और संतुष्ट रखने की कोशिश करती हैं. मर्द परिवार के लिए कमाते हैं. बच्चे अपने अभिभावकों की फरमाबरदारी करते हैं.

ऐसे परिवार मिलकर हिंदू समाज का निर्माण करते हैं- जिसकी पहचान हर किसी को खास काम सौंपने वाले परंपरागत कानूनों के तहत निर्मित कठोर पदानुक्रम और स्पष्ट तौर पर बंटी हुई भूमिकाएं है.

इस हिसाब से ब्राह्मण सभी ज्ञान और सूचनाओं की खान हैं. क्षत्रिय शासन करते हैं और युद्ध लड़ते हैं. वैश्य व्यापार करते हैं और शूद्र अपना सिर झुकाए हुए दूसरों द्वारा फैलाई गंदगी को साफ करते हैं.

ऐसे समाज आत्मनिर्भर थे, और इन्हें किसी बाहरी संबंधों की जरूरत नहीं थी. हर कोई खुश और संतुष्ट था. इस तरह के समाज में बाहरियों और पराए लोगों के लिए कोई जगह नहीं है- कोई असंतुष्ट नहीं, सवाल करने वाले नहीं, बगावत करने वाले नहीं, कोई इतर यौनिक आचरण करने वाले नहीं और सबसे अहम तौर पर कोई मुस्लिम नहीं.

इन सबके लिए उनकी विश्वदृष्टि में कोई जगह नहीं. मोहम्मद गज़नी जैसे लुटेरे और मुगल शहंशाहों को हिंदू शासन में, जिसे संघ वाले आदर्श और न्यायपूर्ण करार देते हैं, व्यवधान डालने वाले घुसपैठियों के तौर पर देखा जाता है.

इसीलिए अकबर या मुगल शासन के दौरान स्थापत्य संबंधी निर्माणों को दर्ज भी नहीं किया जा सकता है. या तो उनका ध्वंस किए जाने की जरूरत है या उसे हिंदू ढांचा साबित किए जाने की (ताजमल को तेजो महालय के तौर पर) जरूरत है.

लेकिन यह हकीकत है कि भारत में 12 करोड़ मुसलमान और अनगिनत उनकी नापसंद के लोग हैं. उन्हें कहीं भी नहीं भेजा जा सकता है, क्योंकि वे भारतीय हैं और इस जमीन का हिस्सा हैं.

यह चीज दुनिया के उनके नजरिये में खलल डालती है. तो उनके साथ क्या किया जाए, क्योंकि साफ तौर पर उन्हें मुख्यधारा के समाज में समाहित नहीं किया जा सकता है?

व्यक्तियों के खिलाफ हिंसा को आजमा लिया गया है, लेकिन इसके असर की एक सीमा है. इसलिए भाजपा सरकार एक घुमावदार रास्ता लेकर आई.

इसके तहत उन्हें नागरिकता संशोधन कानून सीएए और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के माध्यम से गैर-नागरिक में बदलना था. इसके तहत असम में कई लाख लोग राष्ट्रविहीन कर दिए गए हैं और अगर सीएए विरोधी आंदोलन नहीं हुए होते, तो यह प्रक्रिया दूसरी जगहों पर आगे बढ़ाई जाती.

अनुच्छेद 370 का हटाना मुख्य तौर पर कश्मीरी मुसलमानों को उनकी हैसियत बताने और इस तरह से उनकी पहचान और उनकी धरती को मिटाने का एक तरीका था. किसानों का आंदोलन भी व्यवस्था के गहरे धंसे हुए हिंदुत्ववादी विचार का उल्लंघन करता है.

सरकार और इसके नेता के खिलाफ दलील देना अस्वीकार्य है, जिसे आपके लिए सर्वोत्तम क्या है, इसकी जानकारी है. दूसरी बात, किसान अपनी हद से बाहर जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपना काम करना चाहिए, क्योंकि सबसे बड़ा इनाम अपना कर्तव्य निभाने में है.

अगर खेतों का नियंत्रण व्यापारी वर्ग को सौंपा जा रहा है, तो इसका कारण यह है कि व्यापार करना उनका काम है. इसके अलावा आंदोलनकारी किसानों में बड़ी संख्या सिखों की है- जो वास्तव में परिवार के भीतर के नहीं माने जाते.

हालांकि, आरएसएस का पुरजोर तरीके से मानना है कि सिख हिंदुओं में से हैं. किसानों को धमकाने और उनकी आवाज को चुप कराने के लिए अपनाए गए पूरी तरह से दमनकारी तरीके आधुनिक लग सकते हैं- इंटरनेट को बंद करना, ट्रैफिक को रोकने के कंक्रीट की दीवार बनाना- लेकिन ये वास्तव में एक राजा द्वारा बगावत से निपटने की कल्पना से जन्मे हैं.

अगर यह सब पूरी तरह से प्राचीन युगीन और मध्ययुगीन लग रहा है, तो इसलिए क्योंकि हम अब उस समय में नहीं रहते, भले ही कभी उस समय का वजूद रहा हो.

हम अमर चित्रकथा की दुनिया में नहीं रहते, बल्कि एक गतिशील, 21वीं सदी की वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में रहते हैं, जो दूसरे समाजों से, दूसरी अर्थव्यवस्था और दूसरे नजरियों से जुड़ा हुआ है. आज औरतें काम पर जाती हैं और अपने फैसले खुद करती हैं. इस हकीकत को बदला नहीं जा सकता है.

एक वैश्वीकृत समाज में, हर कोई हर चीज से मतलब रखता है. भारतीय आज़ादी से अमेरिकी चुनावों पर टिप्पणियां करते हैं और इस बात का कोई कारण नहीं बनता है कि अमेरिकी भारतीय मामलों में टिप्पणी क्यों न करें.

हम किसानों के आंदोलन को लेकर वैश्विक नेताओं और रिहाना जैसे युवा आइकॉन के ट्वीट पर क्रोध कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसी तस्वीरें देखते हैं, जो हमारा मुख्यधारा का मीडिया और चैनल नहीं दिखाते हैं. और उनकी राय मायने रखती है.

उनके पास प्रशंसकों की बड़ी संख्या है और उनका असर वास्तविक है- उनके खिलाफ मोर्चा खोलना या गायिका को गालियां देना स्थानीय भक्तों को रास आ सकता है, लेकिन इससे विरोध प्रदर्शन से निपटने के तरीकों के कारण भारत की छवि और प्रतिष्ठा को होने वाला नुकसान किसी भी तरह से कम नहीं होगा.

न ही यह अंतराष्ट्रीय मीडिया और एनजीओ को भारत सरकार द्वारा पत्रकारों को परेशान करने को लेकर बयान जारी करने से ही रोकेगा. इसने सरकार को असंतुलित कर दिया है- आपने आाखिरी बार किसी पश्चिमी सेलेब्रिटी के खिलाफ भारत के विदेश मंत्रालय को बयान जारी करते हुए कब देखा था?

योगी आदित्यनाथ ने शायह रिहाना का नाम भी पहले कभी नहीं सुना होगा और उन्होंने इसकी परवाह भी नहीं की होती. वे तो संविधान की समुचित प्रक्रिया को लेकर भी ज्यादा चिंता नहीं करते हैं. लेकिन आखिरकार वे अपने समय के खांचे में फिट न बैठने वाले व्यक्ति हैं.

और जहां तक केंद्र सरकार का सवाल है, अपने नेताओं को कंक्रीट की दीवार चुनवाकर और कंटीले तार लगाकर भारतीय नागरिकों के खिलाफ खुद को बैरिकेड मे बंद करते देखकर एक बार यह शक होने लगता है कि कहीं कोई युद्ध तो नहीं छिड़ गया है.

यह क्षणिक तौर पर किसानों को भले रोक सकता है, जैसा कि इंटरनेट सेवा बंद करने से होगा, लेकिन उनका मसला दुनिया का मसला बन चुका है.

देशी मिट्टी से निकला तानाशाही शासन खतरनाक और बेलगाम लग सकता है, लेकिन उसके लिए यह एक हारती हुई लड़ाई है. लेकिन हिंदुत्व और इसके कठोर तरीके कुछ समय तक इर्द-गिर्द रहेंगे.

इसके प्रवर्तकों के पास अभी सत्ता की कमान है. बल्कि इसकी संभावना ज्यादा है कि आने वाले समय में, बल्कि जल्दी ही, हमारा सामना ज्यादा निर्दयता से होगा.

मोदी सरकार पहले ही व्यवस्था को औचक झटके देने की अपनी प्रवृत्ति का परिचय दे चुकी है. सब कुछ को अपने हाथों से निकलता हुआ देखकर वे क्या कर सकते हैं, यह नहीं कहा जा सकता है.

उनके पास उनका अंधानुकरण करने के लिए उनके करोड़ों अनुयायी हैं, जो कि उनकी ही तरह आधुनिक दुनिया से कटे हुए हैं और उनमें इस बात को लेकर असंतोष है कि आधुनिक दुनिया उन्हें कैसे बाहर रखती है.

करोड़ों भारतीय इसकी कीमत चुकाएंगे- भारत अंततः चोटिल होगा और उसे नुकसान उठाना पड़ेगा. लेकिन सभी निजामों की तरह, इसका भी अंत होगा और इस निजाम के पीछे की शक्तियों के लिए यह अंत बुरा होगा. उनका घमंड और सत्ता का नशा आखिरकार उन्हें लील जाएगा.

किसानों, हजारों सीएए विरोधी छात्र कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और कॉमेडियंस और अनगिनत दूसरे नागरिकों का लगातार नाफरमानी में खड़ा रहना दिखाता है कि भले हमारे शासकों के पास सत्ता हो, लेकिन उनका राज हर किसी पर नहीं चलता है.

और अगर कोई एक चीज है, जिसे ऐसे तानाशाह पचा नहीं सकते हैं, वह है नियंत्रण खोने का एहसास.

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