आठ सालों में देश में पांच साल की उम्र से पहले ही हुई 1.13 करोड़ बच्चों की मौत

वर्ष 2008 से 15 के बीच हर घंटे औसतन 89 नवजात शिशुओं की मृत्यु होती रही है. 62.40 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु जन्म के 28 दिनों के भीतर हुई.

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वर्ष 2008 से 15 के बीच हर घंटे औसतन 89 नवजात शिशुओं की मृत्यु होती रही है. 62.40 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु जन्म के 28 दिनों के भीतर हुई.

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फोटो: रॉयटर्स

छह महत्वपूर्ण तथ्य सामने हैं…

1. ग्लोबल ब्रेस्ट फीडिंग स्कोरकार्ड के मुताबिक बच्चों को मां का दूध नहीं मिलने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को 9000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है. जब बच्चों को स्तनपान नहीं मिलता है तो लगभग 1 लाख बच्चों की इससे जुड़े कारणों से मौत हो जाती है.

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बोलीविया, मलावी, नेपाल, सोलोमन आइलैंड, बुरुन्डी, कम्बोडिया, जाम्बिया, किरिबाती, इरीट्रिया सरीखे 23 देशों ने छोटे बच्चों में केवल स्तनपान के 60 प्रतिशत के स्तर को पा लिया है, किन्तु इस सूची में भारत शामिल नहीं है.

2. द लांसेट के अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2015 में गर्भावस्था और प्रसव के दौरान 45000 महिलाओं की मृत्यु हुई.

3. जनगणना 2011 के मुताबिक लगभग 16 करोड़ महिलाएं घरेलू और देखभाल की जिम्मेदारी निभाते हुए श्रम करती हैं; लेकिन मौजूदा आर्थिक नीतियों में उनके योगदान की कहीं कोई गणना नहीं होती है. भारत में केवल संगठित क्षेत्र की महिलाओं (लगभग 18 लाख) को ही मातृत्व हक (वेतन के साथ अवकाश) मिलता रहा है, जबकि भारत में हेल्थ मैनेजमेंट इन्फार्मेशन सिस्टम के मुताबिक गर्भवती महिलाओं की वर्ष 2016 में कुल संख्या 2.96 करोड़ थी.

इनके लिए जनवरी 2017 से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत 6000 रुपये की आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाने के लिए मातृत्व लाभ कार्यक्रम को व्यापक रूप से लागू किया गया; परन्तु चार शर्तों के जरिये 70 प्रतिशत महिलाओं को इस कार्यक्रम के लाभों से वंचित भी कर दिया गया.

4. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इन्डियन इन्स्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी (रुड़की) के अध्ययन (2016) के मुताबिक मातृत्व स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय 46.6 प्रतिशत महिलाओं को गरीबी में धकेल देता है.

इससे पता चला कि सबसे गहरा असर आदिवासी महिलाओं पर पड़ता है, जहां 71.5 प्रतिशत महिलाएं मातृत्व स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय के कारण गरीबी में धकेली गईं.

5. जन्म लेने के बाद के पहले 28 दिन जीवन के सबसे संवेदनशील दिन होते हैं. बचपन की यह उम्र मृत्यु की आशंकाओं से भरी होती है. एक महीने से पांच साल की उम्र में बच्चों की मृत्यु का जितना जोखिम होता है, उससे 30 गुना ज्यादा जोखिम इन 28 दिनों में होता है. (जर्नल आॅफ पेरिनेटोलाजी, 2016)

6. जीवन की शुरुआत मृत्यु के जोखिम से होती है–

पांच साल तक की उम्र तक कुल जितनी बाल मौतें होती हैं, उनमें से लगभग 85 प्रतिशत पहले साल में हो जाती हैं.

एक साल तक की उम्र में जितनी मौतें होती हैं, उनमें से 67 प्रतिशत पहले 28 दिनों में होती हैं.

जन्म के बाद जितने नवजात बच्चों की मौतें होती हैं, उनमें से 74 प्रतिशत की मृत्यु पहले सात दिनों में हो जाती हैं.

जन्म के बाद चार हफ्ते यानी 28 दिनों में जितने बच्चों की मौतें होती हैं, उनमें से 37 प्रतिशत मौतें पहले एक दिन यानी 24 घंटों में हो जाती हैं.

कम उम्र में विवाह, गर्भावस्था के दौरान सही भोजन की कमी और भेदभाव, मानसिक-शारीरिक-भावनात्मक अस्थिरता, विश्राम और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिलने, सुरक्षित प्रसव न होने और प्रसव के बाद बच्चे को मां का दूध न मिलने की कड़ियां आपस में मिलकर मातृ-शिशु मृत्यु (खास तौर पर नवजात शिशु मृत्यु) का आधार तैयार करती हैं.

वास्तविकता यह है कि ऐसी स्थिति में 1000 दिनों के सिद्धांत (नौ माह की गर्भावास्था और बच्चे के दो साल की उम्र, जब तक वह स्तनपान कर रहा है) को व्यापक स्तर पर लागू करने की जरूरत है.

अब जरूरी है कि हम इस वास्तविकता को जानने के लिए तैयार रहें, जिससे हमें पता चलता है कि बच्चों के प्रति भी राज्य व्यवस्था की संवेदनाएं अभी सुसुप्त अवस्था में बनी हुई हैं.

भारत में नवजात शिशुओं का बिना जिए मर जाना

वर्ष 2008 से 2015 के बीच भारत और भारतीय राज्यों में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर और वास्तविक मृत्युओं का तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए यह पाया गया कि इन आठ सालों में भारत में 1.13 करोड़ बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाए और उनकी मृत्यु हो गई.

चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (नवजात शिशु मृत्यु यानी जन्म के 28 दिन के भीतर होने वाली मृत्यु) में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए.

पांच साल से कम उम्र के बच्चों की कुल मौतों में से 56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई. इसे हम 5 साल से कम उम्र में होने वाली बाल मौतों में नवजात शिशुओं की मृत्यु का हिस्सा कह सकते हैं.

आठ साल की स्थिति का अध्ययन करते हुए यह पता चलता है कि हर 1000 जीवित जन्म पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में नवजात शिशु मृत्यु दर का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है.

5 साल के बच्चों की मृत्यु में वर्ष 2008 में भारत में 50.9 प्रतिशत बच्चे नवजात शिशु थे, जो वर्ष 2015 में बढ़कर 58.1 प्रतिशत हो गए. बहरहाल इस अवधि में नवजात शिशुओं की मृत्यु की अनुमानित संख्या 9.23 लाख से कम होकर 6.67 लाख पर आ गई है.

वर्ष 2015 की स्थिति में हर घंटे 74 नवजात शिशुओं का भौतिक हृदय काम करना बंद कर दे रहा था, किन्तु समाज और व्यवस्था के हृदय में संवेदना पूरी तरह से सक्रिय होकर काम नहीं कर पा रही थी. वर्ष 2008 से 15 के बीच हर घंटे औसतन 89 नवजात शिशुओं की मृत्यु होती रही है.

भारतीय राज्यों की स्थिति

नवजात शिशु मृत्यु यानी जन्म के 28 दिन के भीतर हुई मृत्यु

वर्ष 2008 से 2015 के बीच मध्य प्रदेश में 6.18 लाख बच्चों की मृत्यु जन्म के पहले 28 दिनों में ही हो गई.

वर्ष 2008 में 93.7 हज़ार बच्चों की मृत्यु हुई थी, जो वर्ष 2015 में घटकर 64.5 हज़ार तक जरूर आई है, किन्तु राज्य में नवजात शिशु स्वास्थ्य और मातृत्व स्वास्थ्य के लिए राज्य की तरफ से बहुत तत्परता दिखाई नहीं देती है.

इस अवधि में उत्तर प्रदेश में 16.84 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई. आठ सालों नवजात शिशु मृत्यु की संख्या 2.52 लाख से घट कर 1.72 लाख तक आई है.

राजस्थान में इन आठ सालों में 5.12 लाख, बिहार में 6.54 लाख, झारखंड में 1.70 लाख, महाराष्ट्र में 2.92 लाख, आन्ध्र प्रदेश में 3.35 लाख, गुजरात में 2.95 लाख नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई.

देश के चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश) में देश की कुल नवजात मौतों की संख्या में से 56 प्रतिशत मौतें दर्ज होती हैं.

शिशु मृत्यु यानी जन्म के एक साल की उम्र तक हुई मृत्यु

वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में भारत में 91 लाख बच्चे अपना पहला जन्म दिन नहीं मना पाए. इस अवधि में शिशु मृत्यु दर 53 से घटकर 37 पर आई है, पर फिर भी वर्ष 2015 के एक साल में ही 9.57 लाख बच्चों की मृत्यु हुई थी.

भारत के चार राज्यों, उत्तर प्रदेश (24.37 लाख), मध्य प्रदेश (8.94 लाख), राजस्थान (7.31 लाख) बिहार (10.3 लाख) में सबसे ज्यादा संकट की स्थिति है.

भारत के 56 प्रतिशत शिशु मृत्यु इन्हीं राज्यों में होती हैं. बहरहाल महाराष्ट्र (3.96 लाख), आंध्र प्रदेश (5.11 लाख), गुजरात (4.13 लाख) और पश्चिम बंगाल (3.68 लाख) की स्थिति भी बहुत दर्दनाक है.

पांच वर्ष तक के बच्चों की मृत्यु

जब भारत के तंत्र का लगभग हर हिस्सा, देश के सभी राजनीतिक दल सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोत्तरी की बात-बहस और वायदा कर रहे थे, तब उनकी प्राथमिकताओं में बच्चों के जीवन उनके संरक्षण का वायदा अंकुरित भी नहीं हो पा रहा था.

वस्तुतः सभी राजनीतिक विचार और राजनीतिक दल यह विश्वास करते हैं कि जब आर्थिक विकास होगा, तो अपने आप बच्चों की स्थिति में बदलाव आने लगेगा; वास्तव में यह एक अंध विश्वास है.

बच्चों की स्थिति को बदलने के लिए राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्रतिबद्धता एक अनिवार्यता है, जो भारत में दिखाई नहीं देती है. जब से वैश्विक स्तर पर सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की चर्चा शुरू हुई है, तबसे भारत में बच्चों के लिए कुछ स्वास्थ्य योजनाएं जरूर बनने लगी हैं, किन्तु उनका दायरा “जागरूकता” तक ही सीमित रहा है.

भारत में वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में पांच साल से कम उम्र के 1.13 करोड़ बच्चे दुनिया से कूच कर गए. हमने उनका स्वागत नहीं किया, हमने उन्हें संभाला नहीं और उनका जीवन मुरझा गया.

इनमें से 31.11 लाख बच्चों की मृत्यु उत्तर प्रदेश में, 11.59 लाख बच्चों की मृत्यु मध्य प्रदेश में, 8.9 लाख बच्चों की मृत्यु राजस्थान में, 13.40 लाख बच्चों की मृत्यु बिहार में हुई.

छोटे बच्चों की मृत्यु के बड़े कारण

व्यवस्थित वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अध्ययनों से नवजात शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा होने के चार महत्वपूर्ण कारण पता चले- समय से पहले जन्म लेने के कारण होने वाली जटिलताएं (43.7 प्रतिशत), विलंबित और जटिल प्रसव के कारण (19.2 प्रतिशत), निमोनिया, सेप्सिस और अतिसार यानी संक्रमण के कारण (20.8 प्रतिशत), जन्मजात असामान्यताओं के कारण (8.1 प्रतिशत).

भारत के महापंजीयक की नमूना पंजीयन प्रणाली (एसआरएस) के मुताबिक भारत में शिशुओं की मौत का कारण समय पूर्व जन्म लेना और जन्म के समय बच्चों का वज़न कम होना (35.9 प्रतिशत), निमोनिया (16.9 प्रतिशत), जन्म एस्फिक्सिया एवं जन्म आघात (9.9 प्रतिशत), अन्य गैर संचारी बीमारियां (7.9 प्रतिशत), डायरिया रोग (6.7 प्रतिशत), जन्मजाति विसंगतियां (4.6 प्रतिशत) और संक्रमण (4.2 प्रतिशत) हैं.

बच्चों की सुरक्षा और उनके जीवन के लिए वास्तव में सबसे जरूरी है संवेदनशीलता. जिन कारणों से बच्चों की असामयिक मृत्यु हो रही है, वे कारण लाइलाज या बहुत खर्चीले उपाय वाले नहीं हैं.

सवाल यह है कि क्या हम महिलाओं के साथ समानता के व्यवहार की प्रवृत्ति को अपनाना चाहते हैं? क्या हम नवजात शिशुओं के जीवन की सुरक्षा के लिए बुनियादी लोक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत बनाना चाहते हैं?

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)