हिंसा को याद करने का तरीका क्या है

सामूहिक हिंसा एक तरह की नहीं होती. दो समूह लड़ पड़ें, तो वह सामूहिक हिंसा है. एक समूह को निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा भी सामूहिक हिंसा ही है. ऐसी हिंसा को भारत में प्रायः दंगा कह देते हैं. दंगा शब्द में कुछ स्वतः स्फूर्तता का भाव आता है, लेकिन यह सच नहीं है.

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2020 दिल्ली हिंसा के दौरान जाफराबाद में जलता एक वाहन. (फाइल फोटो: पीटीआई)

सामूहिक हिंसा एक तरह की नहीं होती. दो समूह लड़ पड़ें, तो वह सामूहिक हिंसा है. एक समूह को निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा भी सामूहिक हिंसा ही है. ऐसी हिंसा को भारत में प्रायः दंगा कह देते हैं. दंगा शब्द में कुछ स्वतः स्फूर्तता का भाव आता है, लेकिन यह सच नहीं है.

दिल्ली हिंसा के दौरान जाफराबाद में जलता एक वाहन. (फाइल फोटो: पीटीआई)
दिल्ली हिंसा के दौरान जाफराबाद में जलता एक वाहन. (फाइल फोटो: पीटीआई)

हिंसा को याद करने का तरीका क्या है? इस सवाल के पहले पूछना मुनासिब होगा कि हम जिस हिंसा की बात कर रहे हैं, वह कोई एक घटना है या एक प्रक्रिया है. एक सिलसिला.

घटना जो किसी एक क्षण, एक समयावधि तक सीमित है. प्रक्रिया जिसका अंत हमें नहीं मालूम. वह घटना जिसे हिंसा कहा जाता है, वह सिर्फ इस प्रक्रिया के भीतर एक बिंदु है.

एक हिंसा वह है जिसमें खून बहता दिखता है, आग दिखती है. गोली, पत्थर या आग से जलाकर मार डाले गए लोग, लाशें, ज़ख़्मी जिस्म, जले हुए मकान, गाड़ियां. बिखरा कांच. राख, धुंए की गंध और खून के धब्बे. बुलेट, आंसू गैस, पेट्रोल बम के खोखे. 2002 और उसके बाद से फूटे हुए गैस सिलेंडर भी. यह सब कुछ सामूहिक हिंसा के बच गए सबूत हुआ करते हैं.

पिछले साल दिल्ली के उत्तरी पूर्वी इलाके में लाल बाग के एक घर में मोटर साइकिल का एक चमचमाता हुआ साइलेंसर भी दिखा जो हमलावर छोड़ गए थे. उससे चोट गहरी लगती लेकिन उसे ढोकर लाने के लिए भी ताकत चाहिए थी.

हर हिंसा की वारदात में हिंसा के साधनों में कुछ नए प्रयोग देखने को मिलते हैं. साइलेंसर के अलावा फरवरी 2020 में उत्तरी पूर्वी दिल्ली में पहली बार एक बड़ी गुलेल का इस्तेमाल देखा, जो बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़ों से वार करने के लिए छत पर लगाई गई थी.

हत्या के लिए आधुनिकतम हथियारों के साथ आदिम अस्त्र शस्त्र भी- पत्थर, चाकू, फरसा,तलवार. यह दिलचस्प है कि इस तरह की सामूहिक हिंसा में प्रायः पूर्व आधुनिक हथियार इस्तेमाल किए जाते हैं.

एक हिंसा में अनेक हिंसाएं शामिल रहती हैं. सिर्फ मारना नहीं. मारने के साथ अपमानित करना. धार्मिक पहचान को उजागर करके गाली. स्त्रियों के साथ बलात्कार या उसकी धमकी. धार्मिक चिह्नों, ग्रंथों को अपवित्र करना.

सिर्फ इंसान निशाना न हों बल्कि वे प्रतीक या स्थान जिनका उनके लिए भावनात्मक महत्त्व है. उनकी इबादतगाह, पाक किताब. तब हिंसा का स्वरूप बदल जाता है. उसका इरादा भी साफ होता है. हिंसा का कारण क्या रहा होगा, यह स्पष्ट हो जाता है.

इनके अलावा लोग होते हैं. इंसान! लोग जो हिंसा के उत्तरजीवी हैं. शिकार और गवाह. वे जो मारे गए, उनके अलावा वे जो बचे रह गए. मारे गए लोगों के संबंधी, स्वजन और परिजन.

उनका बचे रह जाना संयोग है लेकिन यह मारे जाने के तथ्य को भी संयोग में बदल देता है. सारे लोग मारे नहीं गए, इससे हिंसा का तथ्य संदिग्ध हो जाता है. हिंसा का इरादा सबको ख़त्म करना न था. उसकी सामूहिकता पर सवाल खड़ा हो जाता है.

प्रत्येक हिंसा में, सामूहिक हिंसा में एक और तरह के लोग होते हैं जो हिंसा के बीच में तो होते हैं लेकिन न तो वे उसके शिकार होते हैं और न उसके गवाह.

वे हिंसा के दर्शक होते हैं. उससे प्रायः अप्रभावित. वे खुद को तटस्थ मानते हैं. वे ऐसा मानते हैं कि वे अप्रभावित पक्ष हैं इसलिए हिंसा के विषय में उनका विचार, या उस हिंसा की उनकी समझ सबसे प्रामाणिक मानी जानी चाहिए.

सामूहिक हिंसा भी एक तरह की नहीं होती. दो समूह लड़ पड़ें, तो वह सामूहिक हिंसा है. एक समूह को निशाना बनाकर की जाने वाली हिंसा भी सामूहिक हिंसा ही है.

लेकिन जैसे ही सामूहिक हिंसा की चर्चा होती है, दो पक्ष बन जाते हैं. भले ही एक पक्ष सिर्फ शिकार हो उस हिंसा का, वह भी पक्ष में बदल जाता है. हिंसा करने वाला और हिंसा का शिकार, दोनों ही तुलनीय पक्षों में बदल जाते हैं.

उस हिंसा की दो प्रतियोगी व्याख्याएं भी जायज़ मानी जाती हैं. जो शिकार हुआ है, सिर्फ उसी की बात कैसे सुनी जाए? जिसने हिंसा की, वह आखिर ऐसा करने को मजबूर क्यों हुआ? क्या उसकी कोई दलील ही नहीं?

यह सब कुछ मैं 2020 की फरवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के सिलसिले में लिख रहा हूं. हालांकि इसे आम तौर पर ऐसी हिंसा की दूसरी घटनाओं के संदर्भ में भी पढ़ा जा सकता है.

इस तरह की सामूहिक हिंसा को भारत में प्रायः आलस के चलते दंगा कह दिया जाता है. दंगा शब्द में कुछ कुछ स्वतः स्फूर्तता का भाव व्यक्त होता है. लेकिन 1947 के बाद से हुई ऐसी तमाम हिंसाओं का अध्ययन करने वालों ने बतलाया है ये स्वतः स्फूर्त नहीं होतीं.

इनकी योजना बनाई जाती है, इनके लिए हथियार इकठ्ठा किए जाते हैं. ऐसे अवसर की या तो प्रतीक्षा की जाती है या वह पैदा किया जाता है जिसके बाद हिंसा को (जो पूर्व नियोजित है) उसकी स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया ठहराया जा सके.

जैसे दिल्ली की हिंसा को सीएए का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों द्वारा सड़क जाम करने की प्रतिक्रिया कहा गया. यह बात भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने ही नहीं, क़ानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस ने भी कही.

पूछा गया, ‘अगर कोई आपका दरवाजा घेरकर बैठ जाए तो आप कितने दिन बर्दाश्त करेंगे?’ ‘आपको क्या गुस्सा नहीं आएगा?’ ‘क्या वह गुस्सा फूटेगा नहीं?’ यह तर्क कानून की रक्षा करने वाली संस्था दे, यह हम सबके लिए फिक्र की बात होनी चाहिए.

भारत में कई मौकों पर सड़कें जाम की गई हैं लेकिन जो जाम करने वालों में नहीं है, वे सड़क जाम से परेशानी के बावजूद जानते हैं कि यह सरकार के खिलाफ है, उनके खिलाफ नहीं.

2020 के पहले किसी भी सड़क जाम करने वाली जनता पर जनता के दूसरे हिस्से ने हमला नहीं किया था. सरकार की किसी नीति का या उसके किसी फैसले का विरोध सड़क पर आकर करने का मतलब होगा हिंसा झेलने के लिए तैयार रहना, यह सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2019 में जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की हिंसा का तर्क पेश करते समय कह दिया था, ‘अगर आप सड़क पर हैं तो हमसे कोई उम्मीद न करें!’

सामूहिक हिंसा को, जो एक समुदाय को निशाना बनाती है हमेशा प्रतिक्रिया कहा जाता है. वह पहली हिंसा के उकसावे के बिना नहीं हो सकती थी. इसलिए जो निशाना बने हैं उन पर दोहरी तोहमत है: मूल हिंसा की जो बेचारे दूसरे समुदाय के लिए भड़कावा थी और दूसरे, उस समुदाय को हिंसक बनाने की जो स्वभावतः अहिंसक है.

जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे सीएए विरोधी प्रदर्शन. (फाइल फोटो: पीटीआई)
जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे सीएए विरोधी प्रदर्शन. (फाइल फोटो: पीटीआई)

लेकिन इस जगह हम थोड़ी देर ठहरकर विचार करें. दिल्ली में दिसंबर 2019 से कोई 20 स्थलों पर सीएए विरोधियों के धरने चल रहे थे. वे प्रायः मुसलमान बहुल इलाकों में थे.

मुख्य सड़क के किनारे ही ज़्यादातर मुसलमान औरतें दो महीने से दिन रात धरना दिए बैठी थीं. उनके साथ बच्चे भी थे. पहली बार किसी विरोध प्रदर्शन में एक घरेलू माहौल और गर्माहट थी.

दिल्ली की कड़ाके की ठंड में रात-रात बैठी औरतें किसी के मन में हिंसा कैसे उपजा सकती थीं? इस दृश्य से कौतूहल तो हो सकता था लेकिन घृणा?  घृणा लेकिन इनके खिलाफ प्रचारित की जा रही थी.

प्रधानमंत्री अपने समर्थकों को सीएए विरोधियों को उनके कपड़ों के रंग से पहचानने के लिए कह रहे थे .गृह मंत्री ईवीएम मशीन का बटन इतनी जोर से दबाने को कह रहे थे कि शाहीन बाग में बैठी औरतों को करंट लगे.

केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री ने सीएए विरोधियों को देश के गद्दार ठहराकर गोली मारने का नारा दिया. भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली के सांसद ने कहा कि इन औरतों के बीच बलात्कारी, आतंकवादी छिपकर बैठे हैं.

इसके साथ कानाफूसी के जरिए प्रचार कि ये जो मुसलमान बैठे हैं वे दरअसल पाकिस्तान के हिंदुओ को भारतीय नागरिकता दिए जाने का विरोध कर रहे हैं.

यह दुष्प्रचार, घृणा और हिंसा का प्रचार दो महीने तक टीवी, अखबार, इंटरनेट,और सोशल मीडिया के द्वारा जमकर चलाया गया.इसके साथ पहले से मुसलमानों के खिलाफ मौजूद पूर्वाग्रह या दुराव के आधार को भी जोड़ लें.

सक्रिय हिंसा की ज़मीन तैयार कर ली गई थी. और 22 फरवरी के सड़क जाम को हिंसा का बहाना बनाया गया. आधी सड़क जाम होने पर आधे दिन में ही इतना क्रोध कि प्रदर्शनकारियों पर हमला कर दिया जाए?

अगर सड़क जाम करने वालों पर क्रोध था तो शिव विहार, लाल बाग, करावल नगर, खजूरी ख़ास आदि में अंदर घर, दुकानें और मस्जिदें क्यों जलाई और बर्बाद की गईं? क्यों सड़क किनारे दो महीने से चल रहे शांतिपूर्ण धरनों पर हमला किया गया?

ये प्रश्न स्वाभाविक तौर पर किए जाने चाहिए थे. अब तक नहीं किए गए.

एक साल बाद अब सवाल दूसरे हैं. जिन पर हिंसा की गई उनकी ज़िंदगी की चूल हिल गई है. जले हुए घर में कैसे लौटें? उन्हें वापस खड़ा कैसे करें?

खासकर तब जब आपके पड़ोसियों से ही सहानुभूति न हो? जब आपके जले और ध्वस्त मकान और पड़ोसी की दरार पड़ी दीवार के मुआवजे में प्रतियोगिता हो रही हो?

हिंसा के बाद ईर्ष्या का आगमन होता है. जो भी आ रहा है, वह इन्हीं से क्यों बात कर रहा है? क्यों राहत इन्हीं को मिल रही है? ठीक है कि इनका घर जल गया लेकिन इनकी वजह से हमारा धंधा भी तो चौपट है. क्यों कंबल, बिस्तर इन्हीं को, क्यों राशन इन्हीं को?

हिंसा के फौरन बाद की याद और थोड़ा वक्त गुजर जाने के बाद की याद में फर्क होता है. लेकिन हिंसा के ठीक बीच उसका ठीक-ठीक रिकॉर्ड लेना आसान नहीं.

लाल बाग का एक संवाद याद है. हम हिंसा के साथ रोज़ बाद उस इलाके में थे. एक युवक हमें देखकर करीब आया. मुसलमान. सड़क के एक तरफ उसके मकान पर भी भीड़ ने हमला किया था.हिंदू पड़ोसी ने बचाया. पड़ोसी भी साथ था.

इस पर दोनों सहमत थे कि हमलावर बाहर से आए थे. लंबे तगड़े थे. हेलमेट लगाए थे. हाथ में लाठियां और नारे. मुसलमान युवक ने ही बताया कि तकरीबन 3 घंटे तक पत्थरबाजी हुई.

सड़क के दूसरे छोर से मुसलमानों ने इस हमलावर भीड़ को रोकने के लिए मोर्चा संभाला था. दूसरे छोर से प्रतिरोध मिलने पर यह भीड़ बगल की सड़क पर मुड़ गई और बगल की सड़क के इक्का-दुक्का मुसलमान घरों , गोदामों , दुकानों को उसने निशाना बनाया.

वह युवक हमें ये घर, दुकान दिखलाता चल रहा था. इन्हीं में से एक घर में मोटरसाइकिल का साइलेंसर दिखा. घरवालों ने इसे संभालकर रखा था.

दिल्ली दंगों के दौरान खजुरी खास एक्सटेंशन में जले घर में एक दंपति. (फाइल फोटो: पीटीआई)
दिल्ली दंगों के दौरान खजूरी खास एक्सटेंशन में जले घर में एक दंपति. (फाइल फोटो: पीटीआई)

उसके हिंदू पड़ोसी भी साथ-साथ थे. हम देख रहे थे कि उनके चेहरे पर तनाव बढ़ रहा था. आखिरकार उन्होंने कहा, ‘इन लोगों ने पत्थर न चलाया होता तो यह न होता.’

मैंने पूछा कि वे तो बाहरी हमलावरों को रोक रहे थे न? क्या वे अपनी रक्षा न करते? उन साहब ने कहा कि वे तो बस, नारा लगा रहे थे!

मैंने फिर पूछा कि लाठी लेकर, हेलमेट पहन कर आप मेरी गली में नारा लगाने ही सही, क्यों आ रहे हैं? इसका उत्तर तो उनके पास न था लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे कि हिंसा मुसलमानों के कारण हुई.

जब वे अलग हुए तो उसी युवक ने कहा कि वे सज्जन खुद हमलावरों के साथ हो गए थे. कुछ इसी तरह का अनुभव खजूरी की एक गली में मुसलमानों के जले घरों के पास बैठे हिंदू पड़ोसियों से बात करके हुआ.

उनका कहना था कि अगर मुसलमान लाठी न उठाते, यह न होता. अपने जले घर के सामने एक मुसलमान ने कहा कि अगर हम सामने हमलावर भीड़ देखें तो क्या अपनी हिफाजत में लाठी भी न उठाएं.

गली एक. मुसलमानों के घर जले हुए, हिंदुओं के सुरक्षित. लेकिन हिंदू पड़ोसियों के स्वर में कड़वाहट साफ थी. पड़ोसियों के कारण उनकी तरह मीडिया और पूरी दुनिया का अवांछित ध्यान था. उनके चलते वे बदनाम हो रहे थे.

साल गुजरने के बीच सुना शिव विहार में और दूसरे इलाकों में मुसलमान गिरी हुई कीमत पर अपने घर बेचकर निकल रहे हैं. पड़ोसी उन्हें रोकने के लिए कुछ कर रहे हों, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है.

वे ही पड़ोसी जो हिंसा के फौरन बाद अपने मुसलमान पड़ोसियों से खफा थे कि क्यों वे गली छोड़कर चले गए आज उन्हें नहीं रोक रहे हैं.
जब इन मुसलमानों से गली खाली हो जाएगी तो बचे रह गए हिंदुओं के पास पड़ोस की कौन सी याद रह जाएगी?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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