शैक्षणिक संसाधनों में ग़ैर बराबरी: शिक्षा या शिक्षा का भ्रम

शिक्षा में साधनों की असमानता का एक पक्ष यह भी है कि जिन अकादमिक या बौद्धिक चिंताओं पर हम महानगरीय शिक्षा संस्थानों में बहस होते देखते हैं, वे राज्यों के शिक्षा संस्थानों की नहीं हैं. राज्यों के कॉलेजों के लिए अकादमिक स्वतंत्रता का प्रश्न ही बेमानी है क्योंकि अकादमिक शब्द ही उनके लिए अजनबी है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

शिक्षा में साधनों की असमानता का एक पक्ष यह भी है कि जिन अकादमिक या बौद्धिक चिंताओं पर हम महानगरीय शिक्षा संस्थानों में बहस होते देखते हैं, वे राज्यों के शिक्षा संस्थानों की नहीं हैं. राज्यों के कॉलेजों के लिए अकादमिक स्वतंत्रता का प्रश्न ही बेमानी है क्योंकि अकादमिक शब्द ही उनके लिए अजनबी है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

भौतिक शास्त्र विभाग के अध्यापक और हमारे सहकर्मी शोभित महाजन ने पिछले अकादमिक सत्र की अपनी कक्षाओं के तजुर्बे के बारे में ट्रिब्यून अखबार में एक लेख लिखा है. उसे पढ़कर कोई 35 साल पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) देखने के बाद अपने पिता की बात याद आ गई. वे बिहार के कस्बे सीवान में डीएवी कॉलेज में वनस्पति शास्त्र के अध्यापक थे. उसके बारे में आगे.

कोरोना वायरस संक्रमण के कारण पिछले दो सत्रों में ऑनलाइन कक्षा ही हुई है. सत्रांत पर प्रोफेसर महाजन ने जानना चाहा कि छात्रों का अनुभव कैसा रहा. एक छात्र की प्रतिक्रिया कुछ अधिक ही उत्साहपूर्ण थी.

उन्होंने पूछा कि क्या सबसे अच्छा लगा. उसने कहा कि उसे प्रयोगशाला का अनुभव सबसे अधिक उत्तेजक रहा. अध्यापक को ताज्जुब हुआ. ऑनलाइन कक्षा ने खुद प्रयोग करने का मौक़ा कहां था?

छात्र को उसकी परवाह न थी. उसने जीवन में पहली बार इंटरनेट पर ही सही, प्रयोगशाला देखी थी. यह सुनकर प्रोफेसर महाजन को झटका लगा.

उनके उस छात्र ने भौतिक शास्त्र जैसे विषय की स्नातक स्तर की पढ़ाई बिना प्रयोगशाला देखे कर ली थी और उसे स्नातक की डिग्री भी मिल गई थी.

उन्हें एहसास हुआ कि इस देश में शिक्षा के अनुभवों के मामले में दिल्ली या महानगरों के शिक्षा संस्थानों और राज्यों के शिक्षा संस्थानों के बीच कितनी बड़ी खाई है.

पढ़कर मुझे अरसा पहले, कोई तीन दशक से भी ज्यादा पुरानी अपने पिता से हुई बातचीत याद आ गई. वे बिहार के कस्बे या शहर सीवान के सबसे अच्छे कॉलेज के अध्यापक थे.

डीएवी कॉलेज शहर का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित कॉलेज था. अध्यापकों की लगन में कमी की शिकायत नहीं की जा सकती थी. मेरे पिता 1985 के आसपास दिल्ली आए और अपनी बड़ी बहन के पोते सोनाचंद से मिलने जेएनयू गए.

सोनाचंद वहां जीवन विज्ञान का छात्र था. वह उसी विषय के कई दशकों से अध्यापक रहे अपने दादा को विभाग घुमाने ले गया. उसी क्रम में प्रयोगशाला जाना भी हुआ.

प्रयोगशाला देखकर पिता ने जो कहा था, वह अब तक याद है. कई उपकरण उन्होंने पहली बार देखे थे. उनसे पहले चित्र के जरिये ही परिचय था.

वे भी एम.एससी के छात्रों को पढ़ते थे. उन्होंने सोचा कि बिना इन उपकरणों के और उन प्रयोगों के जो सोनाचंद रोज़ कर रहा था, उसके समकालीन बिहार के छात्र भी स्नातकोत्तर उपाधि हासिल कर लेंगे।

इसमें उनका कोई कसूर न था कि उनके कॉलेज में इनमें से कुछ भी न था. बल्कि उस स्तर की किताबें भी पुस्तकालय में नहीं थीं. एक एम.एससी. जेएनयू का और एक सीवान डीएवी कॉलेज का. दोनों की गुणवत्ता में कितना अंतर था!

जो बात लगभग 40 साल पहले एक मुफ्फसिल कॉलेज का अध्यापक महसूस कर रहा था, वही आज महानगर का एक अध्यापक लिख रहा है.

40 साल किसी समाज के जीवन में कोई छोटी अवधि नहीं है. इस बीच कितने छात्र इस असमान अनुभव से गुजर चुके हैं.

कुछ जो प्रोफेसर महाजन के उस छात्र की तरह नसीबवाले हैं कि बाद के दो साल वे यह जान पाएंगे कि उन्हें वह क्या नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे. लेकिन सीवान जैसे शहरों के ज़्यादातर छात्रों का यह सौभाग्य नहीं.

शिक्षा के संसाधनों में यह गैर बराबरी नई बात नहीं है लेकिन नीति निर्माता शायद ही इसके बारे में कभी विचार करते हों. मुझे दस साल पहले की उच्च शिक्षा के नवीकरण के लिए गठित यशपाल समिति की बहसें याद आती हैं.

हमने उस वक्त के आंकड़ों से अंदाज किया कि अगर केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक छात्र पर 3 रुपये खर्च होता है तो राज्यों के उच्च शिक्षा संस्थानों के एक छात्र पर 1 रुपये से भी कम खर्च होता है.

जब हमने अपनी सिफारिशों में इसे शामिल करना चाहा कि उच्च शिक्षा को राष्ट्रीय जिम्मेदारी माना जाए, तो शिक्षा विभाग के अफसरों ने कड़ा विरोध किया. उनका कहना था कि इसका सीधा मतलब होगा खर्च की जिम्मेदारी केंद्र के माथे आ जाना.

राज्यों के बजट में शिक्षा का स्थान सबसे पीछे आता है. मेरे पिता बिहार की शिक्षा में उथल-पुथल के साक्षी रहे हैं. एक समय था जब बिहार में जिला केंद्रों को छोड़कर डिग्री कॉलेज कहीं न थे.

सिर्फ सीवान और मधुबनी इसके अपवाद थे. लेकिन बाद में शिक्षा के प्रसार के जनतांत्रिक नारे के साथ गांव-गांव में कॉलेज खोलने के नाम पर खूब कॉलेज खोले गए. लेकिन उनमें पुस्तकालय और प्रयोगशाला के लिए संसाधन न थे.

आगे इस जनतंत्रीकरण के विस्तार के नाम पर डीएवी कॉलेज जैसे संस्थानों को स्नातकोत्तर स्तर तक तरक्की दे दी गई. सरकार ने साफ कर दिया कि यह बिना एक भी अतिरिक्त अध्यापक के पद के और प्रयोगशाला के लिए अतिरिक्त अनुदान के किया जाएगा.

जाहिर था कि यह शिक्षा नहीं, शिक्षा का भ्रम था जिसमें जीने के लिए छात्र और अध्यापक बाध्य थे. कभी यह चर्चा का विषय भी नहीं बना. राजनीतिक प्रश्न तो नहीं ही.

इसे लेकर कोई शिक्षक या छात्र आंदोलन भी नहीं हुआ. दशकों तक अध्यापक,पुस्तक और प्रयोगशालाविहीनता के अभ्यास ने छात्रों को कॉलेज से विरक्त कर दिया तो क्या आश्चर्य!

मैंने जब पटना के एक कॉलेज में अध्यापन आरंभ किया तो छात्रों के दर्शन कभी-कभार ही होते थे. कॉलेज के अध्यापकों का प्रमुख काम तरह तरह की परीक्षाओं में निरीक्षण का हुआ करता था.

तकरीबन डेढ़ दशक तक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की बहाली ही नहीं हुई और फिर लंबे वक्त तक नियुक्ति रुकी रही. जब छात्र था तब पटना कॉलेज और साइंस कॉलेज या बीएन कॉलेज में गहमागहमी रहा करती थी. धीरे-धीरे वे शिक्षकों से खाली होने लगे.

हाल में पटना विश्वविद्यालय जाने पर पटना कॉलेज या दरभंगा हाउस को देखकर आंसू आ गए. उनकी हालत वह थी जो किसी छोटे कस्बे के साधनहीन कॉलेज की हुआ करती थी.

3 साल पहले किसी कार्यक्रम के सिलसिले में बेतिया जाना हुआ. कार्यक्रम वहां के सबसे पुराने और मशहूर कॉलेज में था. विशाल प्रांगण में प्रवेश करते ही जगह- जगह आग जलती दिखलाई पड़ी.

पूछने पर मालूम हुआ कि ये इम्तिहानमें इस्तेमाल की गई पुर्जियां थीं, जिनके ढेर जलाकर नष्ट किए जा रहे थे. कमरे बंद थे और उन पर गर्द की तहें जमी हुई थीं.

पता चला कि कई विभागों में शिक्षक ही नहीं थे. छात्रों की संख्या नौ हजार के आसपास थी, लेकिन औसत उपस्थिति इसके 10% भी नहीं थी. छात्रों की उपस्थिति और शिक्षकों की संख्या में क्या कोई संबंध न था?

मेरी एक छात्रा ने बतलाया कि उसने स्नातक स्तर पर कभी कक्षा देखी ही नहीं थी. दिल्ली विश्वविद्यालय आने पर एक बिल्कुल अलग संस्कृति के संपर्क में आने पर पहले कुछ वक्त तक उसे सहज होने में समय लग गया.

पूरी दुनिया में नीतीश कुमार के सुशासन का डंका बजा और उसके शोर में बिहार की शिक्षा के छिन्न-भिन्न हो जाने की खबर डूब गई.

कुलपतियों, प्राचार्यों के चयन में भ्रष्टाचार इसके पहले बिहार में न था. लेकिन उच्च शिक्षा के पतन का एक रिश्ता प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के नष्ट हो जाने से है. जिनकी औकात थी, वे अपने बच्चों को स्कूल के लिए भी बिहार से बाहर भेजने लगे.

जो अनुभव बिहार का है उससे बहुत अलग उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश या राजस्थान के छात्रों का नहीं. प्रोफेसर शोभित महाजन शिक्षा में जिस असमानता पर अफ़सोस जता रहे हैं, वह अखिल भारतीय वास्तविकता है.

लेकिन हमारी शिक्षा की बहस का संदर्भ केंद्रीय विश्वविद्यालय और कुछ विशिष्ट साधन संपन्न संस्थान रहे हैं. अब पिछले छह सालों में इन संस्थानों का भी मुफस्सलिकरण कर दिया गया है. इस पर बात कभी और.

शिक्षा में साधनों की असमानता की भरपाई आसान नहीं है. लेकिन इस असमानता का दूसरा पक्ष यह है कि जिन अकादमिक या बौद्धिक चिंताओं पर हम महानगरीय शिक्षा संस्थानों में बहस होते देखते हैं, वे राज्यों के शिक्षा संस्थानों की नहीं हैं.

अकादमिक स्वतंत्रता का प्रश्न इन राज्यों के कॉलेजों के लिए बेमानी है क्योंकि अकादमिक शब्द इनके लिए अजनबी है. ये प्रायः कोचिंग संस्थानों के अनुषंग बनकर रह गए हैं.

यह जो धीमा विध्वंस राज्यों में हुआ है उससे बेपरवाह केंद्रीय संस्थान अनंतकाल तक श्रेष्ठता के द्वीप बन कर नहीं रह सकते थे. आज वे खुद ध्वस्त किए जा रहे हैं.

समाज उन्हें बचा सके, इसके लिए शिक्षा की जो चेतना उसमें होनी चाहिए वह राज्यों में पहले ही नष्ट हो चुकी है. इसलिए हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए कि क्यों जेएनयू पर हमले से उनमें कोई बेचैनी नहीं है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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