‘विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस गांव के पानी को दूषित बताती थी, पर सत्ता में आते ही मुकर गई’

विशेष रिपोर्ट: छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले के सुपेबेड़ा गांव के लोगों के अनुसार बीते डेढ़ दशक में भूजल प्रदूषण के कारण सवा सौ से अधिक लोग गुर्दे की बीमारी के चलते जान गंवा चुके हैं. ग्रामीणों के मुताबिक़ कांग्रेस ने सरकार बनने पर शुद्ध पानी, मुआवज़े और इलाज का वादा किया था पर दो साल बीत जाने के बाद भी ऐसा नहीं हुआ.

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(फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

विशेष रिपोर्ट: छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले के सुपेबेड़ा गांव के लोगों के अनुसार बीते डेढ़ दशक में भूजल प्रदूषण के कारण सवा सौ से अधिक लोग गुर्दे की बीमारी के चलते जान गंवा चुके हैं. ग्रामीणों के मुताबिक़ कांग्रेस ने सरकार बनने पर तीन महीने में शुद्ध पानी, मुआवज़े और इलाज का वादा किया था, पर दो साल बीत जाने के बाद भी ऐसा नहीं हुआ.

(फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)
(फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

‘सुपेबेड़ा सहित एक दर्जन गांवों में खराब पेयजल के कारण सैकड़ों लोग किडनी रोग से ग्रसित हैं. अकेले सुपेबेड़ा गांव में ही 117 लोगों की मौत हो चुकी है. क्षेत्रीय जल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक पाई गई है. जिसके कारण लगातार किडनी-लीवर संबंधी बीमारियों से लोगों की मौत हो रही है. सरकार शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं करा रही है. यह एलेक्जेंडराइट-हीरा खदान क्षेत्र है. इसलिए ऐसे षड्यंत्र की आशंका है कि सरकार गांव खाली कराना चाहती है. इसे शासकीय आपदा घोषित करके वहां अस्पताल की व्यवस्था की जाए. लोगों का निशुल्क इलाज कराया जाए.’

ये शब्द छत्तीसगढ़ के वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तब कहे थे जब राज्य में भाजपा की सरकार थी. 2018 के विधानसभा चुनावों के ठीक चार महीने पहले वे बतौर कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गरियाबंद जिले के देवभोग ब्लॉक स्थित सुपेबेड़ा गांव पहुंचे थे.

यह वह गांव है जिसे किडनी रोगियों का गांव कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. राजधानी रायपुर से 230 किलोमीटर दूर स्थित करीब 1,300 लोगों की आबादी वाले इस गांव में साल 2005 से मौत का तांडव मचा हुआ है. ऐसा कोई घर नहीं है जहां किडनी मरीज न मिलें. बच्चे हों या बुजुर्ग, सब किडनी रोगी हैं.

ग्रामीणों के दावे अनुसार, करीब डेढ़ दशक में इस छोटे से गांव के 130 लोग किडनी रोगों के चलते दम तोड़ चुके हैं. इसके पीछे जो कारण बताया जाता है वो यह है कि सुपेबेड़ा गांव हीरा एवं एलेक्जेंडराइट (एक प्रकार का रत्न) खदान क्षेत्र में आता है.

1986 में एक सर्वे रिपोर्ट में यहां एक हीरा खदान होने की आशंका व्यक्त की गई थी. नब्बे के दशक में तत्कालीन सरकार ने एक मल्टीनेशनल कंपनी को उक्त रिपोर्ट की सच्चाई पता लगाने का काम सौंपा. जिसकी जांच में भी यहां हीरा खदान होने की पुष्टि हुई.

यह पता लगते ही वहां अवैध खनन शुरू हो गया. जो दशक भर तक चला. जब यह क्षेत्र मध्य प्रदेश में आता था, तब भी ये सब चला और अजीत जोगी की सरकार बनने के बाद भी चलता रहा.

2004 में सरकार ने पूरे खनन क्षेत्र को टेकओवर कर लिया और खदान के मुहाने को कंक्रीट व मुर्रम से पाट दिया. ग्रामीणों का मानना है कि तब से ही यहां अकाल मौतों का सिलसिला शुरू हुआ था. किडनी फेलियर की शिकायतें आने लगीं और धीरे-धीरे मौतों का आंकड़ा बढ़ता गया.

ग्रामीणों को शंका है कि जब मल्टीनेशनल कंपनी ने यहां अपने कदम रखे थे, उस दौरान खदान क्षेत्र में धमाके किए गए थे. तभी कोई रसायन छोड़ा गया जो भूजल में चला गया और अब धीमे ज़हर की तरह लोगों पर असर कर रहा है.

इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की कि पानी में फ्लोराइड घुला हुआ है. वहीं इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा की गई मिट्टी की जांच में कैडमियम, क्रोमियम और आर्सेनिक जैसे भारी व हानिकारक तत्व पाए गए. ये सभी किडनी को नुकसान पहुंचाते हैं.

2018 विधानसभा चुनावों के पहले जब इस मुद्दे ने तूल पकड़ा तो भूपेश बघेल ने भी सुपेबेड़ा का दौरा किया और गांव से लौटने के बाद राजधानी रायपुर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए उपरोक्त शब्द कहे थे.

उस दौरान उन्होंने यह भी कहा था, ‘चार महीने बाद जो चुनाव होगा उसमें कांग्रेस की सरकार बनेगी. हमारी सरकार सुपेबेड़ा के लोगों का अच्छा इलाज कराएगी. लोगों को हम मुआवजा भी देंगे और शुद्ध पेयजल की व्यवस्था भी करेंगे.’

चार महीने बाद कांग्रेस की सरकार तो बन गई लेकिन भूपेश बघेल के वादे अब तक पूरे नहीं हुए हैं. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार को बने 26 महीने यानी दो साल से अधिक का समय हो गया है लेकिन सुपेबेड़ा गांव का नसीब नहीं बदला है.

मुआवजा तो छोड़िए, लोगों को पीने के लिए शुद्ध जल भी नहीं मिला है. इलाज की बात करें तो पीड़ित पड़ोसी राज्य ओडिशा और आंध्र प्रदेश में स्वयं के खर्च पर अपना इलाज करा रहे हैं.

सरकार तो बदल गई और भूपेश मुख्यमंत्री भी बन गए, लेकिन सुपेबेड़ा में हालात आज भी नहीं बदले हैं. न तो वे इसे शासकीय आपदा घोषित कर पाए हैं और न ही गांव में अस्पताल बना पाए हैं.

विपक्ष में रहकर सरकार को कोसते हुए शासकीय अस्पताल से लोगों का विश्वास उठ जाने की बात कहने वाले भूपेश बघेल स्वयं ही शासकीय अस्पतालों के प्रति लोगों का विश्वास बहाल नहीं कर पाए हैं.

ग्रामीणों ने द वायर  को बताया कि वे अब भी इलाज के लिए स्वयं के खर्च पर ओडिशा और आंध्र प्रदेश जाते हैं. 39 वर्षीय जीवनदास भी उनमें से एक हैं. उनकी किडनी में डेढ़ साल से समस्या है. उनका इलाज गांव से करीब 400 किलोमीटर दूर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम शहर में चल रहा है.

अपने खर्च पर दूसरे राज्य में इलाज कराने के संबंध में वे कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ का इलाज अच्छा नहीं है. सरकार ने रायपुर के डीकेएस और एम्स अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था की है. लेकिन वहां इलाज के लिए जाओ तो उनके पास बस एक इलाज होता है, डायलिसिस. जो कि किडनी की बीमारी में आखिरी चरण का इलाज माना जाता है. जबकि विशाखापट्टनम में हमारा इलाज बिना डायलिसिस के चल रहा है.’

जीवनदास पेशे से मजदूर हैं, चार बच्चे हैं और पूरा परिवार उन पर ही निर्भर है. वे कहते हैं इसलिए वे छत्तीसगढ़ सरकार के इलाज पर भरोसा करके अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहते हैं और स्वयं के खर्च पर बार-बार विशाखापट्टनम जाकर इलाज कराते हैं.

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की इन्हीं वादाखिलाफियों को लेकर बीते दिनों (11 फरवरी) ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर प्रदर्शन भी किया था लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हे मिलने का समय नहीं दिया और उनके मातहतों ने ग्रामीणों को फिर से आश्वासन देकर चलता कर दिया.

त्रिलोचन सोनवानी लंबे समय से गांव के लिए शुद्ध और साफ पानी की लड़ाई लड़ रहे हैं. त्रिलोचन के ही परिवार के 17 लोग किडनी रोगों के चलते अब तक दम तोड़ चुके हैं.

त्रिलोचन बताते हैं, ‘चुनाव से पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल आए थे. तब वे विपक्ष में थे. उन्होंने आकर वादा किया था कि मुआवजा देंगे, हमारे गांव की विधवा महिलाओं को रोजगार देंगे, तेल नदी से लाकर हमें स्वच्छ पानी पिलाएंगे और निशुल्क इलाज कराएंगे. सारे वादे, वादे ही रह गए. कोई मांग पूरी नहीं हुई.’

त्रिलोचन आगे कहते हैं, ‘यह सब उन्होंने सबके सामने माइक से ऐलान करके बोला था. अब सरकार बनने के बाद मैं उनसे दो बार मिल चुका हूं. सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं मिला. अंतिम मुलाकात को भी डेढ़ साल हो गया लेकिन हालात जस के तस हैं.’

समस्या केवल सुपेबेड़ा तक ही सीमित नहीं है. जब हम सुपेबेड़ा की बात करते हैं तो इससे लगे 9 अन्य छोटे-छोटे गांव या जिन्हें टोला भी कह सकते हैं, सुपेबेड़ा गांव क्षेत्र में शामिल होते हैं. मुख्यमंत्री आवास पर प्रदर्शन के दौरान इन गांवों के लोग भी शामिल थे.

इन्हीं में से एक गांव है सागौन बाड़ी. इसके निवासी कृष्ण चुरपाल बताते हैं, ‘हमारे इलाके में जो हीरा खदान है, वह आठ-दस गांवों से घिरी हुई है. इसलिए उस खदान के प्रभाव से इन सभी गांवों में जमीन के अंदर का पानी खराब हो गया है. हमारे गांव में भी पांच-छह लोगों की किडनी रोग से मौत हुई है.’

वे आगे कहते हैं, ‘पिछली भाजपा सरकार ने भी हमसे वादे किए, लेकिन पूरे नहीं किए. कांग्रेस की वर्तमान सरकार भी वही कर रही है. हमें साफ पानी मिलेगा, बस ये आश्वासन मिलते हैं लेकिन जमीन पर नहीं उतरते.’

परयापाली गांव के नीम चरण बताते हैं, ‘हमारे गांव में एक ही नलकूप है. गांव की 500-1000 जनता उसी पर निर्भर है. नल से पानी भी लोहा जैसा निकलता है. डर है कि सुपेबेड़ा जैसा यहां भी हुआ हो क्योंकि हमारे गांव में भी लोगों की किडनी खराब हुई हैं.’

वे आगे बताते हैं, ‘भाजपा की रमन सिंह सरकार के समय हुई जांच में भी यहां का पानी पीने योग्य नहीं पाया गया था. हाल में ऐसी कोई जांच नहीं कराई गई है. इसलिए हमें नहीं पता कि यहां का पानी अभी भी दूषित है या अच्छा.’

हताश स्वर में वे आगे कहते हैं, ‘मुंह से आश्वासन सब दे गए लेकिन न उस सरकार ने स्वच्छ पानी का कुछ इंतजाम किया और न इस सरकार ने. हमारे खूब प्रयासों के बाद भी सरकार हमारी पानी की मूल जरूरत तक पूरी नहीं कर पा रही है. गांव की बाकी समस्याओं की तो बात ही छोड़ दीजिए. जिंदा रहेंगे, तब तो अन्य समस्याओं की सोचेंगे. और जीवन के लिए जरूरी है कि हमें स्वच्छ जल मिले.’

सुपेबेड़ा गांव का वह इलाका जहां प्रदूषित जल के चलते बोरिंग बंद की गई और महज 10 मीटर की दूरी पर दूसरी बोरिंग करके पानी की टंकी बनाकर खानापूर्ति कर दी गई.
सुपेबेड़ा गांव का वह इलाका जहां प्रदूषित जल के चलते बोरिंग बंद कर महज 10 मीटर की दूरी पर दूसरी बोरिंग करके पानी की टंकी बनाकर खानापूर्ति की गई थी. (फाइल फोटो)

नीमचरण बताते हैं कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव भी सुपेबेड़ा आए थे और एक साल के अंदर तेल नदी से स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने का वादा करके गए थे लेकिन यह समयावधि भी बीत चुकी है.

ग्रामीणों के मुताबिक, टीएस सिंहदेव गांव के तीन दौरे कर चुके हैं. एक बार राज्यपाल ने भी दौरा किया है और पिछले दिनों वर्तमान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम भी सुपेबेड़ा आए थे.

त्रिलोचन बताते हैं, ‘सरकार बने ढाई साल हो गया है. इस दौरान मैंने इतना पत्राचार किया है कि कोई गिनती नहीं है. मुख्यमंत्री के नाम से तीन पत्र लिखा. कलेक्टर को भी दो बार लिख चुका हैं. यहां तक कि राज्यपाल को लिखकर सभी ग्रामीण इच्छामृत्यु भी मांग चुके हैं. लेकिन, पत्रों का जवाब अब तक नहीं आया है. हर दिन हमारी व्यथा अखबारों की सुर्खियां भी बन रही है. फिर भी किसी के कान पर कोई जूं नहीं रेंग रही.’

त्रिलोचन को वर्तमान सरकार ने स्वास्थ्य विभाग में ठेके पर कर्मचारी रखा है. त्रिलोचन का काम है सुपेबेड़ा के पीड़ित मरीजों को इलाज के लिए रायपुर पहुंचाना. इसी के चलते स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव से उनका संपर्क बना रहता है. इसके बावजूद भी उन्हें अब तक मदद नहीं मिल पाई है.

त्रिलोचन बताते हैं कि यह नौकरी उन्हें उनकी जुबां बंद रखने के एवज में दी गई थी लेकिन अपने 17 परिजनों की मौत और ग्रामीणों पर मंडराते खतरे को नजरअंदाज नहीं कर सकता.

राज्य की कांग्रेस सरकार से मदद न मिलते देख पिछले दिनों त्रिलोचन व अन्य ग्रामीण कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया से भी दिल्ली जाकर मिल चुके हैं.

त्रिलोचन बताते हैं, ‘उन्होंने भी कोई मदद नहीं की और कह दिया कि आपको मुख्यमंत्री से मिलना चाहिए, दिल्ली क्यों आ गए? मैंने उन्हें बताया भी कि मुख्यमंत्री नहीं सुन रहे हैं, तभी आपके पास आए हैं लेकिन उन्होंने भी कोई ध्यान नहीं दिया.’

भूपेश सरकार से मदद नहीं मिली तो ग्रामीण राज्यपाल अनुसुईया उइके के पास भी मदद की गुहार लगाने के गए थे. त्रिलोचन बताते हैं कि पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर से भी दो बार मुलाकात की. उन्होंने सुपेबेड़ा का मुद्दा विधानसभा में उठाने का आश्वासन दिया.

विधानसभा के वर्तमान सत्र में विपक्षी विधायकों द्वारा यह मुद्दा उठाया भी गया लेकिन सरकार से संतोषजनक जवाब न मिलने के चलते विपक्षी विधायकों ने सदन से बहिर्गमन कर दिया.

रोचक बात यह रही कि सरकार ने सदन में ग्रामीणों की मौतें दूषित पानी या किडनी रोगों के चलते होने से ही इनकार कर दिया.

त्रिलोचन बताते हैं, ‘सरकार बोल रही है कि दूषित पानी और किडनी रोगों से एक भी मौत नहीं हुई है. लेकिन, यही लोग जब विपक्ष में थे तो हमारे गांव के पानी को दूषित बताते थे. टीएस सिंहदेव ने विपक्ष में रहने के दौरान स्वयं सदन में 76 लोगों की किडनी समस्याओं के चलते मौत होने की बात कही थी.’

त्रिलोचन आगे जो बताते हैं वह राजनीतिक दलों के दोहरे चरित्र को उजागर करता है जो दिखाता है कि किस तरह सत्ता के साथ राजनीतिक दलों के स्वर बदल जाते हैं.

वे बताते हैं, ‘उस समय भाजपा के अजय चंद्राकर मंत्री थे जो बोलते थे कि किडनी रोगों से एक भी मौत नहीं हुई है. अब टीएस सिंहदेव सत्ता में आ गए तो अब वे बोलने लगे हैं कि एक भी मौत किडनी रोग से नहीं हुई है.’

त्रिलोचन सरकार से सवाल करते हैं कि अगर किडनी रोगों से ग्रामीणों की मौत नहीं हो रही है तो फिर उनका डायलिसिस क्यों हो रहा है? क्या सर्दी, खांसी और जुकाम वालों का डायलिसिस किया जाता है?

बीते दिनों ग्रामीणों ने अपनी मांगों के समर्थन में गरियाबंद जिला कलेक्टर के यहां भी प्रदर्शन किया था. सरकार की तरह ही कलेक्टर नीलेश क्षीरसागर भी ग्रामीणों की मौतों के लिए दूषित जल को जिम्मेदार नहीं मानते हैं.

द वायर  से बातचीत में वे कहते हैं, ‘तकनीकी तौर पर यह साबित नहीं हुआ है कि पानी के कारण ही ग्रामीणों को किडनी की समस्या हो रही है. हमारे विभागों द्वारा की गई पानी की जांच में भी फ्लोराइड, आयरन या अन्य किसी भारी धातु की पुष्टि नहीं हुई है. फिर भी शासन द्वारा वहां पांच जगह फिल्टर प्लांट लगाए गए हैं. हम कहना चाहेंगे कि गरियाबंद जिले में सबसे शुद्ध पानी सुपेबेड़ा में ही मिल रहा है.’

कलेक्टर के दावों पर सवाल उठाते हुए त्रिलोचन कहते हैं, ‘जब गांव के पानी में कोई दिक्कत नहीं है तो क्यों यहां 27 बोरिंग लाल निशान बनाकर बंद कर दी गईं? क्यों गांव से दूर बोर खोदकर सोलर प्लांट के जरिये पानी दे रहे हैं? जब पानी सही है तो क्यों उसके शुद्धिकरण के लिए फ्लोराइड और आर्सेनिक के प्लांट लगाकर सरकार का पैसा बर्बाद किया गया?’

वे आगे बताते हैं, ‘करीब दो साल पहले पीएचई के अधिकारियों ने मेरे साथ घूमकर सुपेबेड़ा और उससे लगे 9 गांवों के पानी की जांच कराई थी. जांच रिपोर्ट मुझे दिखाते हुए उन्होंने बताया था कि पानी में फ्लोराइड-आर्सेनिक की मात्रा अत्यधिक है. लेकिन उन्होंने वह रिपोर्ट मुझे देने से साफ इनकार कर दिया कि कहीं मैं उसे सार्वजनिक न कर दूं. अब मैं सूचना के अधिकार के माध्यम से उस रिपोर्ट को मांगने वाला हूं जिससे शासन और प्रशासन के झूठ से पर्दा उठ जाएगा.’

बता दें कि दूषित पानी की समस्या के चलते कुछ सालों पहले प्रशासन ने सुपेबेड़ा से कुछ दूरी पर स्थित एक तालाब के समीप बोर खोदकर ग्रामीणों को पानी देना शुरू किया था.

हालांकि, ग्रामीण बताते हैं कि उस बोर से पानी सोलर प्लांट के जरिये आता है. इसलिए जब धूप नहीं निकलती या मौसम खराब होता है तो पानी नहीं पहुंचता और ग्रामीणों को गांव का ही दूषित पानी पीना पड़ता है. इसलिए वे नल-जल योजना के तहत तेल नदी से पानी की मांग कर रहे हैं.

फिर बता दें कि विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस की भी यही मांग थी.

पुरंधर सिन्हा के परिवार में 10 माह में किडनी की समस्या के चलते तीन लोगों ने दम तोड़ दिया है. वे कहते हैं, ‘गांव वालों को मुआवजा चाहिए. तेल नदी का पानी चाहिए. जब तक वो नहीं आएगा, हालात नहीं सुधरेंगे. आज भी हम ज़हरीला पानी पी रहे हैं. जानते हैं कि एक दिन हमें भी किडनी-लीवर में दिक्कत खड़ी होगी. जो पानी तालाब के पास बोर करके देना शुरू किया था, उसमें भी दिक्कतें आ रही हैं. वह भी गांव के ही समीप है. डर है कि प्रदूषण वहां तक भी पहुंच गया हो.’

वहीं, जिन फिल्टर प्लांट की कलेक्टर बात कर रहे हैं उसके संबंध में ग्रामीण बताते हैं कि वे भाजपा शासन काल में लगाए थे लेकिन तब से न तो उनको बदला गया और न ही उनका मेंटेनेंस होता है. इसलिए ग्रामीण उस पानी से परहेज करते हैं.

कलेक्टर नीलेश क्षीरसागर ने द वायर  को आश्वासन देते हुए कहा कि छह महीने के भीतर सुपेबेड़ा में तेल नदी से साफ पानी उपलब्ध होने लगेगा. हालांकि ग्रामीणों को उनके इस दावे पर संदेह है.

सूरज कुमार ने कुछ दिनों पहले ही किडनी रोग के चलते दम तोड़ा है. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)
सूरज कुमार ने कुछ दिनों पहले ही किडनी रोग के चलते दम तोड़ा है. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

त्रिलोचन बताते हैं, ‘तेल नदी से हमारे गांव तक पानी पहुंचाने के लिए केवल 12 करोड़ रुपये के बजट की जरूरत है. मुख्यमंत्री के यहां प्रदर्शन के दौरान गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने गोल-मोल जवाब देते हुए कहा था कि नल-जल संबंधी केंद्र सरकार की योजना के कारण हमने गांव में तेल नदी का पानी पहुंचाने की वर्तमान योजना को रोक दिया है.’

त्रिलोचन सवाल करते हैं, ‘चुनावों के पहले आपने मेरे गांव जाकर केंद्र और राज्य सरकार का नहीं बोला था. तीन महीने में साफ पानी पिलाएंगे, यह बोला था. हम नहीं जानते कि केंद्र सरकार कौन है? हम तो राज्य सरकार और भूपेश बघेल को जानते हैं. राज्य का 25 हजार करोड़ का बजट है, उसमें से क्या हमारी जान बचाने के लिए 12 करोड़ रुपये नहीं निकाले जा सकते? इतना पैसा तो मुख्यमंत्री राहत कोष में ही पड़ा होगा.’

गौरतलब है कि भूपेश बघेल ने विपक्ष में रहते हुए भाजपा सरकार पर हमला करते हुए कहा था, ‘सरकार की नीयत पर लोगों को शक है. इसलिए ग्रामीण कहते हैं कि या तो हम गांव छोड़कर चले जाएंगे या फिर हमारे गांव को ओडिशा में मिला दिया जाए. इतना गुस्सा लोगों के मन में है. ये सरकार कहीं षड्यंत्र तो नहीं कर रही है. यहां जानबूझकर इलाज नहीं कराया जा रहा है. जांच कमेटी बनाकर उनकी जांच की जानी चाहिए.’

अब भूपेश सरकार में आ गए हैं. लोगों के मन में आज भी गुस्सा है. वे आज भी कह रहे हैं कि साफ पानी नहीं पिला सकते तो हमें इस गांव से निकालकर कहीं और बसा दीजिए.

भूपेश के पुराने बयान से सवाल उठता है कि अगर पिछली सरकार हीरा खदान के लालच में आकर गांव खाली कराने के लिए षड्यंत्र कर रही थी, तो अब उनकी सरकार भी क्या वैसे ही किसी षड्यंत्र में शामिल है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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