कश्मीर से ग्राउंड रिपोर्ट: जो कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर नहीं गए वो आज किस हाल में हैं?

जब आतंकवाद के चलते कश्मीर से बड़ी संख्या में हिंदू पलायन कर रहे थे तब भी कुछ परिवारों ने घाटी में रहने का फैसला किया था.

जब आतंकवाद के चलते कश्मीर से बड़ी संख्या में हिंदू पलायन कर रहे थे तब भी कुछ परिवारों ने घाटी में रहने का फैसला किया था.

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(इलस्ट्रेशन: एलिज़ा बख़्त)

‘कश्मीर में हिंसा का एक दौर था जो गुज़र गया है. घाटी में जब इसकी शुरुआत हुई तब हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ा लेकिन उस समय मुश्किलें सबके सामने थीं. आतंक ने हिंदू, मुसलमान, सिख सबको परेशान किया. हां, हिंदू होने की वजह से आपको थोड़ा ज़्यादा परेशान किया गया. पर अभी उनकी लड़ाई सिर्फ सुरक्षाबलों के साथ है. हमें पिछले कई सालों से कोई परेशानी नहीं है.’

ये कहना है श्रीनगर में रहने वाले रोशन लाल का. रोशन लाल उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने पिछले 30 सालों में तमाम तरह के उतार-चढ़ाव देखने के बाद कश्मीर नहीं छोड़ा.

दरअसल 90 के दशक को कश्मीर में घाटी से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं के पलायन के लिए जाना जाता है. 19 जनवरी 1990 की तारीख को कश्मीरी पंडित काले दिन के रूप में याद करते हैं.

बढ़ता आतंकवाद, कट्टरपंथ और हिंदुओं को जान से मारने की मिलने वाली धमकी इसकी प्रमुख वजह थे. इसके बाद 1997, 1998 और 2003 में भी हुई हिंसक घटनाओं के बाद बचे-खुचे लोगों ने भी पलायन का रास्ता पकड़ लिया, लेकिन इन सबके बावजूद कुछ हिंदू परिवार घाटी में रह गए.

जब इतनी बड़ी संख्या में पलायन हुआ तब वे यहां क्यों रुके रह गए? आख़िर इसकी वजह क्या थी? उन्हें घाटी में रहने पर मिला क्या? इन लोगों से मिलने के बाद ऐसे तमाम सवाल ज़ेहन में उठते हैं.

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श्रीनगर में एक हिंदू कालोनी. (फोटो शोम बसु/द वायर)

रोशन लाल बताते हैं, ‘घाटी की खूबसूरत वादियों से लगाव के चलते तो हिंदू नहीं रुके. रुकने वाले लोगों में दो तरह के लोग शामिल थे. एक- वे जिनके पास संपत्ति ज़्यादा थी. दूसरा- वो जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था. हम इसलिए नहीं गए कि हम अपनी पूरी ज़िंदगी भीख मांगते हुए नहीं गुजारना चाहते थे. शरणार्थी कैंप में सुबह से अनाज के लिए लाइन नहीं लगाना चाहते थे.’

रोशन कहते हैं, ‘हां, बच्चों वगैरह को लेकर डर था उन्हें अपने घाटी से बाहर के रिश्तेदारों के पास भेज दिया था. उनकी पढ़ाई-लिखाई वहीं हुई. बच्चे अब बाहर ही कुछ काम-धंधा करने लगे हैं और यहां आना नहीं चाहते हैं. यहां पर जितने भी हिंदू रहते हैं. उनमें ज़्यादातर बूढ़े या अधेड़ उम्र वाले लोग हैं. यहां शिक्षा, रोज़गार की समुचित व्यवस्था न होने के चलते जो बच्चे रिश्तेदारों के यहां पले-बढ़े वो यहां आए नहीं.’

वे आगे कहते हैं, ‘युवाओं को लेकर कश्मीर में कई तरह की दिक्कतें होती हैं. जो भी बच्चा बाहर रह गया वो यहां लगने वाले कर्फ्यू, सेना, पुलिस इन सब बातों से परेशान हो जाता है. अब बच्चे आते हैं दो-चार दिन घूमते हैं. माता-पिता का हालचाल लेते हैं और वापस लौट जाते हैं. यहां उनको अपने जीवन की आगे की राह नहीं दिखती है. वो कश्मीर से दूर हो गए हैं. उनका जीवन ठीक है इसलिए कोई लौटना नहीं चाहता है.’

दरअसल घाटी में 14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ वीभत्स होता चला गया. टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के नेता मकबूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई.

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रोशन लाल और निर्मल शर्मा. (फोटो शोम बसु/द वायर)

फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने शीर्ष पर पहुंच गया था. घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इसके निशाने पर आ गए हिंदू ख़ासकर कश्मीरी पंडित.

रोशन लाल की पत्नी निर्मल शर्मा बताती हैं, ‘जब हिंसा बढ़नी शुरू हुई तो हिंदुओं के घरों में फरमान आने शुरू हो गए कि वे जल्द से जल्द घाटी खाली करके चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें. घरों के बाहर ऐसे पोस्टर आम हो गए थे जिनमें पंडितों को घाटी छोड़कर जल्द से जल्द चले जाने या फिर अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की नसीहत दी गई थी. जिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कभी इबादत की आवाज़ सुनाई देती थी उनसे कश्मीरी पंडितों के लिए ज़हर उगला जा रहा था. इससे डरकर लोग घर छोड़कर भागने लगे.’

वे आगे कहती हैं, ‘हमने अपने बच्चों को बाहर भेज दिया लेकिन ख़ुद नहीं गए. हमसे पहले हमारे जानने वाले लोग जो कैंपों में रहने गए थे. उनका कहना था कि शरणार्थी कैंप में जान तो बच जा रही है लेकिन जीवन नरक है. हमें लगा कि जब नरक दोनों जगह है तो क्यों न हम अपने ही घर पर रहे. फिर अगले कुछ सालों तक कभी-कभी आतंकी आते रहे परेशान करते रहे लेकिन हम डटे रहे. अब पिछले कई सालों से ऐसा कुछ नहीं हुआ है. हालांकि एक चीज़ जो ख़त्म हो गई है वह है भरोसा. हमें यहां के लोगों पर बहुत ज़्यादा भरोसा नहीं होता है.’

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सालाना खीर भवानी त्योहार में शामिल कश्मीरी पंडित. (फोटो: रॉयटर्स)

हाल के दिनों में होने वाली परेशानियों के बारे में वे कहती हैं, ‘यहां पर जितने भी हिंदू रहते हैं वो दूसरे लोगों से मिलते-जुलते कम हैं. एकदम सिमट से गए हैं. कई बार लगता है कि अल्पसंख्यक होने के नाते आपको परेशान किया जाता है.’

हालांकि सबकी ऐसी राय नहीं है. श्रीनगर में रहने वाले दुष्यंत भट्ट कहते हैं, ‘हमें घाटी में कभी हिंदू होने की वजह से परेशान नहीं किया गया. बिजनेस के चलते हमारा परिवार कुछ साल घाटी से दूर रहा लेकिन जब हम वापस आए तो हमारा स्वागत उसी तरह से किया गया जैसे पहले रहता थे. अभी जब भी हम श्रीनगर से अपने गांव में जाते हैं जो बारामुला में है तो सारे मुस्लिम परिवार हमें वैसे ही चौकी लगाकर खाना परोसते हैं जैसे हिंदू ख़ासकर कश्मीरी पंडित खाया करते थे. श्रीनगर में भी मेरे ज़्यादातर दोस्त मुस्लिम हैं. कभी कोई ज़रूरत पड़ती है तो सबसे पहले वही मदद करते हैं. कई बार मुझे लगता है कि अब तो आपको घाटी में हिंदू होने की वजह से नहीं कश्मीरी होने की वजह से परेशान किया जाता है.’

कुछ ऐसा ही मानना दुष्यंत के चचेरे भाई अश्विनी राजदान का है. उनका कहना है, ‘कश्मीर में कभी हिंदू मुस्लिम जैसा मसला इतना नहीं रहा है. कभी कश्मीर की आज़ादी की आवाज़ बुलंद करने वाले लोगों में पंडित भी हुआ करते थे, बीच में एक ऐसा दौर आया जब हिंदुओं को बुरी तरह से परेशान किया गया लेकिन अगर हमें आगे बढ़ना है तो पीछे की बात भूलनी होगी. उस समय जितनी संख्या में हिंदू मारे गए थे उतनी ही संख्या में मुसलमान भी मारे गए थे. उस दौर में कश्मीर के हालात ऐसे थे कि हम अपनी जान नहीं बचा सकते थे तो दूसरे की जान क्या बचाएंगे.’

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दुष्यंत भट्ट. (फोटो शोम बसु/द वायर)

वे आगे कहते हैं, ‘अगर हमें मुसलमानों द्वारा हिंदुओं को मारने की कहानी सुनाई गई है तो बहुत सारी ऐसी कहानियां भी हैं जिसमें मुसलमानों ने हिंदू परिवारों की हिफाज़त की या यह आकर बताया कि आतंकी आ गए हैं आप लोग सुरक्षित निकल जाओ. पढ़ाई-लिखाई के दौरान जो हमारे मुसलमान दोस्त थे वो आज भी बने हुए हैं. कभी किसी मुसलमान से ही लड़ाई होती है तो हमसे पहले वही मुसलमान दोस्त लड़ पड़ते हैं. ताली दोनों हाथ से बजती है. कश्मीरी मुसलमान वैसे भी बेहतरीन लोग हैं.’

उन्हीं के साथ बैठे बशारत अहमद बट कहते हैं, ‘आजकल कश्मीरियत की चर्चा बहुत है. कश्मीरियत में सिर्फ मुसलमान नहीं हैं बिना हिंदुओं के यह संभव नहीं है. मुझे याद है जब हम पढ़ाई करते थे स्कूल में सारे अच्छे टीचर कश्मीरी पंडित थे. उस समय बड़ी संख्या में श्रीनगर के डॉक्टर कश्मीरी पंडित थे.’

बशारत आगे कहते हैं, ‘जिसे आज आप कश्मीरियत कहते हैं उसमें उनका भी योगदान होता था. हमें कभी नहीं लगता था कि इनके बिना रहना पड़ेगा, लेकिन हालात ऐसे बने कि इन्हें जाना पड़ा लेकिन ऐसा नहीं है कि जो वापस आते हैं और हमारे परिचित हैं तो हम उनसे किसी तरह का भेदभाव करते हैं. हमारा अक्सर अड्डा ही यहीं दुष्यंत का घर होता है. यहां बहुत सारे मुसलमान आते हैं लेकिन खाते-पीते वक़्त या किसी और समय आप ये नहीं बता सकते कि कौन हिंदू और कौन मुसलमान है.’

वे कहते हैं, ‘अब कश्मीरी हिंदू वापस आएंगे या नहीं आएंगे. ये फैसला लेना सरकारों और नेताओं का काम है लेकिन ज़्यादातर आम लोगों में हिंदुओं को लेकर कोई रोष न अब है, न पहले था. कुछ ऐसे लोग होंगे जो अपने स्वार्थ के चलते कहीं कुछ उल्टा सीधा बोलते होंगे पर मेरा दावा है ज़्यादातर लोगों के साथ ऐसा बिल्कुल भी नहीं है.’

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श्रीनगर में लाल चौक के करीब स्थित दशनामी अखाड़ा मंदिर. (फोटो शोम बसु/द वायर)

कश्मीरी पंडितों को दोबारा कश्मीर में बसाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री पैकेज के तहत सरकारी नौकरियां दी गईं. यह प्रधानमंत्री पैकेज साल 2008 में शुरू किया गया था. 1,618 करोड़ रुपये के इस पैकेज के तहत कश्मीरी पंडितों को सरकारी नौकरियां, आर्थिक सहायता, छात्रवृत्ति और स्वरोज़गार जैसी सुविधाएं दी जानी थी.

यह पैकेज धरातल पर पहली बार साल 2010 में उतरा जब करीब 1600 कश्मीरी पंडितों को इसके तहत नौकरियां दी गई. उनके रहने के लिए कॉलोनी बनाई गई. हालांकि यह योजना अभी बहुत सफल नहीं मानी जा रही है.

कश्मीर विश्वविद्यालय के मास कम्यूनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर (एमसीआरसी) से जुड़ीं मुस्लिम जान का कहती हैं, ‘हमारी पीढ़ी ने कश्मीर में हिंदू, मुसलमान, सिख सबको देखा है लेकिन अब जो पीढ़ी बड़ी हो रही है उसके सामने ये दिक्कत है कि उसे सबके त्योहारों और रीति-रिवाजों के बारे में सही से पता नहीं चल पाता है. हालांकि जितने लोग अभी यहां पर हैं उनका भी जीवन हमारे जैसा ही है. उनके बच्चे स्कूलों में दूसरे बच्चों की तरह पढ़ने आते हैं. वो भी अपना त्योहार मनाते हैं. कर्फ्यू लगने पर उन्हें भी उतनी ही तकलीफ होती है. घाटी में जितने अवसर मुसलमानों के लिए हैं, उतने ही अवसर हिंदुओं के लिए भी हैं.’

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अश्विनी राजदान और बशारत अहमद बट. (फोटो शोम बसु/द वायर)

वहीं, श्रीनगर के लाल चौक स्थित दशनामी अखाड़ा मंदिर में मिले उदय शर्मा बताते हैं, ‘इतने सालों में हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि सिर्फ हिंदू होने की वजह से दुकानदारों, रिक्शावालों, बसवालों, डॉक्टर, बैंककर्मी या किसी अन्य ने आपके साथ भेदभाव किया हो. कुछ लोग आपको हर जगह उल्टे सीधे मिल जाते हैं, लेकिन बड़ी संख्या में लोग ऐसे नहीं है. अभी पुलवामा से ऐसी ही एक ख़बर आई थी जिसमें हज़ारों की संख्या में हिंदू व्यक्ति के अंतिम संस्कार में मुसलमान शामिल हुए थे. मेरे एक रिश्तेदार ने बताया कि उनकी मौत की सूचना और अंतिम संस्कार में जुटने की जानकारी मस्जिद के लाउडस्पीकर से सबको दी गई.’

श्रीनगर में बड़ी संख्या में आपको हिंदू काम करते हुए मिल जाएंगें. बिहार, पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा से बड़ी संख्या में लोग वहां रहते हैं. ज़्यादातर खोमचेवाले, नाई की दुकान, दिहाड़ी मज़दूर, कपड़ों का व्यापार करने वाले हिंदू ख़ासकर कश्मीर से बाहर के लोग हैं जो वहां काम की तलाश में गए हैं. इसमें से बहुत सारे लोग कई दशकों से यहां रह रहे हैं.

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श्रीनगर का लाल चौक. (फाइल फोटो: पीटीआई)

ऐसे ही एक शख़्स राजेश हैं. वो 25 सालों से घाटी के गांवों में कपड़े का व्यापार करते हैं. राजेश मुज़फ़्फ़नगर के रहने वाले हैं. वो हरियाणा के पानीपत से कपड़ा खरीदकर घाटी के गांवों में फेरी लगाकर बेचते हैं.

राजेश कहते हैं, ‘इतने साल में मैंने कश्मीरी भी सीख ली है. हर साल करीब छह महीने मैं घाटी के गांवों में घूम-घूमकर कपड़े बेचता हूं, लेकिन आज तक कभी यह नहीं लगा कि हिंदू होने की वजह मुझे कभी तकलीफ हुई है. पिछले साल आतंकी बुरहान के मारे जाने के बाद हालात बहुत ख़राब हो गए थे तब भी हम यही थे. कई दिन तक एक गांव में रुके रहे. जब तक पैसे रहे ख़र्च किया जब पैसे ख़त्म हो गए तो सारा खाना पीना गांव वाले देते रहे. कभी किसी ने कोई अपशब्द नहीं कहा. जिसे ये लगता है कि कश्मीर में हिंदू मुसलमान का भेदभाव है वे यहां आकर घूमें और रहें. उसे हक़ीक़त समझ में आ जाएगी.’

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(फोटो: रॉयटर्स)

श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार रियाज़ वानी कहते हैं, ‘यहां अभी जो बहस चल रही है उसके एजेंडे में धर्म नहीं है. कुछ लोग जबरिया इस बहस को अपने फायदे के लिए धार्मिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह सही नहीं है. अभी यहां की बहस एंटी इंडिया, एंटी नई दिल्ली, एंटी आर्मी है. इसमें कश्मीरी हिंदू कही भी नहीं है. अगर ऐसा होता तो जो भी हिंदू यहां रह रहे हैं वो यहां नहीं होते. हालांकि उनकी संख्या बहुत कम है.’

रियाज़ कहते हैं, ‘अगर हम नब्बे की दशक पर चर्चा करें तो यह बिल्कुल ब्लैक एंड ह्वाइट जैसा मामला नहीं है. उस समय मिलिटेंसी बहुत बढ़ गई थी. हालात आम कश्मीरी के हाथ में नहीं थे. उस समय एक धड़ा ऐसा भी था जिसे लगता था कि कश्मीरी हिंदू भारत के साथ हैं तो वह उनके ख़िलाफ़ थे.’

वे आगे कहते हैं, ‘कश्मीर में नब्बे की दशक में लगभग दो लाख हिंदू रहते थे. अगले एक दशक में आतंकवाद से मरने वालों हिंदुओं ख़ासकर पंडितों की संख्या 219 रही. इसमें से ज़्यादातर को आतंकियों ने मुखबिरी के शक में मारा. नब्बे के दशक में मुखबिरी के शक में मुसलमानों की बड़ी संख्या में हत्या की गई. बोलचाल की भाषा में कहें तो अगर एक हिंदू मुखबिरी के शक में मारा जाता था तो चार मुसलमान भी मारे जाते थे. कहने का मतलब है कि कश्मीर की लड़ाई में धार्मिक रंग कभी भी इतना ज़्यादा नहीं था जितना कि कुछ लोग बताने की कोशिश करते हैं.’

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