असम विधानसभा चुनाव के बीच एनआरसी का मुद्दा कहां है…

ऐसे राज्य में जहां एनआरसी के चलते 20 लाख के क़रीब आबादी 'स्टेटलेस' होने के ख़तरे के मुहाने पर खड़ी हो, वहां के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव में इस बारे में विस्तृत चर्चा न होना सवाल खड़े करता है.

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Guwahati: People show their documents after arriving at a National Register of Citizens (NRC) Seva Kendra to check their names on the final draft, in Guwahati, Saturday, Aug 31, 2019. (PTI Photo) (PTI8_31_2019_000080B)
अगस्त 2019 में गुवाहाटी के एक एनआरसी केंद्र पर अपने दस्तावेज़ दिखाते स्थानीय. (फोटो: पीटीआई)

ऐसे राज्य में जहां एनआरसी के चलते 20 लाख के क़रीब आबादी ‘स्टेटलेस’ होने के ख़तरे के मुहाने पर खड़ी हो, वहां के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव में इस बारे में विस्तृत चर्चा न होना सवाल खड़े करता है.

Guwahati: People show their documents after arriving at a National Register of Citizens (NRC) Seva Kendra to check their names on the final draft, in Guwahati, Saturday, Aug 31, 2019. (PTI Photo) (PTI8_31_2019_000080B)
अगस्त 2019 में गुवाहाटी के एक एनआरसी केंद्र पर अपने दस्तावेज़ दिखाते स्थानीय. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: असम में बुधवार को दूसरे चरण का मतदान हो चुका है और अब केवल एक आखिरी चरण का मतदान बाकी है जो छह तारीख को होगा. इससे एक दिन पहले कांग्रेस के राज्यसभा सांसद और प्रदेशाध्यक्ष रिपुन बोरा ने ऐलान किया कि पार्टी अगर सत्ता में आई तो भाजपा द्वारा ‘गलत बताई’ जा रही एनआरसी की फाइनल सूची को स्वीकृति दी जाएगी और लोगों को पहचान पत्र जारी किए जाएंगे.

नागरिकता और उसमें भी एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस बीते कई सालों से असम के लिए एक बड़ा मुद्दा रहे हैं. साल 2019 में इसकी अंतिम सूची जारी होने और उसके बाद सरकार के नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाने के बाद से इसे लेकर राज्य का राजनीतिक पारा खासा बढ़ चुका है.

हालांकि अब बीते कुछ महीनों से विधानसभा चुनाव के मद्देनजर चल रहे राजनीतिक दलों के प्रचार अभियान समेत एनआरसी का यह मुद्दा मीडिया में भी नजर नहीं आ रहा है.

ऐसे राज्य में जहां 20 लाख के करीब आबादी ‘स्टेटलेस’ होने के खतरे के मुहाने पर खड़ी हो, वहां के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव में इस बारे में विस्तृत चर्चा न होना सवाल खड़े करता है. स्थानीय पत्रकार और राज्य के जानकार इसे ‘मीडिया मैनेजमेंट’ कह रहे हैं, साथ ही उनकी मानें तो एनआरसी की प्रक्रिया का आगे न बढ़ना भी इस पर चर्चा न होने की एक बड़ी वजह है.

क्या थी एनआरसी की प्रक्रिया

सुप्रीम कोर्ट में पहुंचीं कई याचिकाओं के बाद शीर्ष अदालत के आदेश पर असम में 1951 में हुए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट किया गया. कई सालों तक चली इसकी कवायद के बाद आखिर इसकी अंतिम सूची 31 अगस्त 2019 को जारी हुई.

इसमें कुल 3,30,27,661 लोगों ने आवेदन किया, जिसमें से अंतिम सूची में 3 करोड़ 11 लाख लोगों का नाम आया और 19 लाख से अधिक लोग सूची से बाहर रह गए. राज्य सरकार के अनुसार, सूची में इन  19 लाख से अधिक लोगों में 5.56 लाख हिंदू और 11 लाख मुस्लिम थे.

प्रक्रिया के अनुसार, जिन लोगों के नाम सूची में नहीं आए हैं वे राज्य में बने विदेशी न्यायाधिकरण [फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी] में 60 दिनों के अंदर अपील दाखिल कर सकते हैं, जहां विदेशी अधिनियम, 1946 और विदेशी न्यायाधिकरण आदेश, 1964 के तहत उनकी नागरिकता का फैसला होगा.

यहां हुए फैसले से भी अगर वे खुद को संतुष्ट नहीं पाते हैं, तब वे ऊपरी अदालतों में जा सकते हैं. ट्रिब्यूनल में आगे अपील करने की प्रक्रिया की शुरुआत एक रिजेक्शन स्लिप से होती है, जो सूची से बाहर रहे लोगों को स्थानीय एनआरसी केंद्रों द्वारा दी जाती है.

आदर्श स्थिति यह होती कि यह स्लिप अंतिम सूची आने के बाद जितना जल्दी हो सकता, यह बाहर रहे लोगों को दी जाती और उनकी अपील आगे बढ़ती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

अंतिम सूची आने के 19 महीने बाद विधानसभा चुनाव के बीच मार्च के आखिरी हफ्ते में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा राज्य सरकार को ‘तत्काल’ रिजेक्शन स्लिप बांटने के निर्देश दिए गए हैं. साथ ही मंत्रालय ने इस स्लिप को लेकर आगे बढ़ने की मियाद 60 दिन से बढ़ाकर 120 दिन कर दिया है.

इससे पहले एनआरसी की अंतिम सूची जारी होने के एक साल पूरे होने के समय इस बारे में सवाल किए जाने पर एनआरसी डायरेक्टरेट की तरफ से कागजी कार्रवाई में हुई गड़बड़ियों, स्टाफ की कमी और कोरोना महामारी/लॉकडाउन को इसका जिम्मेदार बताया था.

सूची से बाहर रहे लोग और मताधिकार

एनआरसी में नाम न होने को लेकर सबसे बड़ा संशय मतदाता सूची में नाम न होने को लेकर था, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सूची आने के फ़ौरन बाद और इस साल जनवरी महीने में निर्वाचन आयोग ने इस बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि अगर सूची से बाहर रहे शख्स का नाम वोटर लिस्ट में है, तो वे मतदान कर सकते हैं.

हालांकि लोगों में अब तक इस बारे में काफी संशय रहा है. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि एनआरसी की सूची से बाहर रहना वोटर टर्न आउट को प्रभावित कर सकता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में यही भ्रम बना हुआ है कि अंतिम सूची में नाम न आने के बाद वे मतदाता नहीं रहे हैं.

एएस तपादार गौहाटी हाईकोर्ट में वकील हैं, उन्होंने इस अख़बार को बताया, ‘जब तक एफटी बाहर रहे लोगों की नागरिकता को लेकर कोई फैसला नहीं करता, उनके मताधिकार सुरक्षित हैं, लेकिन अब भी ग्रामीण इलाकों में यह डर है कि वे वोट नहीं दे सकते. मुझे कम से कम ऐसे सौ कॉल आए हैं, जिनका यही सवाल था.’

द वायर  की नेशनल अफेयर्स एडिटर संगीता बरुआ पिशारोती काफी समय से असम में हैं और उनका कहना है, ‘चूंकि लोगों का मताधिकार इससे प्रभावित नहीं हो रहा है इसलिए ये किसी बड़े मुद्दे की तरह उभरकर नहीं आ रहा है. उनका सोचना है कि भाजपा सीएए लाएगी लेकिन एक प्रैक्टिकल बात है कि एनआरसी और सीएए दोनों की कट ऑफ तारीख में फर्क है. हालांकि सीएए के खिलाफ जमीन पर विरोध है, लेकिन विभिन्न कारणों से वो बहुत खुलकर सामने नहीं आ रहा है. लेकिन एनआरसी को लेकर किसी तरह की बात होने की वजह इसका लोगों के वोट देने के अधिकार को प्रभावित न करना है.’

अब ‘सही’ एनआरसी का वादा

भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और ‘सही एनआरसी’ लाने का वादा किया है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष समेत राज्य के सभी नेता इसे दोहराते नजर आ रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस का वादा है कि उनकी सरकार बनते ही एनआरसी केंद्रों में काम शुरू होगा ताकि अंतिम सूची में बाहर रह गए लोग आगे अपील कर सकें.

एनआरसी की सूची के प्रकाशन के बाद से ही इस पर सवाल उठते रहे हैंऔर री-वेरिफिकेशन की मांग लगातार उठाई गई. सवाल उठाने वालों लोगों में सत्तारूढ़ भाजपा सबसे आगे थी.

किसी समय एनआरसी से ‘घुसपैठियों’ को देश से खदेड़ बाहर करने के दावे करने वाली भाजपा एनआरसी की फाइनल सूची के प्रकाशन का समय पास आते-न आते बदलती नजर आई. जून 2019 में एनआरसी की फाइनल सूची जारी होने से पहले एक एक्सक्लूशन लिस्ट जारी हुई थी, जिसके बाद से भाजपा कि ओर से रीवेरिफिकेशन की मांग उठाई जाने लगी.

सर्बानंद सोनोवाल. (फोटो साभार: फेसबुक/@SarbanandaSonowal)
सर्बानंद सोनोवाल. (फोटो साभार: फेसबुक/@SarbanandaSonowal)

दबे स्वर में ऐसा कहा जा रहा था कि इसमें बहुतायत में बांग्लाभाषी हिंदुओं के नाम देखने के बाद पार्टी के रवैये में यह परिवर्तन हुआ था.

उसी साल जुलाई में असम सरकार और केंद्र सरकार ने पुनः सत्यापन की इस प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी लेकिन तत्कालीन एनआरसी कोऑर्डिनेटर प्रतीक हजेला द्वारा 27 फीसदी नामों का पहले ही पुनः सत्यापन कराए जाने की बात कहने के बाद अदालत ने याचिका खारिज कर दी.

इसके बाद 31 अगस्त 2019 को अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद भाजपा ने इसे नकारते हुए कहा कि उसे इस पर भरोसा नहीं है. असम के प्रदेश अध्यक्ष रंजीत कुमार दास ने कहा कि एनआरसी की अंतिम सूची में आधिकारिक तौर पर पहले बताए गए आंकड़ों की तुलना में बाहर किए गए लोगों की बहुत छोटी संख्या बताई गई है.

इसके बाद पूर्वोत्तर में पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्य के वित्त मंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने भी कहा था कि एनआरसी की अंतिम सूची में कई ऐसे लोगों के नाम शामिल नहीं हैं जो 1971 से पहले बांग्लादेश से भारत आए थे. इसके बाद उन्होंने यह बात जगह-जगह अलग मौकों पर दोहराई।

एक अवसर पर उनका कहना था, ‘भारतीय जनता पार्टी को इस पर भरोसा नहीं है क्योंकि जो हम चाहते थे उसके विपरीत हुआ. हम सुप्रीम कोर्ट को बताएंगे कि भाजपा इस एनआरसी को खारिज करती है. यह असम के लोगों की पहचान का दस्तावेज नहीं है.’

अब राज्य की भाजपा सरकार की मांग है कि बांग्लादेश से सटे जिलों से एनआरसी सूची में शामिल 20 फीसदी और बाकी जिलों से 10 फीसदी नामों का दोबारा वेरिफिकेशन होना चाहिए. इसके लिए उसने अदालत में हलफनामा भी दाखिल किया है.

इस बीच बीते दिसंबर में अंतिम सूची आने के डेढ़ साल बाद एनआरसी समन्वयक हितेश शर्मा ने हाईकोर्ट से कहा कि 31 अगस्त, 2019 को प्रकाशित सूची सप्लीमेंट्री (पूरक) एनआरसी है, जिसमें 4,700 अयोग्य नाम शामिल हैं. फाइनल सूची आनी बाक़ी है.

उनका यह भी कहना था कि सूची की विसंगतियों के बारे में उन्होंने रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (आरजीआई) को सूचित किया था, हालांकि उनकी ओर से इस बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई थी.

भाजपा अकेली नहीं है जो एनआरसी के मौजूदा आंकड़ों को अस्वीकार कर रही है. एनआरसी से नाखुश लोगों की सूची में असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू) भी शामिल है, जो वह गैर-सरकारी संगठन है, जो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के तहत असम में एनआरसी को अपडेट करने के लिए शीर्ष न्यायालय में मूल याचिकाकर्ता था.

अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद एपीडब्ल्यू  का कहना था कि अंतिम एनआरसी सूची की प्रक्रिया को दोषपूर्ण तरीके से पूरा किया गया था. उनकी मांग सूची के सौ फीसदी रीवेरिफिकेशन की है.

उम्मीद-नाउम्मीद के बीच झूलते लोग

भाजपा ने सही एनआरसी लाने का वादा किया तो है, लेकिन अंतिम सूची से बाहर रहे लोग इसे लेकर बहुत आशांवित नहीं हैं. इनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोग शामिल हैं. वे चाहते हैं कि ‘त्रुटिविहीन एनआरसी’ तैयार हो जिसमें किसी भी भारतीय की नागरिकता से समझौता नहीं किया जाए.

कामरूप जिले के बोको के पास दखिन रंगापानी के अब्दुल माज़िद उनके पिता के नाम पर बने इस्माइल हुसैन हाईस्कूल से रिटायर हुए शिक्षक हैं. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इस्माइल हुसैन के सबसे बड़े बेटे माज़िद का नाम एनआरसी की फाइनल लिस्ट में नहीं था, जबकि उनके बाकी परिजनों को सूची में जगह मिली थी.

टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए उनके वकील बेटे अब्दुल मन्नान ने कहा, ‘हमें वो पार्टी चाहिए जो नागरिकता संबधी मसले सुलझा सके. नई सरकार की पहली प्राथमिकता त्रुटिहीन एनआरसी होनी चाहिए  और किसी भी भारतीय नागरिक को इसकी वजह से मुश्किल नहीं आनी चाहिए. मैं यह विश्वास दिला सकता हूं कि मेरे पिता भारतीय हैं इसीलिए हम अपनी नागरिकता साबित कर पाए.’

होजाई जिले के डेरा पाथर गांव के 64 वर्षीय सुनील बर्मन को भाजपा के वादे पर भरोसा नहीं है. उनके चार बच्चों का नाम अंतिम सूची में नहीं आया.

Kamrup: People to check their names on the final list of the Nation Register of Citizens (NRC), in Kamrup, Saturday, Aug 31, 2009. (PTI Photo)
कामरूप जिले में एनआरसी की अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद अपना नाम चेक करते स्थानीय लोग. (फोटो पीटीआई)

इंडिया टुडे से हुई बातचीत में वे कहते हैं, ‘हमारे पास सारे सही कागज हैं. पिछली कांग्रेस सरकार के समय के नागरिकता वाले कागज भी हैं. अगर इनके आधार पर हम दो बार एनआरसी की लिस्ट में नहीं आए तो क्या गारंटी है कि हमें सीएए के तहत ‘वैध’ कर दिया जायेगा?’

बर्मन के युवा बेटे पंकज का कहना है कि भाजपा इस बारे में गंभीर नहीं है, वो सिर्फ चुनाव जीतने के लिए ‘सही’ एनआरसी की बात कर रही है. उन्होंने कहा, ‘भाजपा हमें सिर्फ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. हमारे लिए ये जिंदगी और मौत का सवाल है. अगर हम अपनी नागरिकता का सबूत नहीं दे पाए तो कैसी जिंदगी होगी.’

इसी क्षेत्र के एक और बांग्ला भाषी हिंदू कुमुद देबनाथ ने इस चैनल से बातचीत में सीएए की जरूरत को लेकर सवाल उठाया. उन्होंने कहा, ‘या तो बांग्लादेश से आए सभी को नागरिकता मिलनी चाहिए या किसी को नहीं. सरकार किसी एक के साथ पक्षपात नहीं कर सकती. हमें सीएए नहीं चाहिए क्योंकि हम 1964 से पहले असम में आए थे, लेकिन हमारी भी नागरिकता अधर में है. सरकार कैसे इतने सारे बांग्लादेशी हिंदुओं को लाने का सोच सकती है, जब वह अपने ही लोगों की नागरिकता रक्षा नहीं कर सकती!’

हालांकि कुछ को सत्तारूढ़ भाजपा के वादों पर भरोसा भी है. डेरा पाथर गांव में दुकान चलाने वाले कनु देबनाथ और उनके परिवार के छह सदस्यों के नाम एनआरसी की फाइनल सूची में नहीं आए हैं.

वे कहते हैं, ‘भाजपा कह रही है कि हमें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. वे हमें सीएए के जरिये वैध कर देगी और सही एनआरसी लाएगी. भाजपा ने असम के विकास के लिए काम किया है इसलिए मुझे उन पर भरोसा है.’

इसी इलाके के रंजन बोरा का भी कहना है कि भाजपा के अलावा किसी भी पार्टी कांग्रेस या एआईयूडीएफ ने ऐसी (सही एनआरसी लाने) की बात नहीं कही है इसलिए उन्हें भाजपा पर थोड़ा विश्वास है.

बांग्लाभाषी हिंदुओं के अलावा असम के कई आदिवासी समुदायों में भी एनआरसी की अंतिम सूची में नाम न आने से डिटेंशन सेंटर भेजे जाने का डर है और सही एनआरसी का चुनावी वादा उनके डर को कम नहीं कर सका है.

नागांव जिले में हजोंग समुदाय से आने वाली जनमोनी हजोंग ने इंडिया टुडे से हुई बातचीत में भाजपा के ‘सही एनआरसी’ के वादे को लेकर अविश्वास जाहिर करती हैं.

वे कहती हैं, ‘मेरा पूरा परिवार बिना कुछ खाये-पिए बीस घंटों तक कतारों में खड़ा हुआ है. लेकिन सब सही दस्तावेज दिखाने के बाद भी हमारा नाम लिस्ट में नहीं आया. हमें यकीन नहीं है कि ये अगली एनआरसी में भी होगा. थोड़ा-सा डर भी लग रहा है कि पिछली बार नहीं आया तो अब क्या होगा.’

इसी गांव के हीलिश हजोंग किसान है और उनका, उनकी पत्नी और तीन बच्चों में से किसी के नाम भी फाइनल लिस्ट में नहीं था. उनका कहना है, ‘मेरे दादा-परदादा इसी जमीन  पर फसल उगाते थे, हमारे पास सब कागज हैं. मेरे बच्चे डरे हुए हैं कि अगर हम नागरिकता प्रमाणित नहीं कर पाए तो हमें डिटेंशन सेंटर भेज दिया जाएगा.’

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