‘औरत न हो पांव की जूती हो गई, जब तक काम दिया तो ठीक, फिर निकालकर फेंक दिया’

तीन तलाक़ मामले में मुख्य याचिकाकर्ता उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली शायरा बानो की आपबीती.

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तीन तलाक़ मामले में मुख्य याचिकाकर्ता उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली शायरा बानो की आपबीती.

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(रिज़वान और शायरा के निकाह की तस्वीर)

तीन तलाक़ मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपना फैसला सुना दिया है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि मुस्लिमों में तीन तलाक़ के जरिए दिए जाने वाले तलाक़ की प्रथा अमान्य, अवैध और असंवैधानिक है. शीर्ष अदालत ने 3:2 के मत से सुनाए गए फैसले में तीन तलाक़ को कुरान के मूल तत्व के ख़िलाफ़ बताया. इस मामले में मुख्य याचिकाकर्ता शायरा बानो थी. उनकी आपबीती…

‘हम काशीपुर के साधारण परिवार से ताल्लुक रखते हैं. 2002 में मेरी शादी इलाहाबाद के रिज़वान से हुई, जो प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करते थे. पापा ने गहने, घर का सामान वगैरह मिलाकर लगभग तीन-चार लाख रुपये का दहेज दिया था. मेहर, जो कहा जाता है कि लड़की और उसके घरवालों की रजामंदी से तय होती है, उसे बिना हमसे पूछे तय कर दिया गया.

बहरहाल, मैं ससुराल पहुंची पर निकाह के बाद से ही कम दहेज लाने को लेकर तानाकशी शुरू हो गई. घर में मेरी जेठानी भी थीं, जिन्हें भी कम दहेज के लिए परेशान किया जाता था पर क्योंकि वो मेरी सास की रिश्तेदार की बेटी थीं तो उन्हें कम परेशान किया जाता था. जैसे-तैसे दिन कट रहे थे.

फिर परिवार में हुए एक घरेलू झगड़े के बाद रिज़वान मुझे लेकर अलग रहने लगे. इस दौरान मेरे दो बच्चे, एक बेटा और बेटी ही हो चुके थे. अलग रहने के बाद तो घर में झगड़े बढ़ते ही चले गए. वो बात-बेबात मुझ पर हाथ उठाते. इस बीच मुझे करीब 6-7 बार गर्भ ठहरा, पर उन्होंने गर्भपात करा दिया. और इसके लिए हम किसी डॉक्टर के यहां नहीं गए.

रिज़वान कोई गोली लाकर खिला देते थे. इसके बाद से मेरी सेहत लगातार गिरने लगी और रिज़वान का मुझ पर गुस्सा बढ़ता गया. मेरी खराब सेहत का जिम्मेदार वो मुझे ही बताते, मुझे जरा-सी बात पर भी मारते-पीटते. बात ही बात में मुझे छोड़ने की धमकी देते. मैं भी हर मुस्लिम औरत की तरह तलाक़ की तलवार के साये में डर-डरकर जीती थी. मैंने आस-पास के कई घर ऐसे ही टूटते देखे थे. मायके वालों को भी इसी डर से ये सब नहीं बताया कि पता चलने पर न जाने रिज़वान क्या करें. मैं इसे अल्लाह की मर्जी समझ कर सब कुछ सहती रही. फिर हमारे समाज में किसी तलाक़शुदा औरत को कैसे देखा जाता है, इससे हम सब वाकिफ हैं.

अप्रैल 2015 में उन्होंने मुझे इलाज करने के लिए मायके ले जाने को कहा पर फिर काशीपुर से पहले मुरादाबाद स्टेशन पर ही हमें छोड़कर चले गए. वहां से पापा हमें घर ले आए. फिर कुछ दिनों तक तो उनसे फोन पर बात हुई पर फिर उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया. कभी उठाते भी तो झिड़कते रहते. बच्चों के स्कूल शुरू होने थे सो पापा उन्हें इलाहाबाद छोड़ आए.

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शायरा बानो (फाइल फोटो)

मेरा इलाज उस वक्त तक चल ही रहा था तो मैं यहीं रह गई. बच्चों के वहां पहुंच जाने के बाद तो रिज़वान ने कोई खैर-खबर लेना, फोन उठाना सब ही छोड़ दिया. और फिर अक्टूबर में मेरे नाम से एक चिट्ठी घर पहुंची. जिस डर में मैं शादी के इतने साल घुट-घुटकर जीती रही थी, वही हुआ. रिज़वान ने डाक से तलाक़नामा भिजवाया था. मेरी इतने सालों की चुप्पी भी हमारे रिश्ते को नहीं बचा पाई. मैं बुरी तरह टूट गई.

फिर भाई और पापा ने हिम्मत बंधाई और मैंने इंसाफ और मुस्लिम औरतों की इज़्ज़त के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की ठानी. कैसी अजीब दुनिया है, कैसे अजीब नजरिये…औरत न हो गई पांव की जूती हो गई, जब तक काम दिया तो ठीक, फिर निकालकर फेंक दिया. मैं एमए तक पढ़ी हूं. मैं नौकरी भी करना चाहती थी पर रिज़वान को घर की औरतों का बाहर जाकर नौकरी करना गवारा नहीं था.

सोचती हूं अगर अपने पैरों पर खड़ी होती तो शायद ये विरोध पहले कर पाती. ज़िंदगी के इतने साल किसी गुलाम की तरह निकाल दिए. रिज़वान ने तलाक़ के बाद मेहर के 15 हज़ार रुपये भी भिजवाए पर क्या डर और दर्द में बीते मेरे उन 13 सालों की कोई कीमत लगाई जा सकती है?

वैसे इस तलाक़ ने मुझे उस डर से आज़ाद कर दिया है. मैं खुद पर हुए जुल्मों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए आज़ाद हूं. मैं कोर्ट से सिर्फ अपने बच्चे, अपना दहेज या गुजारा-भत्ता नहीं चाहती बल्कि इस्लाम के मर्दवादी क़ानूनों में भी बदलाव चाहती हूं. ये कैसा क़ानून है जहां निकाह औरत-मर्द दोनों की हामी से होगा पर तलाक़ सिर्फ शौहर की मर्जी से? शौहर तलाक़ भी दे फिर शरीयत की दुहाई देकर हलाला के लिए भी कहे. क्या ये औरतों की बेइज़्ज़ती नहीं है? क़ानून एकतरफा क्यों है?

पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग खुद को हमारा रहनुमा बताते हैं पर औरतों के हक के लिए कभी सामने नहीं आते. वहां की कुछ महिला मेंबरान ने तीन तलाक़ को जायज ठहराया है. मैं उनसे बस यही कहना चाहूंगी कि दूसरे के बारे में ऐसा बोलना आसान है, खुद पर गुजरे तब ही इस दर्द का एहसास होता है. मैं बस चाहती हूं कि मुस्लिम औरतों को भी इज़्ज़त और बराबरी से जीने का हक दिया जाए.’

(मीनाक्षी तिवारी से बातचीत पर आधारित. मूल रूप से तहलका के 30 जून 2016 अंक में प्रकाशित)

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