हर मौसम आजकल कोई न कोई शोक संदेश लेकर आता है

प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की और ले जा रहा है. पहाड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह ख़ुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है. हमारी शिक्षा ने हमें अपने परिवेश और पर्यावरण से बहुत दूर कर दिया है. ये जंगल, पर्वत और झरने हमें अध्यात्म का विषय लगते हैं, पर इससे पहले ये भूगोल का विषय हैं.

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Gorakhpur: A view of a flooded region in eastern Uttar Pradesh on Wednesday. PTI Photo (PTI8_24_2017_000228B)

प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की और ले जा रहा है. पहाड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह ख़ुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है. हमारी शिक्षा ने हमें अपने परिवेश और पर्यावरण से बहुत दूर कर दिया है. ये जंगल, पर्वत और झरने हमें अध्यात्म का विषय लगते हैं, पर इससे पहले ये भूगोल का विषय हैं.

Flood In Bihar PTI
बिहार में बाढ़. (फोटो: पीटीआई)

हमारी ज़िंदगी के समय का सबसे बड़ा हिस्सा अब बाढ़, सूखा, झंझावात, सुनामी, चक्रवात, ओलावृष्टि से जूझने में जाने लगा है. मौसम तो आनंद के पल रचते रहे हैं. सावन, शीत और ग्रीष्म; इन ऋतुओं के बीच कितनी ही ऋतुएं छिपी होती हैं. इन ऋतुओं से विज्ञान भी जुड़ा हुआ है और हमारा जीवन भी; पर हर मौसम आजकल कोई न कोई शोक संदेश लेकर आता है.

इंटरनेशनल फेडरेशन आॅफ रेडक्रॉस एंड रेड क्रिसेंट सोसायटीज़ ने 18 अगस्त 2017 को बताया, ‘दक्षिण एशिया में विध्वंसक मानसून के कारण मानवीय संकट पैदा हो गया है. लगभग 1.6 करोड़ लोग इस संकट की चपेट में हैं. सैंकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं. यह अब तक का सबसे व्यापक संकट बनता हुआ दिखाई दे रहा है.’

संकट वास्तव में मानसून के बिगड़ जाने का नहीं है. संकट यह है कि विध्वंस के बाद सब कुछ खोकर हम अगले विध्वंस की तैयारी में जुट जाते हैं.

क्या हम आपदाओं से अभ्यस्त होने की जुगत में हैं? कुछ ख़बरों में लिखा है कि बिहार की 1.38 करोड़ जनसंख्या बाढ़ की चपेट में है. बिहार में तो लगभग हर साल बाढ़ आती है. वर्ष 2009 में वहां 434 लोग मरे थे.

वर्ष 2013-14 में बिहार सूखे की चपेट में था और तब 12564.04 करोड़ रुपये की सहायता मांगी गई थी. वर्ष 2014-15 में बिहार में ओलावृष्टि हुई, तब 2041.10 करोड़ रुपये की सहायता मांगी गई. इस साल यह राज्य गंभीर बाढ़ में डूबा हुआ है.

इसी तरह कर्नाटक में 2013-14 में सूखा और ओलावृष्टि हुई. 878 करोड़ रुपये की ‘राहत’ मांगी गई. अगले साल वहां फिर यही हाल हुआ और 930 करोड़ रुपये की सहायता मांगी गई. 2015-16 में कर्नाटक सूखे की चपेट में आ गया और 5248 करोड़ रुपये की राहत की ज़रूरत पड़ी.

Gorakhpur: A view of a flooded region in eastern Uttar Pradesh on Wednesday. PTI Photo (PTI8_24_2017_000228B)
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में आई बाढ़. (फोटो: पीटीआई)

वर्ष 2013-14 में मध्य प्रदेश ओलावृष्टि की चपेट में था. फिर अगले साल बाढ़ की चपेट में आया. वर्ष 2015-16 में सूखे की चपेट में आ गया. इन सालों में 11500 करोड़ रुपये की राहत मांगी गई.

आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र सरीखे राज्यों की हालत भी यही थी. इस तथ्य का संज्ञान लीजिए कि वर्ष 2013-14 में आपदाओं से राहत के लिए 24838.96 करोड़ रुपये, फिर वर्ष 2014-15 में 42021.71 करोड़ रुपये और वर्ष 2015-16 में 52765.22 करोड़ रुपये की राशि मांगी गई.

हमारी सरकारें ‘राहत के बजट’ के ज़रिये आपदाओं से निपटना चाहती हैं. सरकारें इस हद तक नासमझ हो गई हैं कि बारिश की अधिकता इतनी नहीं है कि बाढ़ आए, वास्तव में पानी के बहने के रास्ते बंद हो जाने के कारण धाराएं बहने का रास्ता खोज रही हैं.

जब पहाड़ और जंगल न होंगे तो बारिश किसके घर आएगी. हमारे घर तो पत्थर के बने हुए हैं. यदि नासमझ नहीं तो फिर शायद सरकारें बेहद शातिर हो गई हैं. वे यह सवाल बहस में नहीं आने देना चाहती हैं कि आख़िर अब हर साल सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि क्यों होने लगे हैं?

यदि यह सवाल समाज की आंखों के सामने खुल गया तो हमें अपने विकास की उस परिभाषा का अंतिम संस्कार करना पड़ेगा, जो प्रकृति का आठों पहर अंग-विच्छेदन कर रही है.

हमारी शिक्षा ने हमें अपने परिवेश और अपने पर्यावरण से बहुत दूर कर दिया है. ये जंगल, ये पर्वत और झरने हमें अध्यात्म का विषय लगते हैं, परन्तु इससे पहले ये भूगोल का विषय हैं और अध्यात्म भूगोल का विषय भी है.

जब इन दृश्यों को मैंने भूगोल के साथ जोड़ा तो इन पर्वतों की ऊंचाई से ज़्यादा गहराई का अंदाज़ा हुआ. वास्तव में आज भारत पृथ्वी के जिस हिस्से पर है (यानी एशिया में) बहुत साल पहले ये यहां नहीं थे.

22.5 करोड़ साल पहले यह आॅस्ट्रेलियाई तटों के आसपास तैरता एक द्वीप था. टेथिस महासागर इसे एशिया से अलग करता था. इसका जुड़ाव एशिया से नहीं था. मैं धौलागिरी अंचल के जिन ऊंचे पहाड़ों को देख रहा था, वे लाखों साल पहले कहीं अस्तित्व में थे ही नहीं.

Morigaon: Villagers sit on a boat as they are transported to safety after their houses got submerged in flood waters at Balimukh village in Morigaon district of Assam. PTI Photo(PTI7_1_2017_000189B)
असम के मोरीगांव ज़िले में आई बाढ़. (फोटो: पीटीआई)

भारत तब गोंडवाना या गोंडवाना भूमि का हिस्सा था. गोंडवाना भूमि में शामिल थे- दक्षिण के दो बड़े महाद्वीप और आज के अंटार्कटिका, मेडागास्कर, भारत, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे देशों से मिलकर बनी हुई भूमि.

गोंडवाना अंचल का अस्तित्व 57 से 51 करोड़ साल पहले माना जाता है. आॅस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने यह नाम दिया था, जिसका मतलब होता है गोंडों का जंगल.

एक बात और जानने लायक है कि आज जिस ज़मीन, जिस सीमा रेखा और राजनीतिक नक़्शे के लिए लोग लड़ रहे हैं, वह पहले ऐसा नहीं था और आगे भी ऐसा नहीं होगा. भू-भाग बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे.

फिर यह बदलाव चाहे एक या दो करोड़ सालों में ही क्यों न हो. यह कैसा राष्ट्रवाद, जबकि राष्ट्र की कोई स्थाई सीमा-रेखा ही नहीं है. बस जंगल, पहाड़, हवा, बूंद की बात कीजिए, वही हमारे अस्तित्व को ज़िंदा रखेंगे; हमारे न होने के बाद भी.

अपनी इस धरती की ऊपरी सतह को भू-पटल कहते हैं. इसमें एल्युमीनियम, सिलिकॉन, लोहा, कैल्शियम, सोडियम, पोटैशियम और आॅक्सीजन सरीखे तत्व होते हैं. भू-पटल के नीचे की सतह को स्थलमंडल कहते है. यही महाद्वीपों और महासागरों को आधार देता है. इसकी मोटाई साधारणतः 100 किलोमीटर या इससे कुछ ज़्यादा हो सकती है.

इस आवरण में मज़बूत चट्टानें होती हैं. धरती में स्थलमंडल के नीचे की परत को दुर्बलतामंडल कहते हैं. यह परत द्रवीय या तरल होती है. मज़बूत चट्टानों वाला स्थलमंडल इसी परत पर तैरता रहता है.

स्थलमंडल में बहुत मज़बूत चट्टानें होती है, जो तश्तरियों या प्लेट के रूप में होती हैं. ये तश्तरियां (जिन्हें टेक्टोनिक प्लेट कहते हैं) स्थिर न होकर गतिमान होती हैं यानी भू-गर्भीय घटनाओं और परतों की चारित्रिक विशेषताओं के कारण खिसकती रहती हैं.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi and the Chief Minister of Bihar, Shri Nitish Kumar conducting an aerial survey of flood affected areas, in Bihar on August 26, 2017.
26 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों का दौरा किया. (फोटो: पीआईबी)

टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता के कारण कई महाद्वीप मिलकर तीन लाख साल पहले विशाल पेंजिया महाद्वीप (उस समय का सबसे बड़ा महाद्वीप, जो कई द्वीपों से मिलकर बना था) बन गए थे.

स्पष्ट अर्थों में भारत तब अफ्रीका से सटा हुआ था. 20 करोड़ साल पहले धरती के अंदर ताप संचरण की क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाली भू-गर्भीय घटनाओं के कारण ये महाद्वीप टूटने लगा और छोटे-छोटे द्वीपों में बंट कर अलग-अलग दिशाओं में जाने लगे.

तब 8.40 करोड़ साल पहले भारत ने उत्तर दिशा में बढ़ना शुरू किया. अपने तब के स्थान से शुरू करके इसने छह हज़ार किलोमीटर की दूरी तय की और 4 से 5 करोड़ साल पहले एशिया के इस हिस्से से टकराया.

इस टक्कर के चलते भूमि का वह हिस्सा ऊपर की और उठने लगा. दो महाद्वीपों के टकराने से प्लेटें एक-दूसरे पर चढ़ने के कारण हिमालय बना. ज़रा सोचिए कि ऊपर उठने का मतलब क्या है? इन पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष मिलते हैं.

हिमालय श्रृंखला के पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष… इन पहाड़ों की ऊपरी सतह के गिरने से जो पत्थर निकलते हैं, वे भी ऐसे गोल होते हैं, जैसे नदियों या बहते पानी में आकार लेते हैं, यानी ये हिस्सा कभी न कभी पानी में रहा है.

माना जाता है कि भारत का भूभाग ज़्यादा ठोस था और एशिया का नरम, इसलिए एशिया का भूभाग ऊपर उठाना शुरू हुआ और हिमालय पर्वतीय श्रृंखला की रचना हुई. अन्य दूसरे पर्वतों की तुलना में यहा के पर्वतों की ऊंचाई ज़्यादा तेज गति से बढ़ी और यह अब भी हर साल एक सेंटीमीटर की दर से बढ़ रही है.

इनकी ऊंचाई बढ़ती रहेगी क्योंकि भारतीय विवर्तनिक प्लेट (टेक्टोनिक प्लेट) भूकंपों के कारण अब भी धीमी गति से किन्तु लगातार उत्तर की तरफ खिसक रही है; यानी हिमालय अभी और ऊंचा होगा.

तथ्य यह है कि हमेशा से हिमालय की ऊंचाई 1 सेंटीमीटर की गति से नहीं बढ़ रही थी. यदि यह गति होती तो 4 करोड़ सालों में हिमालय की ऊंचाई 400 किलोमीटर होती. पर्यावरणीय कारणों और अनर्थकारी मानव विकास की लोलुपता के चलते विवर्तनिक प्लेटों में ज़्यादा गतिविधि हो रही है और भूकंपों के नज़रिये से यह क्षेत्र बहुत संवेदनशील हो गया है.

प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की और ले जा रहा है. किसी को संकेतों में बात समझ आती है तो इसका मतलब यह है कि पहाड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह ख़ुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है.

हमारी शिक्षा ने हमें अपने परिवेश और अपने पर्यावरण से बहुत दूर कर दिया है. ये जंगल, ये पर्वत और झरने हमें अध्यात्म का विषय लगते हैं, परन्तु इससे पहले ये भूगोल का विषय हैं

जब किसी आधुनिक वाहन में सपाट सड़क के रास्ते हम पर्यटन के लिए निकलते हैं, तब क्या हमें कभी यह एहसास होता है कि धरती के जिस हिस्से पर हम चल रहे हैं, उसका जीवन 4 से 5 करोड़ साल का हो चुका है.

Kedarnath Flood Reuters
साल 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

वह पर्वत दो महाद्वीपों की टक्कर के कारण पैदा हुआ और ये कभी पानी में डूबा रहा होगा? यह तब तक पता नहीं चलता जब तक हम इसके साथ अपने भीतर के तत्वों को जोड़ नहीं लेते. अपने भीतर के वही तत्व, जिन्हें हम सुबह-शाम पंच तत्व कहते हैं.

साल 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में बाढ़ आई थी. ख़ुद तो देखी नहीं पर सुना बहुत और चित्र-चलचित्र भी खूब देखे. 300 गांवों के बहा ले जाने वाली धाराओं से उसकी भयावहता का अच्छी तरह से अंदाज़ा लग गया.

मैं समझ नहीं पाता था कि पहाड़ पर बाढ़ कैसे आएगी? वहां तो बारिश के पानी को रोकने के लिए कहीं कोई बाधाएं ही नहीं हैं. वहां तो पानी आना चाहिए और बह जाना चाहिए. बाढ़ यदि आए तो भी समतल इलाकों में आए, पहाड़ों में कैसे? परन्तु बात इतनी सीधी सी नहीं है.

आम तौर पर मेघ बूंदें बरसाते हैं, पर जब बादल फटते हैं तो धाराएं बरसती हैं. तो संकट की पहली तैयारी तो यह हुई कि मौसम का चक्र बदलने, ज़मीन और आकाश के रिश्तों में कड़वाहट आने (अब ज़मीन आसमान को गर्मी सौंपती है और जहरीली गैसें भी) से मेघ गुस्सा रहे हैं.

अब वे बूंदें नहीं तूफ़ान बरसाते हैं. यही उन्होंने बद्रीनाथ में किया. संकट की दूसरी तैयारी हमने उत्तराखंड के पहाड़ों में की, वहां के जंगल काट दिए और जला दिए. अब पानी की धार को कौन रोकेगा? ये धार बांधों से नहीं रुकने वाली. ये धार जल्दी ही बांधों को भी बहाकर ले जाने वाली है.

वर्ष 2013 में आई बाढ़ को अपवाद माना गया और सब सोचने लगे कि आपदा टल गई, भले ही 2-4 हज़ार की जान लेकर; पर वर्ष 2014 में आपदा फिर से आई. इस बार कश्मीर की घाटी में.

यहां भी वही बात मन में आई कि कश्मीर तो पहाड़ पर बसा है, पानी आएगा और बहकर नीचे चला जाएगा. यहां रुकेगा थोड़े, पर रुक गया और ऐसा रुका कि बस साढ़े साती की तरह जम गया… लोग कह रहे हैं साढ़े सात साल तक यह बाढ़ हर रोज़ दिन और रात हमारे साथ रहने वाली है.

An Indian Air Force helicopter flies above flooded-affected areas of Kashmir region September 13, 2014. REUTERS/India's Press Information Bureau/Handout via Reuters
कश्मीर में साल 2014 में आई बाढ़. (फोटो: रॉयटर्स)

श्रीनगर का उदाहरण लीजिए. यह एक कटोरे के रूप में बसा हुआ शहर है. झेलम नदी इसके बीच से गुज़रती है. कहीं एकाध हिस्सा था, जहां से अतिरिक्त मात्रा में आया पानी बहकर निकल जाता था.

वहां वर्ष 1902 में ऐसी बाढ़ आई थी. फिर राजनीतिक उथल-पुथल हुई और अब भी चल रही है. सबने कहा कि विकास करेंगे, इससे स्थिरता आएगी. बस इसी विकास के चलते वो नहरें और धारा बिंदु मिटा दिए गए, जहां से श्रीनगर का पानी बाहर निकलता था. वहां इमारतें बन गई. सड़कें बन गईं. तो यह चौथी तैयारी हमने की कि जब आपदा आएगी तो उसे निकलने के स्थान भी बंद कर दिए.

हम विकास का यह गीत गाते हुए खुश हो रहे थे कि प्रकृति को उल्लू बनाया, बड़ा मजा आया..! पर यह भ्रम था. असम और अरुणाचल प्रदेश में भी पिछले साल बाढ़ आई थी और कोई दो लाख लोग बर्बाद हो गए.

अगले साल फिर कश्मीर के बाद उत्तर-पूर्व में बाढ़ आ गई. यह जान लीजिए कि बाढ़ या सूखा किसी भी क्षेत्र में यदि चरम की स्थिति में जा रहे हैं और बार-बार हो रहे हैं, तो इसका मतलब है कुछ गंभीर रूप से गड़बड़ है.

यह ऐक्ट आॅफ गॉड (भगवान का किया-धरा) नहीं है. यह ऐक्ट आफ ह्यूमन बीइंग है यानी इंसान का किया-धरा. हम वास्तव में किसी को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए अब बीमा कराया जाते है और सरकार मुआवज़ा देती है.

राहत कार्यों से नदी की बाढ़, आसमान से बरसने वाले प्रलय और हिमालय की बढ़ती ऊंचाई को कुछ समझ पाएंगे क्या? हर बाढ़ अब पहाड़ों की एक परत को बहा ले जाती है. हर बाढ़ खेत की मिट्टी की सबसे ज़िंदा परत को उखाड़ कर ले जाती है.

इसका मतलब यह है कि एक बार की राहत या मुआवज़े के अब कुछ न होगा. अगले साल बाढ़ न भी आई तो खेतों में क्या और कितना उगेगा? किस सरकार या कंपनी में इतना दम है कि वह उत्तराखंड के पहाड़ों का पुनर्निर्माण करने वाली परियोजना चला सके? या किसान के खेतों के लिए अपने कारखाने में मिट्टी बना सके!

बाढ़ उतना बड़ा संकट नहीं है, संकट यह है कि हम विश्व निर्माण की मूल कथा और उसके विज्ञान को जानना नहीं चाहते हैं. जिस दिन हम यह जान लेंगे कि एक नया घर बनाते समय जो हम फेंक देते हैं, वह मलबा नहीं, बल्कि हमारे अपने अवशेष हैं. हमारा जीवन कुछ सालों का नहीं, बल्कि करोड़ों सालों का है.

(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)