चुनावी कवरेज को मीडिया ने तमाशा बना दिया है

उत्तर प्रदेश की बारी आते-आते पांच राज्यों में चुनाव की मीडिया कवरेज कई कारणों से बेहद विवादास्पद और यादगार होती गई. यह पहला मौका है जब एक फर्जी ‘एक्ज़िट-पोल’ के गैर-क़ानूनी प्रकाशन के चलते देश के एक बड़े मीडिया घराने से संबद्ध संपादक को गिरफ्तार किया गया.

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Indian press photographers stand behind a fence for security reasons as they take pictures of Belgium's Queen Paola in a school in Mumbai November 6, 2008. Belgium's King Albert II and Queen Paola are on a official state visit to India. REUTERS/Francois Lenoir (INDIA)

उत्तर प्रदेश की बारी आते-आते पांच राज्यों में चुनाव की मीडिया कवरेज कई कारणों से बेहद विवादास्पद और यादगार होती गई. यह पहला मौका है जब एक फर्जी ‘एक्ज़िट-पोल’ के गैर-क़ानूनी प्रकाशन के चलते देश के एक बड़े मीडिया घराने से संबद्ध संपादक को गिरफ्तार किया गया.

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उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के पहले चरण के बाद दैनिक जागरण द्वारा प्रकाशित एग्जिट पोल का स्क्रीनशॉट. विवाद होने के बाद वेबसाइट से हटा दिया गया था.

इसके बावजूद फर्जी ‘एक्ज़िट पोल्स’ के चुनावी इस्तेमाल का सिलसिला रुका नहीं. अभी हाल ही में यूपी के कुछेक शहरों-कस्बों में एक बड़े न्यूज चैनल (एबीपी) द्वारा कथित तौर पर कराये एक्ज़िट-पोल के नतीजे पर्चों में छपवाकर मतदाताओं के बीच बांटे गए. हालांकि उक्त चैनल ने ऐसे किसी ‘एक्ज़िट पोल’ से साफ इंकार किया.

इससे इतर, हम चुनाव के मीडिया कवरेज का जायज़ा लें तो कुछेक बेहतर अपवादों के अलावा परिदृश्य बेहद मायूस करने वाला है.

कुछ बेहतरीन अपवाद जरूर हैं पर ज्यादातर चैनलों और मीडिया के अन्य हिस्सों में चुनाव रिपोर्टिंग के नाम पर पसंदीदा पार्टियों या नेताओं के पक्ष में प्रोपगेंडा, तमाशा, हो-हल्ला, जमीनी स्तर की कहानियों (रिपोर्ट्स) से ज्यादा दिल्ली-लखनऊ के दफ्तरी-आकलन या कुछ चुनिंदा पार्टियों के चुनिंदा नेताओं के दावों और दंभ से भरे साक्षात्कार ही हावी हैं.

पांच राज्यों के चुनाव-कवरेज का एक पहलू अचरज भरा है. गोवा से लेकर यूपी तक हर राज्य की अच्छी-बुरी तस्वीरें चैनलों और अखबारों में झलकती रहीं हैं पर कुछ वेबसाइटों और कुछ लोक-प्रसारकों (चैनलों) को छोड़कर उस मणिपुर का कोई नामलेवा नहीं, जहां बेहद नाज़ुक दौर में चुनाव हो रहा है, एक तरफ नाकेबंदी, अफरातफरी, हिंसा, दैनिक उपयोग की चीजों की किल्लत और दूसरी तरफ नई सरकार बनाने की कवायद.

हर समय़ ‘ओपिनियन पोल्स’ में जुटे रहने वाले चैनलों ने मणिपुर को इस लायक भी नहीं समझा कि वहां के लोगों के बीच ‘ओपिनियन पोल’ कराए जाएं!

चुनाव कवरेज, तमाशा या प्रचार!

आमतौर पर चुनाव कवर कर रहे किसी पेशेवर पत्रकार के लिये चुनाव एक बड़े मौके के तौर पर आता है, जब वह राजधानी-महानगर की दुनिया से निकलकर गांव-कस्बे-छोटे-मझोले शहर और आम जनजीवन में दाखिल होता है.

चुनाव रिपोर्टिंग के दौरान समाज, सियासत और जीवन को उसके वास्तविक धरातल पर देखने का मौका मिलता है. लेकिन इस बार हमने क्या देखा? हिंदी-अंग्रेज़ी के ज़्यादातर चैनलों की रिपोर्टिंग तमाशे या प्रचार की तरफ झुकी दिखी.

कोई चुनाव जैसी गंभीर और महत्वपूर्ण राजनीतिक परिघटना की रिपोर्टिंग को कपिल शर्मा मार्का हंसी-मजाक और लतीफ़ेबाज़ी की तरफ खींचता दिखा(बड़े कारपोरेट घराने द्वारा संचालित हिंदी का एक प्रमुख न्यूज चैनल) तो कोई एक ही पार्टी के छोटे-मझोले-बड़े नेताओं के इर्दगिर्द समेटता दिखा (हिंदी-अंग्रेज़ी के अधिसंख्य निजी चैनल).

11 फऱवरी को यूपी के पहले चरण के मतदान के दौरान देश के प्रमुख टीवी चैनल का एक रिपोर्टर अपनी टीम के साथ पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख शहर में घंटों तैनात रहा. लेकिन उसने कवर क्या किया?

सिर्फ भाजपा के एक उभरते हुए प्रमुख नेता (जो उक्त इलाके से उम्मीदवार भी थे) और उनकी धर्मपत्नी का इंटरव्यू! एक अन्य राष्ट्रीय (अंग्रेज़ी)न्यूज चैनल के एक वरिष्ठ संवाददाता को 13 फरवरी की शाम मुरादाबाद से रिपोर्टिंग करते देखकर हंसी आ रही थी.

पूरे आधे घंटे में वह सिर्फ मुरादाबाद के एक अपेक्षाकृत संभ्रांत शहरी इलाके में मध्यवर्गीय परिवारों के स्त्री-पुरूष मतदाताओं से बात करता रहा. मोदी जी, राहुल जी और अखिलेश जी को लेकर सवाल पूछता रहा. शायद, उसे अंदाज़ा नहीं था कि जहां से वह रिपोर्ट कर रहा है, वह शहर देश में ‘पीतल-नगरी’ के नाम से विख्यात है. उसकी रिपोर्टिंग में कहीं इस बात की पड़ताल नहीं दिखी कि नोटबंदी का यहां के उद्योग-धंधे पर क्या और कैसा असर पड़ा है?

उससे मतदाताओं (उद्योगों के मालिकान, उन उपक्रमों के मजदूरों, शहर के आम निम्नमध्यवर्गीय लोगों और आसपास की गरीब बस्तियों) के समाजशास्त्र और राजनीतिक रूझान में क्या कोई तब्दीली आई है?

चौराहे पर गोलगप्पे खाती औरतों से कुछ पूछपाछ कर वह अपनी रिपोर्टिंग का समापन करने लगा तो उसे अचानक याद आया कि यहां सभी पार्टियों के बारे में बात हुई पर मायावती जी की बसपा का तो जिक्र ही नहीं आया.

फिर उसने चलते-चलते वहां एकत्र लोगों से पूछाः ‘अच्छा, यहां कोई हाथी वाला है क्या?’ ज्वेलरी, गारमेंट्स और स्वीट्स-गोलगप्पे की दुकानों वाले इस नुक्कड़ पर भला बसपा के समर्थक कहां से मिलते? इस तरह देश के एक प्रमुख अंग्रेज़ी चैनल के रिपोर्टर ने मुरादाबाद की अपनी रिपोर्ट पूरी की.

पसंद के नेता-पसंद की जनता

न्यूज़ चैनलों और अखबारों में इस बात की होड़ सी लगी रही कि सत्ताधारी दल के प्रमुख नेताओं के सबसे ज्यादा इंटरव्यू कौन करता और कौन छापता है? कुछ चैनलों और अखबारों ने तो लगातार दो दिनों तक एक ही नेता के इंटरव्यू छापे.

यूपी के चुनाव मैदान में उतरे दूसरे दलों के नेताओं के इंटरव्यू यदाकदा दिखे. एक इंटरव्यू का शीर्षक बना उक्त नेता का यह दावा कि यूपी में इस बार भाजपा के पक्ष में 2014 के लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा बड़ी लहर है! एक में शीर्षक था-दो-तिहाई बहुमत से वह पार्टी जीत रही है.

इंटरव्यू के अहम हिस्से पहले पेज पर और विस्तार से अंदर! खुश करते सवाल और चुनाव जीतते जवाब! इनमें किसी ने अब तक बसपा प्रमुख मायावती, अखिलेश यादव या राहुल गांधी के इंटरव्यू नहीं छापे हैं!

न्यूज़ चैनलों में इन दिनों आडियंस-आधारित कार्यक्रमों की भारी भीड़ है. कोई बनारस जाता है तो गंगा घाट पर ‘महफ़िल’ सजा लेता है! कोई लखनऊ होता है तो इमामबाड़ा या विधानसभा के आसपास सेट लगा लेता है.

यही हाल पंजाब की टीवी रिपोर्टिंग के दौरान भी देखा. लेकिन ऐसे आडियंस-आधारित कार्यक्रमों में एक बड़ी दिलचस्प समानता है.

यूपी चुनाव आधारित एक ऐसे ही कार्यक्रम के दौरान बहस में हिस्सा लेने वाले एक अतिथि-वक्ता ने एक खास दल की तरफ बुरी तरह झुकी एंकर से लाइव कार्यक्रम में शिकायत कर डाली, ‘आप हमें बोलने नहीं दे रही हैं और जिस तरह की आडियंस बुलाई है, उसमें दलित-अल्पसंख्यक नदारद हैं! फिर कैसे कह सकती हैं कि आपकी बहस निष्पक्ष और आपकी आडियंस जनमत की नुमाइंदगी करती है?’

प्रायः सभी चैनलों के साथ यह समस्या है. वे आडियंस-आधारित कार्यक्रम बड़े चाव से करते हैं पर दर्शक-श्रोताओं की नुमायंदगी करता जिस तरह का समूह वे अपने चैनल के स्टूडियो, किसी सितारा होटल या किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर बुलाते हैं, वह कहीं से भी प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं दिखता.

ऐसे चयनित समूहों में आमतौर पर दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक नदारद होते हैं. ऐसे में पूछे जाने वाले सवालों और लोगों की प्रतिक्रियाओं में वैसी विविधता नहीं दिखती, जैसी समाज में होती है. इन दिनों ज्यादातर चैनलों ने अपनी प्राइमटाइम बहसों में एक खास ढंग का ढर्रा तय कर लिया है.

पार्टियों के प्रतिनिधि बुलाये जाते हैं. इसमें शामिल होते हैं, कांग्रेस-भाजपा आदि के प्रवक्ता और अक्सर मौजूद रहता है कोई न कोई संघ-विचारक!

15 फरवरी का मतदान और अंग्रेज़ी में शशिकला

यूपी की 67 सीटों और संपूर्ण उत्तराखंड में 15 फऱवरी को मतदान चल रहा था. लेकिन अंग्रेज़ी के चैनलों ने उस दिन भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट से दंडित की गईं दिवंगत जयललिता की निजी सहयोगी रहीं अन्नाद्रमुक की नवनियुक्त महासचिव शशिकला की चेन्नई-बंगलुरू जेल-यात्रा के एक-एक पहलू, एक-एक क्षण को सुबह से रात तक प्रसारित किया.

दक्षिण भारत के एक से एक अहम मसलों और घटनाक्रमों को हमेशा नज़रअंदाज़ करते रहने वाले इन राष्ट्रीय चैनलों को उस दिन तमिलनाडु के अलावा कुछ भी सूझ नहीं रहा था. मैं यह नहीं कहता कि वह महत्वपूर्ण घटना नहीं थी. लेकिन सुबह से देर रात तक वही क्यों?

हाल के दिनों में जयललिता के ऩिधऩ और जल्लीकट्टू विवाद के कवरेज के बाद यह पहला मौका था, जब सारे अंग्रेज़ी चैनलों को शशिकला-मय होते देखा गया. इनमें शायद ही किसी ने तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में व्याप्त भीषण सूखे और किसानों की त्रासदी को कभी कवर किया हो!

चेन्नई की भीषण बाढ़ और उसकी वास्तविक वजहों पर भी इनका ध्यान काफी देर से गया. ज्यादातर चैनल शशिकला को एमजीआर और जयललिता के स्मारकों पर नमन करते समय किसी महानायक की तरह दिखा रहे थे.

अल्पसंख्यक-कतारों पर कैमरा निगाहें

मेरे एक दोस्त ने बताया कि पश्चिम यूपी के एक कस्बे में वोट डालने जाती मुस्लिम औरतों को कुछ टीवी और अखबार वाले एक साथ लाइन में खड़े होने की सलाह देते पाए गए ताकि उन्हें इनका ‘बढ़िया विज़ुअल’ मिल सके!

टीवी की कैमरा टीमें हों या अखबार के फोटोग्राफर, इनमें कइयों को ‘टोपी वालों’ य़ा ‘बुर्क़े वालियों’ की खास एंगिल से तस्वीरें लेते देखा गया. पश्चिम के ऐसे कई संवेदनशील इलाकों के लोगों का मानना है कि इस तरह की तस्वीरें टीवी पर दिखाने से कुछ निहित स्वार्थी तत्वों को समाज में एक तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में मदद मिलती है.

सवाल है, इस तथ्य से अवगत होने के बावजूद हमारे न्यूज़ चैनलों में इस तरह की तस्वीरों को बार-बार दिखाने और रिपोर्टर को यह जोर-शोर से बताने की क्या जरूरत पड़ती है कि इस वक्त अमुक क्षेत्र या अमुक बूथ पर अल्पसंख्यक समाज के मतदाता बहुत भारी संख्या में वोट देने पहुंच गए हैं!

रैली का लाइव-कवरेज बनाम आयोग की खामोशी!

पिछले दो-तीन चुनावों की तरह इस बार भी यह नजारा हर फेज़ में दिखा. निर्वाचन आयोग की आचार संहिता के मुताबिक 48 घंटे पहले मतदान वाले क्षेत्र में प्रचार बंद हो जाता है. लेकिन लाइव-टीवी प्रसारण के मौजूदा दौर में क्या वाकई आयोग की आचार संहिता का पालन हो पाता है?

हम बार-बार देखते आ रहे हैं कि जिस दिन कहीं मतदान हो रहा है, उसी दिन किसी अन्य इलाके में (जहां मतदान कुछ समय बाद होना है) किसी बड़े नेता की रैली हो रही है, रोड-शो हो रहे हैं या प्रेस वार्ताएं होती रही हैं और सभी प्रमुख चैनल उसका लाइव-प्रसारण कर रहे हैं.

राजनेता इसे अंजाम देते हैं, चैनल इसे प्रसारित करते हैं और आचार संहिता बनाने वाला निर्वाचन आयोग इसकी अनदेखी करता है!

आम तौर पर इस मामले में सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं बड़े दल और बड़े नेता. उऩका लाइव-प्रसारण ज्यादातर चैनल करते हैं. क्षेत्रीय दलों के नेताओं या विपक्ष के अन्य राष्ट्रीय नेताओं के प्रसारण आमतौर पर नहीं होते या बहुत कम होते हैं. इस मामले में मीडिया और आयोग, दोनों अपनी-अपनी जवाबदेही से बचते आ रहे हैं.

फेक न्यूज के दौर में ‘जागरण’ के एक्ज़िट पोल के मायने

इस बार के चुनाव कवरेज की सबसे चिंताजनक घटना है-जागरण ग्रुप की अंग्रेज़ी वेबसाइट पर आयोग की पाबंदी के बावजूद एक्ज़िट पोल का आना और ‘द वायर’ के खुलासे के बाद साइट से हटाया जाना.

यानी खुलासा न होता तो शायद वह नहीं हटती! जब तक वह हटती, तब तक उसे असंख्य लोगों ने देख लिया था. यूपी में कुछ लोग उसे पर्चे में और सोशल मीडिया पर प्रसारित करते रहे.

यही नहीं, देश के एक प्रमुख नेता को यूपी की अपनी रैलियों में कहते सुना गया,‘दो-दो सर्वेक्षणों ने पिछले चरण के मतदान में हमें आगे दिखाया है, हम जीत रहे हैं.’

जागरण वेबसाइट से उक्त खबर के हटाए जाने के कुछ देर बाद वेबसाइट के संपादक की गिरफ्तारी और कुछ घंटे बाद जमानत पर रिहाई हुई. तीन अन्य़ लोगों का नाम भी प्राथमिकी में है पर उनके खिलाफ ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया.

जागरण ग्रुप के प्रधान संपादक का कहना था कि इसके पीछे विज्ञापन विभाग की भूमिका है. फिर तो साफ है कि मसला ‘पेड न्यूज़’ का हो सकता है. ऐसे में सवाल उठता है, संपादक को बलि का बकरा क्यों बनाया गया? असल गुनहगारों पर कार्रवाई क्यों नहीं?

विज्ञापन विभाग को ये एक्ज़िट पोल-नुमा सर्वे किसने दिये? किसके आदेश पर वे वेबसाइट के लिये मंजूर हुए? किसने ख़बर बनाई और किसके आदेश से साइट पर डिस्प्ले हुई? इस बारे में अब तक जागरण ग्रुप या आयोग की तरफ से कोई संतोषजनक जांच सामने नहीं आई है.

जागरण ग्रुप के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मेरे एक सवाल के जवाब में सिर्फ इतना कहा,‘यह एक गंभीर चूक थी, जो सुधार ली गई.’ देखना है आयोग इसे चूक मानता है या अपराध!

अचरज की बात, इस मसले पर संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड, प्रेस काउंसिल, पत्रकारों के संगठन और ज्यादातर मीडिया घराने खामोश रहे! चैनलों पर खबर तक नहीं चली. ले-देकर कुछ ही अखबारों ने खबर चलाई.

पंजाब में अलग ढंग का मीडिया-नियोजन और प्रबंधन देखा गया. वहां केबल नेटवर्क और अन्य प्रसारण-प्लेटफॉर्म्स पर एक खास राजनीतिक दल का कब्जा सा है. उसके जरिये वहां न्यूज़ चैनलों पर विपक्षियों की खबरें कम से कम चलाई गईं.

ये घटनाक्रम सिर्फ हमारी सियासत पर नहीं, मीडिया पर भी गंभीर सवाल उठाते हैं. क्या हम सचमुच आज नियंत्रित मीडिया, फेक न्यूज़ और पेड सर्वेक्षणों के खतरनाक दौर में दाखिल हो चुके हैं?

क्या ऐसे दौर में हमारे जैसे विकासशील लोकतंत्र के लिये यह बड़ा खतरा नहीं है? भारत में हम सब बहुत गर्व से मीडिया या पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते हैं.

फिर इस खंभे का इस्तेमाल अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हेरा-फेरी के लिये क्यों और कैसे हो रहा है? 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ अच्छी अख़बारी, वेब रिपोर्टिंग और कुछेक बेहतर कवरेज के बावजूद फेक न्यूज़ और पेड न्यूज़ जैसे बड़े खतरे भी उभर कर सामने आये हैं.

मीडिया के संगठित इस्तेमाल की सियासी और कॉरपोरेट साजिशों को रोके बगैर इन खतरों से निपटना संभव नहीं!

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