‘रामदेव के गुरु जब हरिद्वार में साइकिल से भटक रहे थे, उनके शिष्य ज़मीन-गाड़ियां खरीद रहे थे’

योगगुरु से उद्योगपति के रूप में उभरे बाबा रामदेव पर प्रियंका पाठक नारायण से उनकी किताब ‘गॉडमैन टू टाइकून’ के बारे में बातचीत.

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बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण. (फोटो साभार: फेसबुक/पतंजलि )

एक योगगुरु से उद्योगपति के रूप में आश्चर्यजनक रूप से उभरे बाबा रामदेव पर प्रियंका पाठक नारायण से उनकी किताब ‘गॉडमैन टू टाइकून’ के बारे में बातचीत.

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फोटो: रॉयटर्स

सन् 2002 में जब से रामकिसन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने संस्कार टीवी पर पेट घुमाने वाला योग शुरु किया, तब से वे भारत की सबसे लोकप्रिय छवियों में शुमार हो गए. गहन शोध पर आधारित अपनी किताब में प्रियंका पाठक नारायण ने लिखा है कि ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के अनुसार पतंजलि का साप्ताहिक विज्ञापन निवेश जनवरी 2016 के पहले सप्ताह में 11, 9 7 7 था, जो कि 25 मार्च तक बढ़कर दोगुना यानी 24,050 हो गया.

इसी दौरान रामदेव लगभग 2,34, 934 बार टीवी चैनलों पर थे. यानी हर 30 सेकेंड में वे किसी न किसी चैनल पर मौजूद थे. आज पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड भारत में शीर्ष दस विज्ञापनदाताओं में से एक है और व्यापक पहचान पा चुका रामदेव का चेहरा किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है.

हालांकि हम इस बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं कि हरियाणा के सबसे गरीब जिलों में से एक सैयद अलीपुर का यह दुबला-पतला, कमजोर-सा लड़का कैसे ऐसा बन गया कि आज वह अपने चाइना मेड आईफोन से चीनी सामान के बहिष्कार के बारे में ट्वीट करता है, जो महिलाओं के कपड़े (जो संदिग्ध रूप से एकदम सही नाप के थे) पहनकर पुलिस के छापे से बचकर भागने के बावजूद राष्ट्र को बहादुरी का पाठ पढ़ाता है, उस समय भी विश्वास और स्वाभिमान की बात करता है, जबकि उसके अधिकांश विज्ञापन गुमराह करने वाले हैं!

लेकिन इन तमाम विरोधाभासों के बावजूद बाबा रामदेव लगातार शक्तिशाली होते चले गए. वे राजनेताओं से बात करते हैं, जिसे राजनेता सुनते भी हैं. वे सेना के लिए योग शिविर का आयोजन करते हैं, जबकि पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड तो पहले से ही तेजी से बढ़ते उपभोक्ता बाज़ार में एक बड़ा नाम बन चुका है, जिसका आगामी लक्ष्य बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ गठबंधन का है. ये अलग बात है कि रामदेव की शाखाएं घरेलू श्रेणी में माल बेचने की दौड़ से बाहर हैं.

प्रियंका नारायण की किताब ‘गॉड मैन टू टाइकून’ उनकी कहानी कहने या कम से कम उसे दस्तावेज़ों में दर्ज़ करने के लिए ख़ासी मशक्कत करती दिखाई पड़ती है, लेकिन फिर भी कई सुराख़ बाक़ी रह जाते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि जहां संबंधित व्यक्ति के जन्म के स्पष्ट रिकॉर्ड ही मौजूद न हों, वहां गुंजाइश तो रह ही जाती है.

उनकी शिक्षा और शुरुआती करिअर पर तमाम तरह के मिथकों और संकेतों का परदा पड़ा हुआ हैं, जिसे यह किताब हत्या, भ्रष्टाचार, कॉर्पोरेट टेकओवर और रहस्य से लिपटे एक तेजी से घटित होते सनसनीखेज नाटक की तरह पढ़ती है. यह अपने ही तरीके का एक अनिवार्य दस्तावेज है कि भारत कैसे काम करता है. ख़ासतौर पर भारतीय उद्योग. हम टाटा की कहानियां जानते हैं. पॉलिएस्टर प्रिंस और गैस वॉर्स जैसी किताबें हमें रिलायंस के कामकाज के बारे में बताती हैं, लेकिन अब एक नई चुनौती सामने है- किसी बेहद दूर की एक छोटी-सी जगह से आया व्यक्ति पूरे भारत का ध्यान खींच रहा है. हमें पता होना चाहिए कि वह कौन है और वह अपने इस मुक़ाम तक कैसे पहुंचा.

द वायर  ने प्रियंका नारायण से उनकी किताब के बारे में बात की.

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गॉडमैन टू टाइकून/ प्रियंका पाठक नारायण | जगरनट पब्लिकेशन

सबसे पहले किताब के लिए बधाई… ऐसा लगता है कि इस किताब के लिए अपने कड़ी मेहनत और खोजबीन की है. क्या इस बारे में थोड़ा बताना चाहेंगी कि आपको यह विचार कैसे आया? कैसे इस पर काम शुरू किया और बाबा रामदेव के अतीत की पड़ताल करना कितना आसान या मुश्किल रहा?

धन्यवाद. यह एक बढ़िया अनुभव था. मिंट अख़बार में धर्म के बाज़ार पर रिपोर्टिंग करने के समय से ही मैं भारत के कुछ शीर्ष संतों और उनके उद्योगों के बारे में एक किताब लिखने की सोच रही थी. मैंने ये आईडिया रखा, फिर अप्रैल 2016 में मेरी प्रकाशक चिकी सरकार ने विशेष रूप से बाबा रामदेव और पतंजलि पर किताब लिखने को कहा.

पतंजलि ने उत्पाद बाज़ार में हलचल मचा रखी थी. 2007-2009 में उनके बारे में लिखने के कारण मैं उनकी ज़िंदगी बदलने वाली कई घटनाओं, उनके ख़ुद को फिर से गढ़ लेने, गठबंधन से फिर से तालमेल बिठाने और हमेशा शीर्ष पर आने के हुनर के बारे में भी जानती थी.

हालांकि मुझे लगता था कि मैं पहले से ही उनकी उनके जीवन के बारे में सोच जानती हूं. यह दिलचस्प था, लेकिन अस्पष्ट और धुंधला. उनसे हुई मुलाकातों मे मुझे हमेशा यही लगा कि मैं उन्हें समझ नहीं पा रही या जानती हूं कि कौन सी बात उन्हें प्रेरित करती है.

मुझे बस ऐसा महसूस होता था कि असल कहानी कहीं यादों में छुपी हुई थी. उन लोगों के अनुभवों में, जो उनके जीवन के गवाह थे या उसका हिस्सा. वही लोग मुझे तफ़सील से बता सकते थे कि घटनाएं कैसे घटित हुईं. मुझे लगता था कि उन संदर्भों के बिना बाबा रामदेव के इस तरह उभरने को समझ पाना मुश्किल होगा.

कुछ स्रोत खोजने में बहुत आसान थे. कुछ को पहचानने और तलाश करने में कई महीने लगे. मुझसे एक सवाल लगभग सभी ने किया कि ‘आप उनके पक्ष में लिख रही हैं या उनके ख़िलाफ?’ जब मैं जवाब देती कि ‘मेरे पास कोई पक्ष नहीं है. मैं केवल उनकी कहानी को सुनना चाहती हूं. वो कहानी जो आपको याद है,’ तो कोई भी मुझ पर विश्वास नहीं करता था.

फिर भी सभी ने मुझसे बात की और मुझे उन लोगों से मिलवाया जो बात करना चाहते थे. ऐसा लगता था कि जैसे वो इसी इंतज़ार में थे कि कोई उनके दरवाज़े पर दस्तक दे और उनसे उनकी कहानी पूछे. वे सभी उस वक़्त से जुड़ी अपनी यादें साझा करने के लिए तैयार थे, जब बाबा रामदेव के साथ थे या उनके बढ़ते साम्राज्य के आसपास.

रामदेव और बालकृष्ण दोनों ही अल्प-शिक्षित हैं, जिसमें बालकृष्ण के खिलाफ़ तो सीबीआई ने फर्जी डिग्री के लिए केस भी दाख़िल किया है- ऐसा लगता है कि कर्मवीर ने उन्हें दिशा दिखाई, उन्हें साथ लाये और उन्हें स्थापित करने के लिए अपने संपर्कों का इस्तेमाल भी किया. इस बारे में कुछ और बताएं.

कर्मवीर, कठोर दिखने वाले, गंभीर चेहरे वाले साधु एक शिक्षित और विद्वान व्यक्ति हैं. उन्होंने भारत के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी महाविश्वविद्यालय से तीन डिग्रियां ली हैं. वे महाराष्ट्र और अब उत्तराखंड में छोटे आश्रम चलाते हुए अपना समय इन दोनों जगहों के बीच बिताते हैं और निशुल्क योग शिविर का आयोजन करते हैं. अपना एक-एक शब्द वे खूब सोच-समझकर बोलते हैं.

जो कुछ भी हुआ है उसके बावजूद, वे लगातार बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण का ध्यान रखते हैं और कहते हैं कि अगर वो दोनों कभी भी मुसीबत में होंगे, तो मैं उनकी मदद के लिए जो भी कर सकूंगा, ज़रूर करूंगा.

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बालकृष्ण के साथ बाबा रामदेव (फोटो: रॉयटर्स)

कर्मवीर के अपना शिष्य बनाने से इनकार करने के बाद रामदेव शंकर देव के शिष्य के रूप में कृपालु बाग आश्रम पहुंचे. शंकर देव और  उनकी अचानक हुई मौत के बारे में कुछ बता सकती हैं?

शंकर देव हर तरह से एक सीमित महत्वाकांक्षा वाले बूढ़े और शांत व्यक्ति थे. उनके आश्रम में एक फलों का बाग था, जो उन्हें उनके गुरु से विरासत में मिला था. उन्होंने कुछ किरायेदार भी रख रखे थे, जो वहां ऐसे ही रहते थे जैसे वो यहां के मालिक हों.

मेरे ख़्याल से शंकर देव को लगता था कि शिष्यों का होना उनके के लिए फायदेमंद होगा क्योंकि ये शिष्य उन्हें किरायेदारों से छुटकारा दिलाने में मदद करेंगे, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करेंगे और गुरु-शिष्य परंपरा को ज़िंदा रखने में भी उनकी मदद करेंगे.

इसीलिए उन्होंने कर्मवीर और उनके सहयोगियों पर ध्यान देना शुरू किया. फिर इन सबने साथ मिलकर एक नया ट्रस्ट गठित किया, जिसका आधिकारिक पता ‘कृपालु बाग आश्रम’ लिखा गया. 12 साल बाद ये आश्रम जो उन्होंने अपने शिष्यों को वसीयत में दिया था, काफी प्रसिद्ध हो गया. देशभर से लोग वहां आते, लेकिन शंकर देव खुश नहीं थे.

लोग बताते हैं कि दुखी शंकर देव हरिद्वार की गलियों में कभी रिक्शा, तो कभी साइकिल से भटकते थे, वहीं उनके शिष्य एकड़ों ज़मीन और फैंसी गाड़ियां खरीद रहे थे.

फिर शंकर देव को स्पाइनल ट्यूबरक्लोसिस हो गया था, इस बीमारी में भीषण दर्द पीड़ा होती है. संभव है कि उनकी उदासी की वजह यह दर्द हो, हर पल साथ रहने वाला सतत दर्द. मगर जब उनकी देखभाल करने वाले एक स्थानीय डॉक्टर से मैंने बात की तो पाया कि इस बात का कोई सबूत नहीं हैं कि शंकर देव को कभी इलाज या देखभाल के लिए किसी बड़े अस्पताल में ले जाया गया हो. हालांकि इस बात का भी कोई निश्चित सबूत नहीं है कि उन्हें शहर के किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया गया.

यह भी मुमकिन है कि शंकर देव के अकेलेपन और पीड़ा की जड़ें कहीं और थीं. सच जो भी रहा हो, ऐसा लगता है कि अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने के बारे में वे बेहद परेशान हो चुके थे. 2005 की एक सुबह वे एक रहस्यमयी चिट्ठी, जो जवाब से ज़्यादा सवाल उठाती है,  पीछे छोड़कर कहीं चले गए और कभी वापस नहीं आए. हो सकता है कि वो दर्द, जिसका कारण जो भी रहा हो, आखिरकार असहनीय हो गया होगा.

यह एक ऐसा रहस्य है जिसका ज्ञात जानकारी के आधार पर कोई जवाब नहीं दिया जा सकता. हो सकता है कि कभी इस रहस्य से पर्दा उठाने वाली कोई बात या व्यक्ति सामने आए. मगर तब तक हमें बाबा रामदेव की कहानी में इस रहस्य के होने को स्वीकार करना ही होगा.

संस्कार और आस्था जैसे धार्मिक चैनलों ने रामदेव को स्थापित किया. संस्कार को तो रामदेव ने टीवी पर उनके शुरुआती दौर के लिए पैसे भी दिए थे. आज रामदेव आस्था चैनल के मालिक हैं. उन्होंने इसे कैसे हासिल किया?

आस्था के मालिक किरीट मेहता थे. यह एक बहुत ही उलझी हुई कहानी है, जिसे कुछ शब्दों में बयान करना मुश्किल है, लेकिन इस कहानी को उनके शब्दों में सुनने के लिए आपको किताब पढ़नी होगी.

स्वदेशी अभियान के संचालक राजीव दीक्षित वही व्यक्ति थे, जिन्होंने रामदेव को राजनीति की इस ख़ास शैली से परिचित करवाया. उनकी अचानक रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गई. उनका पोस्टमार्टम क्यों नहीं हुआ?

मुझे नहीं पता. इसकी मांग तो की गई थी. तक़रीबन पचास लोगों ने पोस्टमार्टम की मांग से संबंधित एक अभियान में हस्ताक्षर करके, उसे बाबा रामदेव को सौंपा भी था. उनमें से नौ लोग दीक्षित के अंतिम संस्कार की सुबह रामदेव के कमरे में घंटेभर तक पोस्टमार्टम करवाने के लिए बहस कर रहे थे.

यह गुत्थी केवल बाबा रामदेव ही सुलझा सकते हैं- कि उस सुबह उन्होंने क्या किया.

ऐसा भी लगता है कि ऊंचे पद वालों से हमेशा रामदेव की दोस्ती रही है. उनके ख़िलाफ हुए पहले टैक्स मुक़दमे और उसमें उत्तराखंड के राज्यपाल और कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की भूमिका के बारे में बता सकती हैं?

दिव्य फार्मेसी द्वारा सेल्स टैक्स चोरी पर बने जांच दल को सेल्स टैक्स अधिकारी जितेंद्र राणा देख रहे थे. उस साल आश्रम के कर्मचारियों को एक दिन में 22 लाख रुपये की कमाई गिनने की बात याद है. तहलका की रिपोर्ट के अनुसार जांच अधिकारी राणा ने यह साबित करने के लिए कि दिव्य फार्मेसी ने कम से कम 5 करोड़ रुपये की टैक्स चोरी की है, लगभग दो हज़ार किलो कागज़ बतौर सबूत इकट्ठे किए थे.

उन्होंने एक छापा भी मारा, जिसके तुरंत बाद वे बैकफुट पर आ गए. राज्यपाल, जो बाबा रामदेव के दोस्त थे, ने जांच की मांग की और बार-बार राणा को स्पष्टीकरण देने को कहा. स्थितियां इतनी ख़राब हो गई कि राणा ने समय से पहले रिटायरमेंट का फैसला कर लिया. जहां तक मुझे पता है, ये मामला आगे नहीं बढ़ पाया था.

रामदेव ने विश्व हिंदू परिषद और कांग्रेस के साथ काम किया, उनकी भाजपा और समाजवादी पार्टी से दोस्ती है. सहारा समूह के सुब्रत रॉय के वित्तीय सलाहकार उनका मार्गदर्शन करते हैं. वे यह सब संभालते कैसे हैं?

मैं भी यही जानना चाहती हूं! लेकिन मैं बाबा रामदेव की लोगों को आकर्षित करने की क्षमता की तारीफ करना चाहूंगी. अपने थोड़े से मज़ाकिया अंदाज़ के चलते वह बड़ी आसानी से ख़ुद को लोगों का प्रिय बना लेते हैं. रामदेव के इस हुनर से प्रभावित एक शीर्ष राजनीतिज्ञ ने मुझसे कहा कि रामदेव बहुत स्नेही हैं और आपसे इस कदर जुड़ाव रखते हैं कि मैं उनके बारे में अच्छा सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूं.

मैं भी यह मानती हूं.

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प्रधानमंत्री मोदी के साथ (फोटो: रॉयटर्स)

किताब में लिखा है कि पतंजलि और रामदेव ने वादा किया है कि उनकी दवाएं कैंसर, एचआईवी- यहां तक कि समलैंगिकता का भी निदान कर सकती हैं. क्या इन दावों के लिए उनके ख़िलाफ़ कोई मुकदमा हुआ है?

नहीं, जहां तक मेरी जानकारी है, अब तक तो नहीं.

रामदेव के भविष्य के बारे में क्या सोचती हैं?

जहां मैं हूं, वहां से देखने पर मुझे ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव तलवार की धार पर चल रहे हैं. उनके करीबियों में कुछ ऐसे लोग हैं, जिनसे दूरी बरतनी चाहिए, बढ़ती प्रतिद्वंद्विताओं को संभाला जाना चाहिए. अब यह पूरी तरह से उनकी पसंद पर निर्भर करता है, खासकर उन सलाहकारों की- कि किस पर वे भरोसा करें, किसे अपना साम्राज्य चलाने की इजाज़त दें और किसका साथ छोड़ दें. इन सवालों के जवाब ही उनका और उनकी विरासत का भविष्य तय करेंगे.

इस साक्षात्कार को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. उपमा ऋचा द्वारा हिंदी में अनूदित.

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