कोविड संकट: क्या सरकार की आलोचना से देश की छवि बिगड़ती है

कोविड प्रबंधन की आलोचना को मोदी सरकार छवि ख़राब करना बता रही है. हालांकि देश की छवि तब भी बिगड़ती है, जब प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में प्रतिद्वंद्वी महिला मुख्यमंत्री को ‘दीदी ओ दीदी’ कहकर चिढ़ाने पर उतर आते हैं. वह तब भी बिगड़ती है, जब उनके समर्थक हत्यारी भीड़ में बदल जाते हैं या बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगे लहराकर जुलूस निकालते हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

कोविड प्रबंधन की आलोचना को मोदी सरकार छवि ख़राब करना बता रही है. हालांकि देश की छवि तब भी बिगड़ती है, जब प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में प्रतिद्वंद्वी महिला मुख्यमंत्री को ‘दीदी ओ दीदी’ कहकर चिढ़ाने पर उतर आते हैं. वह तब भी बिगड़ती है, जब उनके समर्थक हत्यारी भीड़ में बदल जाते हैं या बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगे लहराकर जुलूस निकालते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

सरकारों के खेल भी निराले होते हैं! खासकर नाकाम सरकारों के. इसे यूं समझ सकते हैं कि इन दिनों के हमारे सत्ताधीश विपक्ष में हुआ करते थे तो इनकी कारस्तानियों से निपटती-निपटती थक जाने वाली सरकारें इन पर देश तोड़ने की कोशिशों का ‘महाभियोग’ लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती थीं. शायद उन्हें लगता था कि इसके बाद जनता खुद इनसे निपट लेगी.

तब इनके समर्थक बचाव में कहा करते थे कि देश कोई ककड़ी या खीरा नहीं है. लेकिन अब, जब इन्होंने अपने तईं ‘अपनी जनता’ बनाकर, सब कुछ बदल डालने के वायदे पर, सत्ता हथियाकर उसकी उम्र सात साल कर ली है, तो भी, जैसे ही कोई इनके किसी फैसले या कदम का विरोध अथवा किसी कमजोरी की ओर इंगित करता है, पुरानी सरकारों की ही लीक पर चलते हुए, ये उस पर देश को बदनाम करने या उसकी छवि बिगाड़ने की तोहमत चस्पां करने लगते हैं.

हालांकि इनका अपना इतिहास यह है कि स्वर्गीय राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रीकाल में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के कथन ‘मेरा भारत महान’ को नारे के तौर पर आगे बढ़ाना शुरू किया तो इन्होंने इस हद तक उसका मजाक उड़ाया कि उन्हें कहना पड़ा था, ‘मेरा भारत महान है, इनका बेईमान होगा.’

पिछले दिनों विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने कोरोना से लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की काहिलियां गिनाते हुए कह दिया कि उनके चलते देश में ‘कोविड’ वायरस ‘मोविड’ में बदल गया है, अस्पतालों में बेड, दवाओं, इंजेक्शनों, उपकरणों व ऑक्सीजन वगैरह की कमी के कारण जाने गंवाने वालों के परिजनों के लिए यह ‘मोदी मेड पैंडेमिक’ और हम सब के लिए ‘भारत की बदनामी का सबब’ है, तो सरकार और सरकारी पार्टी के प्रवक्ताओं की ओर से यही ‘जवाब’ आया कि वह विदेशों में देश की उस छवि के ध्वंस पर आमादा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सात सालों में बड़े जतन से गढ़ी है.

इस ‘जवाब’ से थोड़ा बहुत सहमत हुआ जा सकता था, अगर कांग्रेस के किसी नेता या प्रवक्ता ने विदेश जाकर किसी मंच से या कहीं विदेशियों को संबोधित करते हुए उक्त बातें कही होतीं, जिससे लगता कि वह देश के अंदरूनी तौर पर विभाजित होने का संदेश दे रही है.

देश में सरकार के किए-धरे पर उंगलियां उठाकर उसे बेनकाब करना और जवाब मांगना तो उसका फर्ज है क्योंकि जिन मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी को सरकार चलाने के लिए चुना है, उन्होंने ही उसे विपक्ष की भूमिका सौंप रखी है. इसलिए विपक्ष को स्वतंत्र रूप से उसकी भूमिका का निर्वाह करने देने से देश की छवि खराब नहीं होती, वरन उसके लोकतंत्र का गौरव बढ़ता है.

सरकार उसकी आलोचना के आईने में अपनी शक्ल देख सके, तो उसे राजकाज चलाने में आसानी होती है, सो अलग. वह छवि तो तब खराब होती है, जब सरकार बगलें झांकती हुई यह जताने लगती है कि उसके पास कोई जवाब नहीं है.

यहां एक और बात काबिलेगौर है. यह कि कांग्रेस अपनी पुरानी आदत के अनुसार इस आलोचना में भी थोड़ी पिछड़ गई थी. विदेशी मीडिया में उससे पहले ही देश के अस्पतालों में नाना अभावों व असुविधाओं के बीच संक्रमितों के भारी तकलीफें झेलने, मृत्यु के बाद श्मशानों में सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार से भी वंचित रहने और नदियों में उनकी लाशें उतराने के चित्र छप चुके थे और देश की छवि भरपूर ‘बिगड़’ चुकी थी.

ऑस्ट्रेलिया के एक अखबार ने तो यहां तक लिख डाला था कि अहंकार, अंधराष्ट्रवाद और अयोग्य नौकरशाही ने भारत को तबाही के गर्त में धकेल दिया है, जबकि दूसरे अखबार के कार्टूनिस्ट ने भारत को कोरोना से परास्त हाथी के रूप में चित्रित कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उस पर बैठकर भाषण देते दिखाया था.

तब मोदी सरकार ने इसे देश के खिलाफ विदेशी साजिश के रूप में भी देखा और कार्टून तो नहीं, मगर रिपोर्ट के खिलाफ शिकायत की थी, जिसका जवाब उसकी शिकायत को अभिव्यक्ति की आजादी में दखल बताकर दिया गया था. यानी विदेशी मीडिया देश की जो भी छवि बनानी या बिगाड़नी थी, बना-बिगाड़ चुका था.

दरअसल, यह वही विदेशी मीडिया है, जो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की तारीफों के पुल बांधता तो भाजपा के भावविभोर प्रवक्ता उनकी मिसालें देते नहीं थकते थे. कहते थे कि देखिए मोदी जी ने देश का नाम कितना बढ़ा दिया है. तब उन्हें यह मीडिया देश के खिलाफ साजिशें रचता नहीं बल्कि उसके हितों की चिंता करता नजर आता था.

इस लिहाज से देखें, तो अपने सात सालों में प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने यह तथ्य पूरी तरह जाहिर कर डाला है कि उन्हें सबसे बड़ा परहेज अपनी आलोचना सुनने या उससे सबक लेने से ही है. विदेशी पूंजी हो, कंपनियां, टेक्नोलॉजी या मीडिया, जब तक वे उनका कीर्तन करते रहते हैं, उन्हें, और तो और अपना स्वदेशी का पुराना राग तक याद नहीं आता.

यहां सवाल उठाया जा सकता है कि तब क्या देश की छवि की चिंता की ही नहीं जानी चाहिए? जवाब है- जरूर की जानी चाहिए, लेकिन इससे पहले ठीक से समझ लेना चाहिए कि वास्तव में वह कैसे खराब होती है?

प्रधानमंत्री और उनके समर्थक प्रायः कहते हैं कि उन्होंने दुनिया में भारत का नाम बहुत बढ़ा दिया है. वाकई ऐसा हुआ है तो यकीनन, इसलिए हुआ होगा कि दुनिया भारत को उनकी आंखों से देखती होगी. ऐसे में उस नाम को विपक्ष के आरोप कैसे खराब कर सकते हैं? उसके खराब होने का ज्यादा अंदेशा तो उन नासमझीभरी चिंताओं से ही है, जिनकी अब तक प्रधानमंत्री और उनकी सरकार कई मिसालें बना चुकी है.

ऐसी नासमझी का सबसे अद्भुत उदाहरण उन्होंने पिछले साल बनाया था, जब कोरोना के चलते बिना सोचे-समझे लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन को इस अंदाज में दुनिया का सबसे बड़ा लॉकडाउन बताया था. जैसे सबसे बड़ा लॉककडाउन भी कोई गर्व करने लायक बात हो!

अब यह कहें कि उससे हुई देश की जगहंसाई से कोई सबक नहीं लिया गया या यह कि हर काम को ‘मोदी का मास्टरस्ट्रोक’ बताने की उनकी आदत है कि जाती ही नहीं, लेकिन टीकाकरण को लेकर सरकारी रवैया भी जस का तस है.

गत 21 जून को 85 लाख लोगों को टीके लगाए गए तो उसे ‘महारिकॉर्ड’ बताया गया. प्रधानमंत्री खुद कई बार टीकाकरण को टीकोत्सव करार दे चुके और ‘दुनिया के सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान’ को लेकर अपनी छाती 56 इंच से भी ज्यादा चौड़ी कर चुके हैं.

सोचिए जरा, जनसंख्या के लिहाज से इतने बड़े देश का टीकाकरण अभियान स्वाभाविक रूप से बड़ा ही होगा. लेकिन दुनिया जानती है कि चीन ने 21 जून से एक दिन पहले ही अपने एक करोड़ चौरानवे लाख लोगों को टीके लगाए और कोई रिकॉर्ड बनाने का दावा नहीं किया. ऐसे में उसकी निगाह में हमारी छवि कैसी बनेगी? वैसी ही तो, जैसी भारत को टीकों की ‘विश्वराजधानी’ या ‘वर्ल्ड लेबोरेटरी’ बताने के बाद उसे विदेशी टीकों के आयात पर निर्भर कर देने से बनी है?

यूं, सच पूछिए तो विदेशों में देश की छवि सबसे ज्यादा तब खराब हुई, जब डोनाल्ड ट्रंप के राज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे देशों के चुनावों में तटस्थता की हमारी पारंपरिक विदेश नीति को धता बताकर ‘हाउडी मोदी’ के बहाने अमेरिका गए और ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा लगवा आए थे. अकारण नहीं कि अमेरिकी जनता ने ट्रंप को हराकर उनके इस नारे को भी हैसियत बता दी थी.

इससे पहले 2018 में भी दुनिया भारत पर हंसी ही थी और वह बदनाम ही हुआ था, जब प्रधानमंत्री मोदी विश्व इकोनॉमिक फोरम के अपने भाषण में डींग-सी हांकते हुए देश में मतदाताओं की कुल संख्या छह सौ करोड़ बता आए थे. तब भी, जब अपने एक भाषण में वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सही नाम तक नहीं ले पाए, ‘मोहनदास’ के बजाय ‘मोहनलाल’ कह दिया, दूसरे में तक्षशिला को बिहार में खींच लाए और तीसरे में कभी गंगापार न कर पाने वाले सिकंदर को बिहार की सेनाओं से शिकस्त दिला दी थी.

पाकिस्तान के खिलाफ बहुचर्चित एयरस्ट्राइक के वक्त ‘बादल रहेंगे तो पाकिस्तानी रडार हमारे विमानों को देख नहीं पाएंगे’ वाले उनके ‘वैज्ञानिक कथन’ का तो अभी तक मजा लिया जाता है.

इतनी मिसालें यह जताने के लिए पर्याप्त समझी जानी चाहिए कि अगर वास्तव में देश की छवि की चिंता है तो प्रधानमंत्री, उनकी सरकार और पार्टी को ऐसी चीजों की पुनरावृत्ति रोकते हुए देश में वास्तव में सब कुछ ठीक-ठाक रखना चाहिए.

अन्यथा अब दुनिया इतनी छोटी हो गई है कि वे सच्चाई को कितना भी ढक-तोपकर रखें, वह उसके इस छोर से उस छोर तक पहुंचती ही रहेगी. जैसे ट्रंप के अहमदाबाद दौरे के वक्त खड़ी की गई दीवार भी उसके उस पार की सच्चाई जाहिर होने से नहीं ही रोक पाई थी.

देश की छवि तब भी बिगड़ती ही है, जब प्रधानमंत्री ह्यूस्टन जाकर तो भारत में सब कुछ चंगा-सी कह देते हैं और देश में किसानों को सात-सात महीनों तक राजधानी की सीमाओं पर बैठाए रखते हैं या चुनाव प्रचार में प्रतिद्वंद्वी महिला मुख्यमंत्री को ‘दीदी ओ दीदी’ कहकर चिढ़ाने पर उतर आते हैं.

हां, वह तब भी बिगड़ती है, जब उनके समर्थक हत्यारी भीड़ों में बदल जाते हैं या बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगे लहराकर जुलूस निकालते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)