जम्मू कश्मीर: किसी की ज़बान काटकर उससे कैसे बात की जाती है, सर्वदलीय बैठक उसकी मिसाल है

सर्वदलीय बैठक को समझने के लिए जम्मू कश्मीर का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं, मामूली राजनीतिक और नैतिक सहज बोध काफी है. भारत सरकार ने क्यों उन्हीं नेताओं को बुलाया, जिन्हें वह खुद अप्रासंगिक कहती रही है? कारण साफ है. वह ऐसी बैठकों के ज़रिये 5 अगस्त 2019 को उठाए असंवैधानिक कदम को एक तरह की सार्वजनिक वैधता दिलाना चाहती है.

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25 जून 2021 को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ जम्मू कश्मीर के विभिन्न नेता. (फोटो साभार: पीआईबी)

सर्वदलीय बैठक को समझने के लिए जम्मू कश्मीर का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं, मामूली राजनीतिक और नैतिक सहज बोध काफी है. भारत सरकार ने क्यों उन्हीं नेताओं को बुलाया, जिन्हें वह खुद अप्रासंगिक कहती रही है? कारण साफ है. वह ऐसी बैठकों के ज़रिये 5 अगस्त 2019 को उठाए असंवैधानिक कदम को एक तरह की सार्वजनिक वैधता दिलाना चाहती है.

25 जून 2021 को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ जम्मू कश्मीर के विभिन्न नेता. (फोटो साभार: पीआईबी)
25 जून 2021 को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ जम्मू कश्मीर के विभिन्न नेता. (फोटो साभार: पीआईबी)

आपने मेरी पीठ में छुरा घोंपकर मेरे मुंह पर पट्टी बांध दी. अब जब आपने पट्टी हटाई है तो मुझे क्या कहना चाहिए? यही कि आपका छुरा मेरी पीठ में धंसा हुआ है.

जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ भारत सरकार ने जो बैठक की, क्या उस पर हम कभी ईमानदारी से बात कर पाएंगे? क्या हम यह सीधे-सीधे कह पाएंगे कि भारत की जनता और जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ जो लंबे समय से धोखाधड़ी की जा रही है, यह बैठक उस धारावाहिक की एक और किस्त है?

एक ऐसा ड्रामा जो भारतीय जनता पार्टी की यह सरकार अपने तथाकथित हिंदी भाषी क्षेत्रों के मतदाता दर्शकों में फिर से अपनी ढिठाई और चालाकी के खुले प्रदर्शन से तालियां बटोरने के लिए कर रही है?

इस बैठक को समझने के लिए आपको भारत और जम्मू कश्मीर के संबंध का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं. आपके पास मामूली राजनीतिक और नैतिक सहज बोध का होना ही काफी है.

जम्मू और कश्मीर का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में केंद्रीय महत्त्व है. आज़ादी के बाद यह एकमात्र राज्य था जिसका राजनीतिक नेतृत्व मुसलमानों के पास ही रहा. दूसरे, इस प्रदेश का ख़ास दर्जा भी था. अनुच्छेद 370, कितना ही घिस क्यों गया हो, जम्मू कश्मीर को स्वायत्तता का आभास देता था. उसका एक झंडा था.

इन सभी वजह से भारतीय जनता पार्टी अपने मतदाताओं को यह कहती रही थी कि यह एक ऐसा इलाका है, जिस पर पूरा कब्जा नहीं किया जा सका है. वह कब्जा करना और जम्मू कश्मीर को पूरी तरह भारतीय बनाना इस राष्ट्रवादी राजनीति का ऐसा स्वप्न था जो उसके समर्थकों के विस्तारवाद को सहलाता और संतुष्ट भी करता था.

मुसलमान बहुल केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्धीप के साथ अभी जो किया जा रहा है, उसे देखने पर यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है. मुसलमान भाजपा की शर्तों पर ही अपना जीवन जी सकते है, यही संदेश लक्षद्वीप के प्रशासक का है.

भाजपा के राष्ट्रवाद को नरम तरीके से इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है: भारत ऐसा राष्ट्र होगा, जिसमें मुसलमान और ईसाइयों को कुछ शर्तों के साथ जीने की इजाजत होगी, अपने रीति-रिवाज सीमित दायरे में जारी रखने की भी, लेकिन उन्हें भारत में कभी भी किसी प्रकार के राजनीतिक महत्त्व की भूमिका की आकांक्षा पूरी तरह से छोड़ देनी होगी.

इसके अलावा भारत के किसी भी हिस्से पर गैर हिंदू रंग हावी नहीं दिखना चाहिए. भारत के लगभग सभी राज्य इस शर्त को पूरा करते थे सिवाय जम्मू-कश्मीर के. इसलिए उसे तोड़ना भाजपा की राजनीति के औचित्य के लिए ज़रूरी था.

राष्ट्रवाद में जो विस्तारवादी लालसा निहित होती है, उसे 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को समाप्त करके, उसका विशेष दर्जा छीनकर पूरा किया गया.

यह पर्याप्त होता यह साबित करने के लिए कि जम्मू कश्मीर को भारत में पूरी तरह मिला लिया गया है. लेकिन कई कदम और आगे जाकर और अपने समर्थकों को भी अपनी हिमाकत से आश्चर्य में डालते हुए भाजपा की सरकार ने उससे राज्य का दर्जा भी छीनकर उसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया.

इतना ही नहीं उसे टुकड़ों में भी बांट दिया. यह कश्मीर की जनता, जो प्रायः मुसलमान है, को अपमानित करने के अलावा कुछ और न था, यह केंद्र सरकार और बाकी सभी लोग जानते थे.

उस समय केंद्र सरकार ने अपने इस कदम के पक्ष में जो तर्क दिए वे बोदे और बेकार थे… कि यह कदम जम्मू कश्मीर के भारत के साथ तालमेल के लिए ज़रूरी था, कि यह राज्य के विकास के लिए अनिवार्य हो गया था, कि इससे इस इलाके में आतंकवाद पर काबू पाया जा सकेगा. ये सारे तर्क धोखे के अलावा कुछ न थे.

इस कदम के एक दिन पहले ही राज्य के सभी राजनीतिक नेताओं को गैर कानूनी तरीके से गिरफ्तार कर लिया गया. सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी ओर से आंख मूंदकर केंद्र सरकार को शह दी.

राज्य में दमन का ज़ोर बढ़ा. सैन्य और अर्द्ध सैन्य बलों की तादाद में हजारों की बढ़ोत्तरी हुई. इंटरनेट बंद हो गया, मीडिया पर सख्ती बढ़ा दी गई, गिरफ्तारियां बड़े पैमाने पर हुईं. स्थानीय कर्मचारियों, पुलिस को भी अपमानित करने के तरीके खोजे गए.

यह कहना होगा कि भाजपा सरकार ने जिसे ध्यान में रखकर यह किया था, उसकी उस जनता में इसे लेकर एक शैतानी खुशी थी. उनकी तरफ से एक इलाके को फतह किया गया था, कश्मीरियों का सिर नीचा कर दिया गया था.

दूसरा संदेश भारत के शेष इलाकों के मुसलामानों के लिए था कि दशकों पुराना वादा खुलेआम तोड़ा जा सकता है, भारत और उसकी आबादियों के बीच के संतुलन को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है.

पिछले दो सालों में इस इलाके की आबाई पहचान को बदल देने के लिए भी नए नियम लागू किए गए. ज़मीन के इस्तेमाल, जंगलात की ज़मीन के प्रयोग में तब्दीली, यह सब कुछ कश्मीर को पूरी तरह तोड़ देने के लिए किया जा रहा था.

इन दो वर्षों में भारत समर्थक राजनेताओं को निष्क्रिय, बल्कि यूं कहें कि बेइज्जत करके राज्य की जनता के सामने उनकी अप्रासंगिकता साबित की गई. इसके साथ भारतीय राज्य की जांच एजेंसियों का इस्तेमाल भी इन नेताओं के खिलाफ किया गया.

केंद्र की सारी ताकत का इस्तेमाल करके पालतू नेता भी खड़े किए गए. इन सबके बाद जब स्थानीय निकायों के चुनाव कराए गए तो भाजपा और केंद्र सरकार को ज़मीनी हकीकत ने फिर झटका दिया.

तो दो सालों में क्या हासिल हुआ? जम्मू कश्मीर को और अस्थिर और मनोवैज्ञानिक रूप से तबाह करने के अलावा और कुछ भी तो नहीं. लेकिन यह कहना गलत है.

भाजपा ने अपने मतदाताओं में अपने नंबर ज़रूर बढ़वा लिए. उनमें से हर किसी को मालूम था कि यह उस इलाके की जनता के भले के लिए नहीं बल्कि उन्हें अपमानित करने के लिए किया जा रहा था. वैसे ही जैसे इस जनता को यह पता था कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कोई कारसेवा नहीं होने वाली थी, मस्जिद को ध्वस्त करने का ही यह अभियान था.

फिर अभी भारत सरकार ने क्यों उन्हीं नेताओं को बुलाया, जिनको वह खुद अप्रासंगिक कहती रही है? उसका कारण साफ है. वह ऐसी बैठकों के जरिये 5 अगस्त 2019 को उसने जो असंवैधानिक कदम उठाया था उसे एक तरह की वैधता सार्वजनिक तौर पर दिलाना चाहती है.

इस बैठक में अनुच्छेद 370 का मसला उठाया ही नहीं जा सका. उमर अब्दुल्ला इतने यथार्थवादी हो चुके हैं कि उनका कहना है कि यह चूंकि यह सरकार किसी भी सूरत में उसे बहाल नहीं करेगी, उसका जिक्र ही बेमानी है. यह बड़ा अजीब तर्क है.

क्या भारत ने आज़ादी की बात तब तक नहीं उठाई जब तक इंग्लैंड उसके लिए तैयार नहीं हो गया? क्या जाति प्रथा की समाप्ति की बात तभी उठाई जाएगी जब ‘उच्च वर्ण’ उसके लिए राजी हो जाए? क्या घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून तभी बने जब पति उसे स्वीकार करें?

जो विचार सही है, उसे लोगों की कल्पना में जीवित रखना ज़रूरी होता है भले ही वह तुरंत साकार न हो सके. जम्मू कश्मीर के नेताओं ने इस मोर्चे पर कमजोरी दिखलाई.

दूसरे, केंद्र सरकार ने इरादा जाहिर किया कि वह जम्मू और कश्मीर के विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन करवाना चाहती है, फिर उस आधार पर चुनाव करवाना उसकी प्राथमिकता है.

परिसीमन की आशंका पहले दिन से सबको थी. ऐसा करके सरकार प्रतिनिधित्व का संतुलन बदल देना चाहती है, मकसद यह है. जम्मू और कश्मीर के बीच का समीकरण भी बदल दिया जाए. मुसलमान प्रतिनिधियों के चुनाव में निर्णयकारी न रह पाएं, मकसद यह है.

जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस देने का वायवीय वादा किया गया. झूठ बोलने और अपनी बात से फिर जाने वाली भाजपा सरकार के वादे का यकीन कोई बड़ा मूर्ख ही कर सकता है. जैसा पहले कहा, यह भाजपा की दीर्घकालिक राजनीतिक परियोजना का हिस्सा है. जम्मू कश्मीर में एक हिंदू मुख्यमंत्री का सपना वह अपने मतदाताओं को दिखला रही है.

बैठक के बाद सारे नेताओं ने प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार के नुमाइंदों के साथ जो तस्वीर खिंचवाई वह कितनी विडंबनापूर्ण है. कपिल काक ने सीमा मुस्तफा को ठीक ही कहा कि यह बैठक अपमानित किए गए लोगों के साथ अपमानित करने वालों की बैठक थी. इसमें भी अपमान करने वाले के बड़े दिल की तारीफ़ की गई. इसे उसके संवादप्रिय होने का सबूत माना गया. किसी की ज़बान तराशकर फिर उससे बात कैसे की जाती है, यह बैठक उसी का नमूना थी.

अवश्य ही इस बैठक के पीछे कई कारण थे. अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय. चीन की मौजूदगी लद्दाख में जम गई है. अफगानिस्तान से अमेरिका के हट जाने के बाद वहां भारत की स्थिति अनिश्चित हो गई है. पाकिस्तान के साथ भी रिश्ते ठीक करने का दबाव भारत पर बढ़ रहा है.

अपने मतदाताओं को यह सरकार जितना जोश दिलाए, अमेरिका में नया नेतृत्व अब उस पर अपना दबाव बढ़ा रहा है. उसके अलावा कश्मीर में हिंसा घटी नहीं है. भारत के खिलाफ घृणा अब कश्मीर में जड़ जमा गई है. इन सबके चलते सरकार को यह आभास दिलाना ज़रूरी हो गया था कि वह मात्र आक्रांता नहीं है.

इन सबके अलावा, हमारी समझ में इस बैठक का राजनीतिक उद्देश्य था. भाजपा को अपने समर्थकों को बीच-बीच में राष्ट्रवादी उत्तेजना का डोज़ देते रहना ज़रूरी है. इस बैठक के जरिये यह उन्हें बतला रही है कि वह कश्मीर को और भी तोड़ने की दिशा में आगे बढ़ रही है और उसमें वह चतुराई से कश्मीर के राजनीतिक दलों को भी शामिल कर रही है.

अवसरवाद भाजपा की राजनीति का स्वभाव है. महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार बनाना, उससे अलग होना और फिर उसे अपदस्थ कर देना: इनमें से किसी भी कदम से भाजपा के समर्थक को उलझन नहीं हुई. किसी में कोई नैतिक बाधा नहीं.

इसीलिए इस बैठक के बारे में आलोचक जब यह कहते हैं कि यह इस सरकार की असफलता है कि वह जिस रास्ते आगे बढ़ी थी, उसी पर पीछे लौट रही है तो उसे यह नहीं मालूम कि भाजपा का मतदाता इसे एक दूसरी चालाकी मान रहा है, ऐसी चालाकी जो अभी ज़रूरी हो गई है ताकि कश्मीर को और क्षत-विक्षत किया जा सके और दुनिया का मुंह यह दिखलाकर बंद किया जाए कि हमने यह खुद उनकी मर्जी से किया है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)