शोक में साथ होना हमें एक करता है…

जब हम उन लोगों के लिए और उनके साथ शोक मनाते हैं जो हमारे धर्म, भाषा और रंग के नहीं होते, तब हम उनकी कमज़ोरी और दुख के साथ ख़ुद को जोड़ते हैं. शोक संवेदना से सहभागिता का जन्म होता है. जब हम किसी के साथ शोक प्रकट करते हैं तो उनके जीवन की ज़िम्मेदारी लेते हैं. यह खोखला काम नहीं हो सकता.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

जब हम उन लोगों के लिए और उनके साथ शोक मनाते हैं जो हमारे धर्म, भाषा और रंग के नहीं होते, तब हम उनकी कमज़ोरी और दुख के साथ ख़ुद को जोड़ते हैं. शोक संवेदना से सहभागिता का जन्म होता है. जब हम किसी के साथ शोक प्रकट करते हैं तो उनके जीवन की ज़िम्मेदारी लेते हैं. यह खोखला काम नहीं हो सकता.

(फोटो: पीटीआई)

किसी भी नुकसान के बाद दुखी होना बिल्कुल इंसानी बात है. मौत सबसे बड़ा नुकसान है. किसी अपने की मौत. इस ग्रह के हमारे सहजीवी भी दुखी होते हैं. लेकिन इंसानों का मामला इस लिहाज से बिल्कुल अलग होता है कि वे अपने दुख पर मातम भी मनाते हैं. सारे संसार में शोक मनाना संस्कृतियों का जरूरी अंग है.

दुखी होना एक व्यक्तिगत क्रिया हो सकती है लेकिन शोक के अनुष्ठान में हम दूसरों को अपना गम साझा करने के लिए बुलाते हैं. मातम में हम अपना समाज ढूंढ़ते हैं. शोक संवेदना में हमारा समाज ढलता है. हम उन्हें याद रखते हैं जो हमारे शोक में शामिल होते हैं और इसका ख्याल रखते हैं. ऐसा करके वे हमारे नुकसान को साझा करते हैं और इस नुकसान की भरपाई के लिए अपना साथ देते हैं. हम इस भाईचारे की, अपने साथ दूसरे के इस मिलन की कद्र करते हैं. हम एक हो जाते हैं.

दुखी होने की अनुमति किसे होती है? गम मनाना कब सामूहिक या साझा हो जाता है? इन सवालों के जवाब से समाजों और राष्ट्रों की आत्मछवि भी स्पष्ट होती है. वे दूसरों की नजर में कैसा रहना चाहते हैं.

सभी मौतें एक जैसी नहीं होती हैं. हमने इस महामारी में मौतें देखी हैं और सरकार की उदासीनता, चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था और कुदरत का इल्जाम लगाया है. लेकिन मोटे तौर पर इसमें कोई भेदभाव नहीं था. बीमारी या बुढ़ापे से हुई मौत और हिंसा से हुई मौत अलग-अलग होती है. इसमें यह बात भी अलग होती है कि जब मुझसे अनजान आदमी मुझे इसलिए मारने का फैसला करता है क्योंकि वह मेरी पहचान के एक हिस्से से नफरत करता है. तब मौत का दर्द बिल्कुल अलग हो जाता है.

यह उन सब पर असर डालता है जो उस पहचान का हिस्सा होते हैं और उस हिंसा से तब उन्हें भी उतनी ही चोट पहुंचती है. दाढ़ी रखे या किप्पा पहने कोई मर्द, नकाब या बुर्का पहने कोई औरत; अगर महज इन निशानियों की वजह से ही नफरत और हिंसा जन्म लेती है तो इन निशानियों वाले दूसरे लोग भी इसका निशाना बन सकते हैं. या सिर्फ नाम !

ये मौतें बिल्कुल दूसरी तरह की होती हैं. इससे होने वाले गम में गुस्सा भी शामिल होता है. यह मारे गए आदमी के परिवार से आगे तक फैलता है.

ऐसे ही गम व गुस्से का इजहार पिछले साल जाॅर्ज फ्लाॅयड की मौत के बाद अमेरिका और दुनिया के दूसरे हिस्सों में किया गया था. काले लोगों ने इसे अंदर तक महसूस किया और वे गुस्से से फट पड़े थे. लेकिन वे अकेले नहीं थे. हजारों शोकाकुल लोग, जिसमें बड़ी संख्या में गोरे भी थे, अपनी सांत्वना प्रकट करने के लिए उस चर्च के सामने इकट्ठा हुए थे जहां उनके पार्थिव शरीर को लाया गया था.

टेक्सास के गवर्नर ग्रेग एबाॅट फ्लाॅयड के सम्मान में टेक्सास कैपिटल पर फहराया गया झंडा उनके परिवार को भेंट करने ह्यूस्टन गए. शोक समारोह लंबा चला. ह्वाइट हाउस की नजदीक की गली को औपचारिक रूप से उनका नाम दिया गया.

यह शोक संवेदना न्याय की प्रक्रिया से अलग थी. लेकिन इससे पता चला कि अमेरिका ने जाॅर्ज फ्लाॅयड को अपना समझा और अमेरिकी सत्ता ने भी अपने उस अफसर की हरकत से खुद को अलग कर लिया.

पिछले हफ्ते हमने कनाडा के राष्ट्रीय झंडे में लिपटी चार ताबूतों को ओंटारियो के इस्लामिक सेंटर से निकलते देखा. उनमें सैयद अफजल (46), उनकी बीवी मदीहा सलमान (44), उनकी 15 साल की बेटी युमना अफजल और सैयद अफजल की 74 वर्षीय मां की लाश थी. उन्हें 20 साल के गोरे कनाडियाई ने मार डाला था.

कनाडा के प्रधानमंत्री के साथ साथ सभी सियासी लीडरों ने अपने गम और गुस्से का इजहार किया था और इस कत्ल को आतंकवादी कार्रवाई बताया था. उन्होंने जोर देकर यह बात कही कि कातिल का मकसद कनाडा के लोगों को विभाजित करना था लेकिन वह नाकाम हुआ क्योंकि इन मौतों का शोक मनाने में सब एक साथ थे.  इस शोक संवेदना से उन्होंने जताया कि यहां आकर बसने वाला परिवार उनका ही अंग था.

इससे पहले, हजारों कनाडाई नागरिकों ने कत्ल की जगह से मस्जिद तक 7 किलोमीटर तक मार्च किया. जनाजे में दूसरे मजहबों की औरतों ने अफजल के परिवार के सम्मान में पारंपरिक लिबास पहने. औरतों और दूसरों ने युमना अफजल का पसंदीदा जामुनी स्कार्फ लगाया.

कार्यक्रम की शुरुआत मुसलमानों की दुआ से हुई जिसे पहली बार पूरे देश में टेलीविजन पर दिखाया गया. संसद में पहले ही उन लोगों के लिए मौन रखा चुका था.

ओंटारियो के इस लंबे शोक समारोह से क्राइस्टचर्च, न्यूजीलैंड की याद ताजा हो गई जहां इसी तरह की सामूहिक शोक संवेदना व्यक्त की गई थी, जब एक अतिवादी गोरे बंदूकधारी ने मार्च 2019 में एक मस्जिद में सामूहिक हत्याएं कर दी थीं.

इस अवसर पर आयोजित प्रार्थना सभा को राष्ट्रीय टेलीविजन पर दिखाया गया था जिसमें प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न भी शामिल हुई थीं और इस्लामी चलन का लिहाज करते हुए उन्होंने अपना सिर स्कार्फ से ढंक रखा था. उन्होंने पैगंबर मोहम्मद को उद्धृत किया, ’ईमान वाले आपसी मोहब्बत, रहमदिली और हमदर्दी में एक जिस्म की तरह हैं. जब जिस्म के किसी एक हिस्से को तकलीफ पहुंचती है तो पूरा जिस्म दर्द महसूस करता है.’

जेसिंडा अर्डर्न ने अपने साथ शोक मना रहे लोगों से कहा, ‘न्यूजीलैंड आपके साथ शोकाकुल है; हम सब एक हैं.’

शोक संवेदना से सहभागिता का जन्म होता है. जब आप उनके साथ शोक प्रकट करते हैं तो आप उनके जीवन की जिम्मेदारी लेते हैं. यह खोखला काम नहीं हो सकता.

हम रेचल रोजन्थाॅल को क्रिस्टिन प्रीवेलेट के माध्यम से सुनते हैं,  ‘(इस शोक के) अनुष्ठान में आप स्वयं को निचोड़ डालते हैं, आप इस शोक को अवचेतन से बाहर लाते हैं. यह अंतःकरण से बाह्य को देने की प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया सतही नहीं हो सकती बल्कि इसमें खुद से एक गहरी वचनबद्धता होती है.’

शोक संवेदना एक बाहरी क्रिया है लेकिन इसमें आपको अपना सब कुछ लगाना होता है. वे फ्रायड के हवाले से कहती हैं कि दुख को सार्वजनिक रूप से जताना महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने कहा था कि दुख अगर एक बड़े, सामूहिक और सांस्कृतिक नुकसान से जुड़ा हो तो सकारात्मक हो सकता है. अगर इसे खुद तक सीमित रखा जाए तो यह गुस्से में बदल सकता है और नकारात्मक हो सकता है.

जब हम उस तरह शोक मनाते हैं जैसा न्यूजीलैंड वालों या कनाडा वालों ने मनाया तो हम देखते हैं कि अलग-अलग पहचानों वाले समूह एक बड़े समूह का हिस्सा बनते हैं, जैसा कि देरिदा ने कहा था, इस तरह हम उन्हें आश्वस्त करते हैं कि वे अकेले नहीं हैं. जब आप उन लोगों के लिए और उनके साथ शोक मनाते हैं जो आपके धर्म, भाषा और रंग के नहीं होते. हम उनकी कमजोरी और उनके दुख के साथ खुद को जोड़ते हैं.

वह शोक संवेदना एक तरह से राजनीतिक क्रिया हैः साझी इंसानियतें बनाना और पुख्ता इरादा करना कि हम दूसरों को उस हिंसा से बचाएंगे जिसका हमें कभी सामना नहीं करना पड़ेगा.

हाथरस में बलात्कार और हत्या की शिकार युवा दलित महिला के परिवार का गहरा अकेलापन उस बयान से खुलकर सामने आता है, जिसमें उसने कहा था कि उनके सवर्ण पड़ोसियों में से कोई उनकी बेटी की मौत का शोक मनाने नहीं आया. यही वह अकेलापन है जिसे ईमानदार शोक संवेदना दूर कर सकती है और जो एक होने का एहसास दिला सकती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

(मूल अंग्रेज़ी लेख से समी अहमद द्वारा अनूदित)

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