जनसंख्या बढ़ाने से संबंधित ‘जियो पारसी’ अभियान बेहद आपत्तिजनक है

यह विज्ञापन अभियान अविवाहित व्यक्तियों को तो शर्मिंदा करता ही है, साथ ही उन दंपतियों को भी शर्मिंदा करता है, जिनके कम से कम दो बच्चे नहीं हैं.

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यह विज्ञापन अभियान अविवाहित व्यक्तियों को तो शर्मिंदा करता ही है, साथ ही उन दंपतियों को भी शर्मिंदा करता है, जिनके कम से कम दो बच्चे नहीं हैं.

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(फोटो: पीटीआई)

ग्रामीण हरियाणा में एक खाप पंचायत की कल्पना कीजिए. सोचिए कि गांव के बुजुर्गों का यह कंगारू कोर्ट एक आकर्षक विज्ञापन जारी कर रहा है जिसमें अपनी जाति के सदस्यों को (आपस में) शादी करने और तेजी से बच्चे पैदा करने के लिए कहा जा रहा है ताकि समुदाय की घटती आबादी को बढ़ाया जा सके.

कल्पना कीजिए कि इस जाति के कई सदस्य जमींदार हैं, जिनके पास काफी जमीन है. अगर आप अपनी कल्पना को थोड़ा और आगे लेकर जा सकते हैं, तो फर्ज कीजिए कि यह विज्ञापन अधेड़ उम्र के अविवाहित, संतानहीन जमींदार को अविवाहित रहने से होने वाले नुकसानों की चेतावनी देते हुए कह रहा है कि अगर वह ऐसे ही रहता है, तो उसकी कृषि-भूमि का वारिस कोई निचली जाति का मामूली खेत-मजदूर बनेगा.

मेरा अनुमान है हमारा मुख्यधारा का मीडिया ऐसे किसी विज्ञापन को लेकर उतना प्यार और उत्साह नहीं दिखाता, जैसा इसने हाल ही में शुरू किए गए ‘जियो पारसी’ अभियान के दूसरे चरण को लेकर दिखाया है. इस विज्ञापन अभियान का मकसद पारसी पुरुषों और महिलाओं को तेजी से शादी करने और ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करना है.

इस अभियान के तहत आए कई विज्ञापनों में शायद सबसे भद्दा और आपत्तिजनक वह विज्ञापन है जिसमें एक अधेड़ उम्र का राजसी-सा मगर उदास व्यक्ति एक काफी ऊंची, गद्दी लगी कुर्सी पर बैठ कर खोया-खोया सा आसमान की ओर निहार रहा है.

इस फोटो के साथ कैप्शन है: ‘आपके अभिभावकों के बाद पारिवारिक घर के वारिस आप होंगे, आपके बाद यह सब आपके नौकर का होगा.’

यह नस्लभेद, अभिजात्यवाद और वर्गीय श्रेष्ठता का खुला प्रदर्शन नहीं, तो और क्या है? मुझे संदेह है कि कोई और ऐसा विज्ञापन अभियान झेल सकता था. मेरा अनुमान है कि इसका संबंध इस तथ्य से है कि पारसी दक्षिणी मुंबई के पॉश इलाकों के घरों में रहते हैं, न कि उत्तरी भारत के दूर-दराज के गांवों में.

यह विज्ञापन अभियान अविवाहित व्यक्तियों को तो शर्मिंदा करता ही है, साथ ही उन दंपतियों को भी शर्मिंदा करता है, जिनके कम से कम दो बच्चे नहीं हैं.

एक विज्ञापन में कहा गया है, ‘आप अपने बच्चे को जो सबसे खास तोहफा दे सकते हैं, वह है एक भाई या बहन. सिर्फ एक बच्चा करना, काम को अधूरा छोड़ने जैसा है.’

‘जियो पारसी’ का दूसरा चरण यह बताता है कि अविवाहित लोग कितना खराब, सड़ा हुआ जीवन बिताते हैं और किस तरह से उनका जीवन दो बच्चों के बगैर अधूरा है. एक ऐसे समुदाय के लिए जो अपनी प्रगतिशीलता के लिए जाना जाता है, यह निश्चित तौर पर निंदनीय कहा जा सकता है.

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जियो पारसी विज्ञापन.

एक विज्ञापन तो ऐसा है, जिसमें बॉग संस्कृति के अनोखेपन के बारे में बात की गई है. बॉग संस्कृति यानी पारसियों का सामुदायिक आवासीय परिसरों में बिताया जानेवाला अनोखा जीवन, जहां युवाओं के झुंठ साथ में मस्ती करते हैं.

एक विज्ञापन में अधेड़ किस्म के कुछ लोगों को बॉग में गॉसिप करते दिखाया गया है. इसका इशारा इस ओर है कि इन लोगों ने अपनी जवानी से अब तक इसके अलावा शायद ही कोई दूसरा काम किया है.

इस विज्ञापन में चेतावनी दी गई है, विवाहित जोड़ों और बच्चों के बारे में चुटकुले सुनानेवाले बॉग के उन सारे कुंवारों को- ‘जल्द ही एक दिन आप सब 60 के हो जाएंगे और तब भी अकेलेपन में घिरे रहेंगे.’

इन विज्ञापनों में अधेड़ उम्र के अविवाहित लोग अकेले, उदास और दुखभरा जीवन बिताते दिखाई देते हैं. जहां, इस अभियान में दिखाए गए बुजुर्ग लोग अपनी संपत्ति को (अपने ‘नौकर’) के हाथों गंवाने की कगार पर हैं, वहीं अकेली औरतों के पास ऐसा कोई नहीं है, जो पारसी नाटकों को देखते वक्त उनकी पीठ पर हाथ रख सके या उनकी पीठ को थपथपा सके.

जिस वक्त वह खुद से एक कुर्सी पर बैठ रही है, उस वक्त उसके पतले, सिकुड़े हुए होंठों पर एक उदासी है और आंखें में एक खालीपन है. ऐसा लगता है कि अविवाहित पुरुष और महिलाओं के पास एक अच्छे से पॉलिश की हुई कुर्सी पर बैठने और मौन होकर खुद में ही खोए रहने के अलावा और कोई काम नहीं होता.

मुझे कई वजहों से ‘जियो पारसी’ विज्ञापन अभियान काफी दकियानूसी और खराब स्वाद वाला लगा, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह शायद ये है कि मैं एक जराथूस्त्रियन (जोरोस्ट्रियन) विद्वानों के परिवार से ताल्लुक रखती हूं.

मेरी दादी की बहन, पीलू जंगलवाला को दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक जराथूस्त्रवाद पर उनके काम के लिए देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार- पद्मश्री से नवाजा गया था.

भारत के पारसी समुदाय के लोग इसी धर्म से ताल्लुक रखते हैं. मेरी दादी परीन लालकका ने पैगंबर जराथूस्त्र पर एक किताब लिखी साथ ही उन्होंने अवेस्ता भाषा में लिखी गई प्रार्थनाओं का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था.

मेरा बचपन जराथूस्त्रियन धर्म और आठवीं सदी में सताए गए जराथूस्त्रियनों के भारतीय समुद्री तट पर पहुंचने की कहानी पढ़ते हुए बीता. जराथूस्त्रियन धर्म और संस्कृति को संरक्षित करने की जगह,’ जियो पारसी’ अभियान का मकसद एक नृ-जातीय समुदाय की रक्षा करना है, जो खुद को एक अलग ही नीले रक्त वाली नस्ल मानता है, जिसकी शुद्धता पारसियों के अपने समुदाय के बाहर शादी करने से नष्ट हो जाएगी.

समुदाय के भीतर पारसी पिता और गैर-पारसी माता से जन्मे बच्चे को तो स्वीकार कर भी लिया जाता है, मगर पारसी मां और गैर-पारसी पिता से जन्मे बच्चे को स्वीकार नहीं किया जाता. यह पितृसत्ता, पुरातनपंथ और धार्मिक कट्टरता का लजीज कॉकटेल है.

पहले वाले के बच्चों को नवजोत संस्कार करने दिया जाता है, मगर बाद वाले को इसकी इजाजत नहीं होती, जो इस धर्म में शामिल होने का पर्व है. (डिस्क्लेमर: हिंदू पिता होने के बावजूद मेरा नवजोत तब हुआ था, जब मैं 9 साल की थी).

इस बीच मैं किसी ऐसे ठोस जेनेटिक सबूत का इंतजार कर रही हूं, जिससे यह साबित हो कि एक पारसी पिता, पारसी मां की तुलना में नस्लीय शुद्धता का संरक्षण करने के हिसाब से ज्यादा सक्षम है.

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जियो पारसी विज्ञापन.

मैं यह उम्मीद करती हूं कि इस समुदाय को यह एहसास होगा कि नस्लीय शुद्धता के पक्ष में ऐसा ही तर्क नाजी जर्मनी और नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीका का बुनियादी सिद्धांत था. निश्चित तौर पर भारत में महज 57,000 के करीब आबादी वाला पारसी समुदाय किसी दूसरे नस्ल के लिए कोई खतरा नहीं है.

यह तो बस एक तरह से खुद को ही विलुप्ति की ओर धकेल रहा है. और यह तथ्य कि पहले ‘जियो पारसी’ अभियान के तहत मेडिकल सहायता से 104 बच्चों का जन्म हुआ है, वास्तव में इस समुदाय को बचाने नहीं जा रहा है. इस समय पारसियों को किसी और से नहीं, खुद उनसे ही बचाए जाने की जरूरत है.

‘जियो पारसी’ वेबसाइट पारसियों का वर्णन एक कांस्य युग से अब तक जीवित समुदाय के तौर पर करती है. मैं यह आशा करती हूं कि किसी बिंदु पर वे कांस्य युग से बाहर निकल कर 21वीं सदी में दाखिल हो पाएंगे.

लंबे समय तक इस समुदाय के उदारपंथी और पुरातनपंथी धड़े के बीच इस सवाल को लेकर संघर्ष चलता रहा है कि क्या उनके बंद समुदाय के दरवाजों को इसमें रुचि रखनेवाले लोगों के लिए खोला जा सकता है?

विडंबना की बात है कि दोनों पक्षों को मुख्यधारा के मीडिया में बराबर वैधता मिली हुई है. मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि आखिर कैसे नस्लवाद, पितृसत्ता और तर्कों की गैर-हाजिरी को उतना ही सम्मान दिया जा सकता है, जितना इन प्रवृत्तियों के विरोध को.

यह समय है जब शेष भारत पारसियों को पक्षियों की विदेशी और दुर्लभ प्रजाति की तरह देखना बंद करे और उन्हें भी उसी तरह से परीक्षण की कसौटी पर कसे, जिस तरह से दूसरे समुदायों के साथ किया जाता है.

भारत सरकार 10 करोड़ रुपये के ‘जियो पारसी’ अभियान को समर्थन दे रही है. दूसरे शब्दों में कहें, तो इसका मतलब ये है कि एक गरीब और क्षमता से ज्यादा जनसंख्या वाला देश एक अमीर और शिक्षित समुदाय को ज्यादा बच्चे पैदा करने में मदद करने के लिए एक सौ मिलियन रुपए खर्च कर रहा है.

इस पैसे का कहीं अच्छा इस्तेमाल देश के दूरस्थ गांवों-जंगलों में मर रहीं आदिवासी संस्कृतियों की रक्षा करने के लिए हो सकता था. यह अभियान साफतौर पर कहता है कि पारसियों को दो या ज्यादा बच्चे पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए. यानी शेष भारत के लिए नारा, ‘हम दो हमारे दो’ है और पारसियों के लिए ’हम दो और हमारे दो या दो से ज्यादा’ है.

एक बड़ी बुजुर्ग होती आबादी वाले समुदाय को फर्टिलिटी ट्रीटमेंट देने की जगह गोद लेने को प्रोत्साहन देना कैसा रहेगा? या क्या पारसी नस्ल से बाहर वाले गैर नील-रक्तीय बच्चों को जराथूस्त्रियन पंथ में दीक्षित करने को समुदाय की रक्षा करना नहीं माना जाएगा?

एक अन्य कारण से गोद लेना अच्छा विचार साबित हो सकता है. पारसियों का अपने समुदाय के भीतर ही शादी का बहुत लंबा इतिहास रहा है, जिसमें पास के रिश्तेदारों (ममेरे, मौसेरे, चचेरे, फुफेरे भाई-बहनों और उनके संतानों) के बीच शादी जो होती है, जो रोगग्रस्त संतानों के जन्म लेने का बड़ा कारण है.

मैं ऐसे पारसी दंपतियों को जानती हूं, जिन्होंने डॉक्टरी सलाह के बाद संतान पैदा न करने का फैसला किया है, क्योंकि उनके बच्चे के रोगग्रस्त पैदा होने का काफी खतरा है. भारत में बचे 57,264 पारसियों का काफी बड़े हिस्से की उम्र ढल रही है. जाहिर है इसकी शादी के लायक आबादी में कई नजदीकी रिश्तेदार होंगे.

अगर आप इन्हें हटा कर देखें, तो इस समुदाय के हर पुरुष और औरत के लिए संभावित जोड़ीदारों की संख्या और ज्यादा घट जाएगी. ‘जियो पारसी’ अभियान के दूसरे चरण में इसका भी इलाज है. यह प्रेम और बौद्धिक साहचर्य की सारी चर्चाओं को खारिज कर देता है.

इसकी जगह, इसमें यह कहा गया है कि लोग जितने बड़े होते हैं, उतने ज्यादा आलोचनात्मक होते हैं. इसलिए परिवार की शुरुआत जल्दी कीजिए. आप जितने जवान होंगे, ‘कमियों को पार पाने की क्षमता उतनी ज्यादा होगी.’ यह कुछ वैसा ही है, जैसा कि नाइकी का विज्ञापन कहता है, ‘जस्ट डू इट’.

यह विज्ञापन अभियान एक बार भी शादी के लिए रोमांस और पटरी बैठने जैसे नरम विचारों की बात नहीं करता. इसकी जगह, इसका सारा ध्यान ‘नौकरों’ को आपकी संपत्ति पर कब्जा जमाने देने रोकने, थियेटर में संग-साथ देनेवाले की जरूरत और बच्चे पैदा करने पर है, जो बुढ़ापे में आपका ध्यान रखेंगे.

एक विज्ञापन में तो यह दिखाया गया है कि किस तरह से शादी न करने वालों को आखिरकार अकेले ओल्ड एज होम में अपना जीवन बिताना पड़ेगा. शादी के पक्ष में इससे अच्छी दलील मैंने आज तक नहीं सुनी!

मैंने अपना लगभग सारा जीवन मुंबई में गुजारा है, जहां पारसियों की संख्या दुनिया की किसी भी जगह की तुलना में सबसे ज्यादा है. यहां मेरी मुलाकात कई अविवाहित पुरुषों और औरतों से हुई है, जो अविश्वसनीय ढंग से संतुष्ट, अर्थवान, सुखद और मजेदार जीवन बिता रहे हैं. मुझे अच्छा लगता अगर मैं इनका परिचय ‘जियो पारसी- अभियान के पीछे के कांस्य युग में रह रहे लोगों से करा पाती.

(अनाहिता मुखर्जी पत्रकार हैं और अमेरिका में रहती हैं.)

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