गृह मंत्रालय ने राज्यों से कहा- आईटी क़ानून की धारा 66ए के तहत मामले दर्ज न किए जाएं

सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च 2015 को आईटी एक्ट की धारा 66ए रद्द कर दिया था. बीते 5 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इसे ख़त्म किए जाने के बावजूद राज्यों द्वारा इस धारा के तहत केस दर्ज किए जाने पर हैरानी जताते हुए केंद्र सरकार नोटिस जारी किया था.

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दीवार पर चित्रकारी. (क्रेडिट: wiredforlego/CC)

सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च 2015 को आईटी एक्ट की धारा 66ए रद्द कर दिया था. बीते 5 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इसे ख़त्म किए जाने के बावजूद राज्यों द्वारा इस धारा के तहत केस दर्ज किए जाने पर हैरानी जताते हुए केंद्र सरकार नोटिस जारी किया था.

(फोटो साभार: wiredforlego/CC)

नई दिल्ली: केंद्र ने बुधवार को राज्यों से पुलिस को यह निर्देश देने को कहा कि वे सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कानून, 2000 की निष्प्रभावी की गई धारा 66ए के तहत मामला दर्ज नहीं करें. यह धारा ऑनलाइन टिप्पणी करने से संबंधित है.

उल्लेखनीय है कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ऑनलाइन ‘अपमानजनक’ टिप्पणी करने को अपराध की श्रेणी में डालने वाली विवादित धारा 66ए को खत्म कर दिया था.

इस धारा के तहत कारावास की सजा का प्रावधान था. शीर्ष न्यायालय ने यह फैसला अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थकों के लंबे समय तक चलाए गए अभियान के बाद दिया था.

हाल में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि उसे इस बात की हैरानी है कि उक्त धारा को निष्प्रभावी करने के फैसले को अब तक भी लागू नहीं किया गया है.

गृह मंत्रालय की ओर से जारी वक्तव्य में कहा गया है कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी पुलिस थानों से कहें कि वे आईटी कानून की हटा दी गई धारा 66ए के तहत मामले पंजीकृत नहीं करें.

इसमें मंत्रालय ने यह अनुरोध भी किया कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यदि कोई मामला उक्त धारा के तहत दर्ज हुआ है तो ऐसे मामलों को तुरंत रद्द कर दिया जाए.

बता दें कि धारा 66ए ने पुलिस को अपने विवेक के अनुसार ‘आक्रामक’ या ‘खतरनाक’ के रूप में या झुंझलाहट, असुविधा आदि के प्रयोजनों के लिए गिरफ्तारी करने का अधिकार दिया था.

इसके तहत कंप्यूटर या कोई अन्य संचार उपकरण जैसे मोबाइल फोन या टैबलेट के माध्यम से संदेश भेजने के लिए दंड निर्धारित किया गया और दोषी को अधिकतम तीन साल की जेल हो सकती था.

सुप्रीम कोर्ट ने इस माह की शुरुआत में गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) की ओर से दायर आवेदन पर केंद्र को आईटी कानून की धारा 66ए के इस्तेमाल को लेकर नोटिस जारी किया था और कहा था कि यह हैरानी की बात है कि धारा को रद्द करने का फैसला अब तक लागू नहीं किया गया है.

एनजीओ ने शीर्ष अदालत से आग्रह किया कि वह केंद्र सरकार को धारा 66ए के तहत दर्ज मामलों के सभी आंकड़ों एवं प्राथमिकी संबंधी सूचनाएं एकत्रित करने का निर्देश दे. साथ में यह भी निर्देश दे कि वह यह जानकारी भी हासिल करे कि देश में इस धारा के तहत अदालतों में कितने मामले लंबित हैं.

पीयूसीएल ने यह भी अनुरोध किया कि शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री (संबंधित उच्च न्यायालयों के जरिये) देश की सभी जिला अदालतों को 2015 के फैसले का संज्ञान लेने के लिए पत्र भेजे, ताकि किसी भी व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी प्रतिकूल परिणाम का सामना न करना पड़े.

एनजीओ ने कहा कि केंद्र को सभी थानों के लिए परामर्श जारी करना चाहिए कि वे निरस्त धारा 66ए के तहत मामले दर्ज न करें.

सात जनवरी 2019 को पीयूसीएल के आवेदन पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा था कि यह चौंकाने वाला है कि 2015 में शीर्ष अदालत द्वारा आईटी अधिनियम की धारा 66ए को खत्म करने के बाद भी इसके तहत लोगों पर मुकदमा चलाया जा रहा है.

पीठ ने केंद्र से जवाब मांगा था और संबंधित अधिकारियों को उसके आदेशों का उल्लंघन करने के लिए जेल भेजने की चेतावनी दी थी.

महाराष्ट्र के ठाणे जिले के पालघर में सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर दो लड़कियों- शाहीन ढाडा और रिनू श्रीनिवासन को गिरफ्तार किए जाने के बाद अधिनियम की धारा 66ए में संशोधन के लिए कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने पहली बार 2012 में इस मुद्दे पर जनहित याचिका दायर की थी.

शाहीन और रीनू ने शिवसेना नेता बाल ठाकरे के निधन के मद्देनजर मुंबई में बंद के खिलाफ सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था.

जस्टिस जे. चेलमेश्वर और आरएफ नरीमन की एक पीठ ने 24 मार्च, 2015 में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘मौलिक’ बताते हुए कहा था, ‘जनता का जानने का अधिकार सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए से सीधे प्रभावित होता है.’

इस संबंध में अनेक शिकायतों के मद्देनजर शीर्ष अदालत ने 16 मई 2013 को एक परामर्श जारी कर कहा था कि सोशल मीडिया पर कथित तौर पर कुछ भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों की गिरफ्तारी पुलिस महानिरीक्षक या पुलिस उपायुक्त स्तर के वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति के बिना नहीं की जा सकती.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)