पेगासस जासूसी: हम जनतंत्र का भ्रम जी रहे हैं…

जनता जागरूक तभी हो सकती है जब वह बाख़बर हो. पिछले 7 सालों से भारत की जनता के बड़े हिस्से तक पहुंच रखने वाले समाचार-समूहों ने जैसे तय कर लिया है कि वह उसे वो ख़बर नहीं देंगे जो उसके जनतांत्रिक नागरिक के दर्जे पर असर डालने वाली होगी. इतना ही नहीं वे सूचना को विकृत करके जनता तक पहुंचाते हैं.

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(फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

जनता जागरूक तभी हो सकती है जब वह बाख़बर हो. पिछले 7 सालों से भारत की जनता के बड़े हिस्से तक पहुंच रखने वाले समाचार-समूहों ने जैसे तय कर लिया है कि वह उसे वो ख़बर नहीं देंगे जो उसके जनतांत्रिक नागरिक के दर्जे पर असर डालने वाली होगी. इतना ही नहीं वे सूचना को विकृत करके जनता तक पहुंचाते हैं.

(फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

 

‘उसका मन नहीं लगता
क्योंकि उसे पूरी सूचना नहीं मिलती
मैं उसकी क्या मदद करूं?’

रघुवीर सहाय की कविता ‘उसका मन’ पिछले 7 सालों में रह-रहकर याद आती रही है. किसे पूरी सूचना नहीं मिलती और मन नहीं लगने का क्या मतलब है? क्या वह कोई एक औरत है? इधर यह कविता फिर याद आ रही है. इसकी वजह है.

बीते दिनों द वायर  ने बतलाया कि हिंदी के तक़रीबन सारे अख़बारों ने उस खबर को या तो छापा ही नहीं या उसे दबा दिया जो अभी पूरी दुनिया की सबसे बड़ी खबरों में एक है. वह यह है कि भारत उन 10 देशों में शामिल है जिनमें पत्रकारों, राजनेताओं, न्यायाधीशों, नौकरशाहों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के फोन के ज़रिये उन पर जासूसी की जा रही है.

यह जासूसी अब तक की पारंपरिक जासूसी से अधिक ख़तरनाक है क्योंकि इसमें आप पर न सिर्फ़ हर मिनट नज़र रखी जा रही होती है बल्कि आपने जो भी सूचना अपने फोन पर सुरक्षित करके रखी है, वह सब खामोशी से चुरा ली जा सकती है. आपको पूरी तरह बेपर्द कर दिया जाता है. आपके फोन को मैं नियंत्रित कर सकता हूं, उसका मनचाहा इस्तेमाल कर सकता हूं. इस तकनीक को पेगासस कहते हैं.

इस्राइल की एक कंपनी एनएसओ के पास पेगासस का स्वत्वाधिकार है और उसके मुताबिक़ वह इसे सिर्फ़ सरकारों को या उनके द्वारा अधिकृत संस्थाओं को बेचती है. उसका दावा है कि यह आतंकवादी समूहों या उनसे जुड़े लोगों पर नज़र रखने के लिए इस्तेमाल करने को विकसित की गई है.

लेकिन जैसा वायर समेत दुनिया भर के 16 प्रतिष्ठित मीडिया समूहों की संयुक्त पड़ताल से मालूम पड़ता है, कम से कम 10 देशों में पेगासस का इस्तेमाल पत्रकारों, विपक्षी नेताओं और नौकरशाहों के ख़िलाफ़ किया जा रहा है. यह कौन कर रहा होगा, क्या इसका अनुमान करना इतना कठिन है?

क्या भारत की जनता को यह सूचना उसके पूरे ब्योरे में नहीं मिलनी चाहिए? क्या उसे इस कांड के निहितार्थ के बारे में और उसके क्या नतीजे खुद जनता के लिए हो सकते हैं, नहीं बताया जाना चाहिए?

क्या भारत के लोगों को नहीं मालूम होना चाहिए कि उनका देश इस मामले में किन देशों की क़तार में है? भारत जो खुद को जनतंत्र कहता है, और वह बड़ी हद तक अभी भी जनतंत्र है, सऊदी अरब, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, बहरीन, हंगरी, रवांडा जैसे मुल्कों में शामिल हो गया है जिन्हें हम जाहिरा तौर पर जनतंत्र नहीं कह सकते. उनकी पांत में खड़े होकर हम तस्वीर नहीं खिंचवाना चाहेंगे.

क्या यह खबर भारत की जनता को नहीं मिलनी चाहिए ? यह अलग सवाल है कि इस खबर से कौन चिंतित होता है और कौन नहीं. लेकिन यह खबर कि हम जनतंत्र का भ्रम जी रहे हैं हो सकता है, हमारे भीतर कुछ करे. इस खबर से, रघुवीर सहाय के शब्दों का ही सहारा अगर हम लें, हमारे भीतर कुछ टूटे. इस खबर के बिना हम जनतंत्र की ख़ुशफ़हमी पाले रहेंगे.

भारत में ऐसे लोग अभी भी हैं जिनके लिए जनतंत्र गंभीर मसला है. उसका होना, न होना उनके लिए जीने-मरने का सवाल है. वे सिर्फ़ ख़ास लोग नहीं हैं. वे भारत के मतदाता हैं. वे वोट देने के लिए कई बार पूरा दिन ही नहीं लगाते, दूसरे राज्यों, शहरों में अपना कामकाज छोड़कर सिर्फ वोट देने के लिए अपने मतदान क्षेत्र तक अपने पैसे से सफर करते हैं. जनतंत्र उनके लिए रोटी की तरह ही पोषण, जीवन का स्रोत है.

इस जनता के जनतंत्र का क्या हो रहा है, यह क्या उसे नहीं मालूम होना चाहिए? हम प्रायः अफ़सोस करते हैं कि जनता पर्याप्त जागरूक नहीं है. जनता जागरूक तभी हो सकती है जब वह बाख़बर हो.

खबर वही होती है जो उसके जीवन की गुणवत्ता के बारे में कुछ बतलाती है. प्रधानमंत्री ने क्या कहा, किस परियोजना का उद्घाटन किया, यह खबर नहीं है.

पिछले 7 सालों से भारत की जनता के बड़े हिस्से तक पहुंच  रखने वाले समाचार-समूहों ने जैसे एक दुरभिसंधि की है इस जनता के खिलाफ कि वे उसे वह खबर नहीं देंगे जो उसके जनतांत्रिक नागरिक के दर्जे पर असर डालने वाली घटनाओं की होगी. इतना ही नहीं वे सूचना को विकृत करके जनता तक पहुंचाते हैं.

इस बात को जनतंत्र के इतिहास में इतनी बार कहा गया है कि खबर वही असली है जिसे सत्ता बाहर नहीं आने देना चाहती. जिन संपादकों, पत्रकारों पर सरकार और उसके लोग मुक़दमे नहीं कर रहे, जिन्हें धमकी नहीं दी जा रही और अब हमें मालूम है कि जिनकी जासूसी नहीं की जा रही, वे खबरनवीस हैं या सरकार के खबरी हैं, यह समझना मुश्किल नहीं.

लेकिन जो पत्रकार सरकार और सबसे ताकतवर पूंजीपतियों के बीच के रिश्ते को उजागर करे, जो बड़े छोटे माफिया गिरोहों की खबर आप तक पहुंचाए, वह आपके हितों का रक्षक है. वे पत्रकार जब ऐसा करते हैं, तब वे अपनी ज़िंदगी, अपने चैन को दांव पर लगाते हैं. बाकी सरकार के मुंशी हैं या प्रवक्ता.

पेगासस के ज़रिये जो जासूसी करवाई जा रही है उससे यह साफ़ हो जाता है कि भारत की बहुसंख्यकवादी विचारधारा वाली सरकार, तानाशाही सरकार है.

बहुसंख्यकवाद और तानाशाही के बीच एक रिश्ता है. हर तानाशाह जनता की बहुसंख्या को यकीन दिलाना चाहता है कि वह उसे शक्तिशाली बना रहा है. अल्पसंख्यक समुदाय को अपमानित करने, उसपर हिंसा करने की छूट देकर तानाशाह बहुसंख्यक समुदाय से अपने लिए असीमित अधिकार हासिल कर लेता है. दुनिया की तानाशाहियों का इतिहास इसका गवाह है. भारत में भी यही हो रहा है.

हम यह नहीं कह सकते, अभी भी नहीं कि भारत के बहुसंख्यक समुदाय ने खुद को पूरी तरह इस सरकार के सुपुर्द कर दिया है. उस समुदाय को इसका अधिकार है कि वह सत्ता के बारे में, सरकार के बारे में सब कुछ जाने.

जनतांत्रिक समाजों में समाचार-समूह यही करते हैं. वे लगातार सत्ता पर नज़र रखते हैं, उसके कदमों की पड़ताल करते हैं और जनता तक यह सब कुछ पहुंचाते हैं.

वैसे ही ईमानदार नौकरशाह सरकार की राजनीतिक विचारधारा के अतिक्रमण से संविधान की रक्षा करते हैं. विपक्षी दल और नेता जनता की तरफ से सरकार की जवाबदेही तय करते हैं. यह करने के लिए उन्हें स्वतंत्र होना चाहिए.

एक पत्रकार के फोन की सारी सूचना जब चुरा ली जाती है तो वह सिर्फ उसका मामला नहीं है. वह जिनसे सूचना हासिल करता है, वे स्रोत भी असुरक्षित हो जाते हैं. इसका अर्थ यही आगे से उसके लिए सूचना लाना ही असंभव हो जाएगा. मुझ पर जासूसी का मतलब मेरे सारे संपर्कों की जासूसी भी है. यह दायरा छोटा नहीं है.

कुछ पत्रकार इस जासूसी की गंभीरता को ही हल्का करना चाह रहे हैं. कुछ कह रहे हैं कि हमें कोई बात ऐसी करनी ही नहीं चाहिए जो छिपानेवाली हो. कुछ कह रहे हैं कि फोन या इलेट्रॉनिक उपकरण इस्तेमाल करेंगे तो यह तो होगा ही.

वे यह बात छिपा लेना चाहते हैं कि पेगासस जैसी तकनीक सब के पास नहीं. वह मात्र फोन से जानकारी लेने का मामला नहीं है, वह फोन पर पूरा नियंत्रण हासिल कर लेने का मामला है. पेगासस के ज़रिये आपके फोन का अपनी मर्जी से मैं इस्तेमाल कर सकता हूं. क्या आप किसी को, वह सरकार ही क्यों न हो, ऐसा करने देना चाहेंगे?

भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किए गए लोगों के कंप्यूटर पर इसी तरह कब्जा करके ऐसी सामग्री उन पर डाली गई, जिन्हें उन्हीं के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया गया. यह बात आर्सेनल नामक जांच एजेंसी ने इन लोगों के कंप्यूटर की पड़ताल करके बतलाया. यानी जो मैंने लिखा नहीं, कहा नहीं, वह मेरे फोन या कंप्यूटर पर डाला जा सकता है. फिर सरकार उसे मेरे ही खिलाफ इस्तेमाल कर सकती है. शायद फादर स्टेन स्वामी के कंप्यूटर पर इसी तरह ‘सबूत’ डाला गया और बाकी लोगों के भी.

गार्डियन अखबार को एक इंटरव्यू में एडवर्ड स्नोडेन ने कहा है कि पेगासस का कारोबार तुरत बंद होना चाहिए. पेगासस की बिक्री या उसका वितरण वैसा ही है जैसे कोई कंपनी कोरोना वायरस का कारोबार करने लगे. पेगासस वायरस के खिलाफ टीका नहीं है, वह खुद वायरस है जिसका इस्तेमाल सरकारें करती हैं.

यह सब कुछ भारत की जनता को, विशेषकर हिंदी भाषी जनता को नहीं जानने दिया जा रहा है. यह जनता ही वह औरत है जो पूरी सूचना के अभाव में उदास रहती है. कविता में वाचक पूछता है कि आखिर उसकी मदद कैसे की जाए! उसकी उदासी दूर करने के लिए उसे पूरी सूचना, ज़रूरी सूचना देते रहना ज़रूरी होगा. वही हमारा कर्तव्य है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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