गौरी ने हमें फिर एक बार निडर रहना सिखा दिया

डराने की कोई साज़िश गौरी जैसी निडर आवाज़ों को नहीं दबा सकती.

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डराने की कोई साज़िश गौरी जैसी निडर आवाज़ों को नहीं दबा सकती.

Gauri Lankesh Protest
धारवाड़ में गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में प्रदर्शन (फोटो: केएच पाटिल/ द वायर)

गणेश विसर्जन के दिन गौरी चली गईं.

मैं आखिरी बार उनसे पिछले हफ़्ते कर्नाटक के मुख्यमंत्री आवास के बाहर मिला था.

मैं वहां एमएम कलबुर्गी हत्याकांड मामले की जांच में हो रही देरी पर अपना रोष ज़ाहिर करने आलोचक और सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र चेन्नी के साथ गया था. मैं जब मुख्यमंत्री सिद्धरमैया से मिलकर निकला तब उनसे मुलाकात हो गई. वे भी वहां इसी वजह से आई थीं.

वो निडर पत्रकार जो बीते हफ़्ते कलबुर्गी हत्याकांड की जांच में तेज़ी लाने के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री से मिल रही थीं, उनकी मंगलवार शाम को हत्या कर दी गई.

बिल्कुल उसी तरह, जैसे नरेंद्र दाभोलकर, कामरेड गोविंद पानसरे और डॉ. एमएम कलबुर्गी की 2013 और 2016 में जान ली गई थी. इस मामले में भी पिछली तीनों बार की तरह हत्यारों को मोटरसाइकिल पर भेजा गया, जो पॉइंट-ब्लैंक रेंज पर गोली मारकर भाग निकले.

रिपोर्ट्स बताती हैं कि गौरी पर सात गोलियां चलाई गईं. तीन हथियारों का इस्तेमाल हुआ. तीन लोगों ने पहले से सोची-समझी साज़िश के तहत इस क़त्ल को अंजाम दिया.

3 आदमी, 3 हथियार, 7 गोलियां और 55 साल की दुबली-सी थकी हुई एक अकेली औरत.

अगर विलियम ब्लेक जिंदा होते, तो पीड़ा से बुझे स्वर में पूछते,

“What immortal hand or eye
Could frame thy fearful symmetry?”

(कौन से हाथ और आंखें होंगी

जो इस तरह की भयावहता को समेट पाएंगे?)

हालांकि भयावहता या डर दिखाने की कोई साज़िश गौरी जैसी निडर और साहसी आवाज़ों को नहीं डरा सकती.

एक पत्रकार के रूप में अपने पूरे करिअर में वे बेबाक होकर बिना किसी डर के लगातार अत्याचार और नाइंसाफी के ख़िलाफ़ बोलती रहीं.

यहां तक कि जब उन्हें उनके विचारों के लिए जेल जाना पड़ा, अपनी अलग सोच के लिए कार्यकर्ताओं के बीच अकेलापन झेलना पड़ा, उनके कामों को होने वाले विवादों के चलते धमकियां मिली, तब भी वे अपने मकसद को लेकर बिल्कुल दृढ़ रहीं.

Gauri
फोटो: गौरी लंकेश/फेसबुक

क्या था वो मकसद?  यही कि दुनिया का हर स्वाभिमानी मीडियाकर्मी सच को उसके वास्तविक स्वरुप में सामने रख सके.

मंगलवार, 5 सितंबर 2017 की शाम आठ बजकर कुछ मिनट हुए थे कि गौरी की हत्या की ख़बर आई और टीवी चैनलों से मोबाइल के ज़रिये जंगल की आग की तरह फ़ैल गई.

9 बजे तक बंगलुरु, धारवाड़, गुलबर्ग, शिमोगा और कर्नाटक के विभिन्न शहरों के लोग सार्वजनिक जगहों पर जमा हो गए. उन्होंने इस बारे में बात की, मोमबत्तियां जलाकर जुलूस निकाला.

रात में, जिसे जो साधन मिला, बस या ट्रेन वो पकड़कर ये सभी लोग बंगलुरु पहुंचे, जहां सिटी टाउन हॉल में सुबह 10 बजे से एक बैठक होनी थी. सुबह होने तक ये सफर जारी रहे.

मैं धारवाड़ में रहता हूं. मैं डॉ.एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद से यहां रहने आया था. सुबह होते ही यहां मीडियाकर्मी, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, विद्यार्थी इकट्ठे होने लगे. हमने धारवाड़ के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को एक दिन के लिए बंद रखने की गुज़ारिश की है. क्या ये शिक्षक दिवस नहीं था, जब गौरी को गोली मारी गई?

गौरी की हत्या पर शोक में खड़े पत्रकारों में से कोई निजी तौर पर कभी गौरी से मिला तक नहीं. लेकिन ये मीडिया पर इस तरह हो रहे हमलों से सहमे हुए हैं. क्या मीडिया किसी लोकतंत्र का ज़रूरी हिस्सा नहीं है? ज़ाहिर तौर पर यही वो वजह है, जिसके कारण आज कई पत्रकारों को लगता है कि आज लोकतंत्र ख़तरे में है.

हम में से ज़्यादातर कल रात सो नहीं सके. आधी रात या भोर के किसी पहर याद नहीं पड़ता कब, मुझे दुनिया के किसी दूसरे कोने में बैठे राजमोहन गांधी का एक ईमेल मिला. इसमें गौरी की हत्या पर सदमा और ग़ुस्सा तो था ही, लेकिन हममें से कुछ, जो ज़्यादा मुखर रहते हैं, उनकी सुरक्षा की चिंता भी झलक रही थी.

करीब 20 महीने पहले दांडी में जब डॉ. कलबुर्गी की हत्या के विरोध में जब हम 700 लेखक, कलाकार और सामाजिक कार्यकर्ता जुटे थे, तब राजमोहन गांधी ने एक छोटा-सा वक्तव्य दिया था. उन्होंने कहा कि गांधी ने निडर रहना कस्तूरबा से सीखा था. उन्होंने कहा, ‘निडर बनो, फासीवाद से लड़ने का यही एक तरीका है.’

गौरी ने हमें फिर एक बार निडर रहना सिखाया है. हमें भी महात्मा गांधी जितनी विनम्रता से ये बात सीख लेनी चाहिए.

वक़्त बहुत अजीब है, ये बद से बदतर भी हो सकता है.

(गणेश देवी चर्चित लेखक और स्कॉलर हैं, धारवाड़ (कर्नाटक) में रहते हैं)

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