वो कौन लोग हैं जो एक निहत्थी महिला की हत्या का जश्न मना रहे हैं?

हमने बचपन से सुना था कि किसी की मौत के बारे में बुरा मत बोलो क्योंकि मरा आदमी अपनी सफाई नहीं दे सकता. पर ये लोग तो जैसे मरने का इंतज़ार कर रहे थे. ये कहां पले-बढ़े हैं, ये कहां से आते हैं?

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वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश. (फोटो साभार: फेसबुक)

हमने बचपन से सुना था कि किसी की मौत के बारे में बुरा मत बोलो क्योंकि मरा आदमी अपनी सफाई नहीं दे सकता. पर ये लोग तो जैसे मरने का इंतज़ार कर रहे थे. ये कहां पले-बढ़े हैं, ये कहां से आते हैं?

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फोटो: गौरी लंकेश/फेसबुक

बात 87-88 की है, मुझे याद है, रामायण टीवी सीरियल में जब लंका का युद्ध अंतिम चरण में था. हम सारे बच्चे आलथी-पालथी मार कर टीवी के सामने बैठ जाया करते थे. रामायण के शुरू होने के 10 मिनट पहले से. पड़ोस के शर्मा परिवार (पड़ोस के शर्मा जी हमारे भी थे) के घर में अलग-अलग भाइयों के 6-7 बच्चे थे, जो उम्र में हम से 2-3 साल छोटे या बड़े थे.

और हमेशा कुछ ऐसा होता कि सारे आसपास के घरों के बच्चे मौका ढूंढते कि साथ में रामायण का एपिसोड देखा जाए. शर्मा परिवार के बच्चों की डिमांड थोड़ी ज़्यादा थी क्योंकि उनके पास कुछ रामायण की अंदर की बातें होती जो बाकी बच्चों को पता नहीं होती थी. वो पहले से हमें आने वाले ट्विस्ट और टर्न्स के बारे में बता देते थे.

रावण ख़ास तौर पर हम सब बच्चों के लिए हमेशा चर्चा का विषय रहता. रावण का बड़ा माहौल था. राम तो बस राम थे, पर रावण कुछ अलग था. कुछ अजीब-सी बातें थीं रावण के बारे में जो हमें डराती भी थी और हैरान भी करती थीं.

हमें बताया गया था कि रावण के दस सिर हैं. हमने रामलीला मैदान में रावण का पुतला जलते देखा था इसलिए हमारे लिए इस बात पर यकीन करना बिल्कुल मुश्किल न था. हम लोग आपस में बात भी करते थे कि आखिर रावण के दस सिर होने का क्या फायदा है? सबकी इस बारे में अपनी-अपनी राय थी.

कुछ कहते थे, दस सिर होने की वजह से वो खाना ज़्यादा खाता है. कुछ कहते वो सोचता दस गुना है. कुछ कहते उसके पास दस गुना ताकत है. कुछ कहते वो दस गुना ये है और कुछ कहते वो दस गुना वो है. एक बात तो साफ थी कि वो एक आम आदमी का दस गुना था.

फिर सुनने में आया उसके 20 हाथ है, ये बात कभी कन्फर्म नहीं हुई पर 20 हाथों पर भी हम बच्चों में बड़ी चर्चा हुई. फिर तभी शर्मा जी के बच्चे ने एक और बम फोड़ दिया. पता चला रावण तो मर ही नहीं सकता है क्योंकि रावण की नाभि में अमृत है.

अमृत के बारे में हम मुसलमान बच्चों को कुछ पता नहीं था. तब बड़े वाले शर्मा जी के बेटे ने अमृत के राज खोले. मुझे याद है नीम के पेड़ के नीचे, हम सबको अमृत समझ में आया था. अमृत उल्टा है विष का. जैसे विष जान से मार देता है, बिल्कुल उसके उल्टे अमृत जान बचा लेता है.

उन दिनों हमारे पड़ोस के माथुर परिवार में एक बूढ़े दादाजी के हॉस्पिटल में थे, हाथ में ड्रिप लगी थी. अब उस ड्रिप में क्या था हमें पता नहीं था पर उस ड्रिप ने दादाजी की जान बचा ली थी. तो सबकी ये राय बनी की अमृत किसी तरह की ड्रिप है जो रावण के पेट के अन्दर है और जैसे ही वो मरने वाला होता है, वो ड्रिप चालू हो जाती है और उसकी जान बच जाती है.

फिर एक दिन शर्मा जी के किसी बच्चे ने बताया कि रावण राक्षस है. वो इंसान नहीं है. उसके लंबे दांत है, शायद सींग भी हैं. उसका रूप भयावह है और वो कच्चा मांस खाता है. जब हमने उस से पूछा कि टीवी वाला रावण तो ऐसा नहीं दीखता तो उसने कहा टीवी पे ऐसा दिखा थोड़े सकते हैं.

बात उसकी ठीक थी. ये वो दिन थे जब टीवी पर चित्रहार में गाने आ रहे होते थे और उसमे एक हीरो और हीरोइन थोड़े भी करीब आने वाले होते थे तो टीवी बंद कर दिया जाता था. जब घरों में इतनी सेंसरशिप थी, तो टीवी पे होना तो लाज़मी थी.

पर बात एक तय थी रावण का मरना इम्पॉसिबल है लेकिन रावण का मरना ज़रूरी है. हद तो ये है कि हम सबको पता था रावण मरेगा. पर फिर भी उसका मरना असंभव-सा लगता था.

रावण क्रूर था, अधर्मी था, पापी था, भयावह था. हम सब राम की तरफ थे. राम का जीतना ज़रूरी था. राम हमारी तरह था, हमारी तरह दिखता था, राम हमारा हीरो था. राम अभी बस राम था और रावण वध के बाद हमारी नजर में राम जी होने वाला था. (मुझे ये इसलिए याद है क्योंकि सब मुसलमान बच्चे रामायण के ख़त्म होने तक राम जी बोलने लगे थे)

लेकिन रावण के मरने में भी बड़ा वक्त लगा. एक के बाद एक एपिसोड गुजरते गए और रावण नहीं मर रहा था. हम सब इस बात से परेशान होने लगे थे. हमारी सांसें रुकी थीं, ये रावण मर क्यों नहीं रहा है. रोज का यही डिस्कशन था.

रावण इतना बुरा जीव, आखिर मर क्यों नहीं रहा है. ये बात हमें खाए जा रही थी. फिर एक एपिसोड में रावण मर गया. राम जी (यहां राम से राम जी का चेंज हुआ) ने अग्नि बाण मारा जो रावण की नाभि में लगा और रावण जमीन पे गिरा और मर गया.

आखिर इस लम्हे का इंतज़ार हम कितने वक्त से कर रहे थे. सब खुश हो गए.

Bengaluru: A supporter displays a poster near the mortal ramains of journalist Gauri Lankesh, who was shot dead by miscreants at her residence last night, in Bengaluru on Wednesday. PTI Photo by Shailendra Bhojak(PTI9_6_2017_000085B)
फोटो: पीटीआई

पर अभी कहानी बाकी थी. जैसे-जैसे वक्त गुजरा रावण वही ज़मीन पर मरा हुआ पड़ा था और धीरे-धीरे सारे बच्चे थोड़े परेशान से होने लगे. डायलॉग चलते रहे पर सबका ध्यान रावण के मरे हुए शरीर पर ही था.

सबसे बड़ा विलेन मर गया था पर थोड़ी देर में सबकी खुशी काफूर हो गई थी. मुझे याद है सीरियल खत्म होने के बाद जब सब नीम के पेड़ के नीचे मिले तो सब चुप से थे, फिर कोई बोला, रावण का मरना अच्छा नहीं लगा.

और सब धीरे-धीरे अच्छा न लगने का पॉइंट ऑफ व्यू बताने लगे. कोई बोला, रावण का हारना ज़रूरी था, पर मरना ज़रूरी नहीं था. कोई बोला, ईगो ने मार दिया रावण को…

कोई कुछ बोला और कोई कुछ और, पर एक-दो बच्चों को छोड़ कर सबको रावण का मरना बुरा लगा. सोचिये जिस रावण को महीनों से मरता देखना चाहते थे, उसके मृत शरीर को देखकर सबके विचार बदल गए थे.

शायद ये भी हो सकता है कि हम सब उस वक्त बच्चे थे और बच्चे मन के कच्चे होते हैं पर किसी की मौत पे हम सब दुखी थे, चाहे वो दुनिया का सबसे बड़े विलेन की ही क्यों न हो.

अभी सबने गौरी लंकेश की हत्या की तस्वीरें देखीं. उसके दस सिर नहीं थे, 20 हाथ भी नहीं, उसकी नाभि में अमृत भी नहीं था और लंबे दांत भी नहीं. 55 साल की बूढ़ी औरत थी. नीली कमीज और लाल शलवार पहने थी.

नीली कमीज के बॉर्डर पर शायद सुनहरा गोटेनुमा डिजाइन था. छाती पर कमीज खून से लथपथ थी. आंखें बंद थीं, पर ऐसा नहीं लग रहा था कि वो सो रही हैं. जमीन पर पड़ी थी, पर ऐसा नहीं लग रहा कि सो रही है. ऐसा लग रहा कि ज़मीन पर गिरी और फिर उठ नहीं पायी. जैसे कोई साइकिल चलाते हुए गिरता है और उस साइकिल में फंस के रह जाता है.

हाथ की उंगलियां ऐसे ठिठुर गई थी, जैसा शायद बेइंतिहा दर्द में होता है. उलटे हाथ पर खून के निशान थे. जिस जगह वो लेटी हुई थी, अगर ध्यान से देखें तो नीचे खून रिस रहा था.

बाल सफेद थे, जैसे अक्सर बुढ़ापे में हो जाते हैं. कोहनियों और कलाइयों से लग रहा था कि शरीर कमजोर ही रहा होगा. पतली-दुबली एक बूढ़ी औरत की लाश थी. अगर इस लाश के कपड़े बदल दो, ऊपर से खून के निशान हटा दो, बिस्तर पर लिटा दो तो आपको ऐसा लगेगा कि शायद हमारे घर की ही कोई बुआ या मौसी चल बसी.

न हाथ में चूड़ियां, न कान में बुंदे और न नाक में नथ. पैर में रबर की हील वाली चप्पलें, ये भी बताती थी कि शायद कद कम रहा होगा. न ये कैंसर से मरी, न हार्ट अटैक से.

दोपहर में खाना खाया होगा जैसे हम सब लोगों ने खाया था. कुछ कल-परसों के प्लान भी बनाये होंगे जैसे हम बनाते हैं. हो सकता है घर में दूध खत्म हो गया हो और सोच रही हो कि बाजार जाके दूध ले आऊं या शायद ये प्लान कर रही हो कि आज रात को क्या खाना है.

अब सोच क्या रही थी? इसका तो किसी को भी क्या पता, पर एक बात का तो पक्का है उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि तीन गोलियां उसके शरीर में अपना घर बनाने वाली हैं. एक तो सिर में लगेगी और दो छाती में. उसकी 55 सालों की ज़िंदगी, एक या दो इंच की गोलियां खत्म कर देंगी. सालों की जिंदगी बस एक दो इंच के सफर पर खत्म होगी.

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लेकिन गौरी के बारे में एक बात बताना भूल गया, गौरी विलेन है. सतयुग की नहीं कलयुग की क्योंकि गौरी को किसने मारा ये तो पता नहीं. पर गौरी की मौत की खुशी ने जैसे हिंदुस्तान के एक तबके में खुशी की लहर-सी दौड़ा दी. रावण के मरने की खुशी भी क्या रही होगी जो गौरी की मौत के बाद देखी गई.

एक भाई निखिल दधीच बोले, ‘एक कुतिया कुत्ते की मौत क्या मरी सारे पिल्ले एक सुर में बिलबिला रहे है.’ और फिर उसी भाई ने एक और ट्वीट किया, ‘अब ये कौन कह रहा है किसी शिष्य ने गुरु दक्षिणा में #GauriLankesh को वही दे दिया जिसकी शिक्षा वामपंथी अपने शिष्यों को देते है?’

फिर एक एक्स-ज़ी न्यूज़ की जर्नलिस्ट जागृति शुक्ला बोली, ‘So, Commy Gauri Lankesh has been murdered mercilessly. Your deeds always come back to haunt you, they say. Amen.’ मतलब, ‘तो, कॉमी (वामपंथी) गौरी लंकेश की निर्दयता से हत्या हो गई है, कहा जाता है, तुम्हारे कर्म लौट के तुम्हे डराने वापस आते है, आमीन.’

और जैसे इसके बाद तो बांध ही टूट गया, सोशल मीडिया पर शायद ऐसी खुशी की नदियां बही कि उस मरी हुई गौरी लंकेश की लाश के कपड़े भी फाड़ दिए गए. कोई कुतिया बुला रहा था तो कोई वामपंथी. कोई नक्सल तो कोई एंटी हिंदू. कोई आंतकवादी बोला तो कोई एंटी नेशनल. एक लाश थी और कई गिद्ध. ये मांस खाने वाले गिद्ध नहीं थे. ये रुहानी गिद्ध थे, जो रुहें खाते हैं. ये आत्मा का सेवन करते हैं.

हमने बचपन से सुना था कि ‘मरे के बारे में बुरा मत बोलो’ क्योंकि मरा आदमी अपनी सफाई नहीं दे सकता. पर ये लोग तो जैसे मरने का इंतज़ार कर रहे थे. ये कहां पले-बढ़े हैं, ये कहां से आते हैं?

मैं इन लोगों से क्यों नहीं मिला अपनी जिंदगी में? और ये लोग अब तक कहां थे? कहां छुपे बैठे थे, कहां ये सब सीख रहे थे? कौन इनके गुरु हैं और ये कैसी सोच है? वो कैसी दुनिया है जहां से तैयार किये जा रहे हैं?

इतनी नफरत लेकर क्या ये लोग मेरे आसपास घूम रहे हैं? क्या मेरे आसपास इतनी नफरत है जो दिलों को सियाह कर रही है? क्या इनके खून का रंग भी लाल है कि वो भी काला हो गया है? क्या इनकी ज़बान जामुनी रंग की हैं और हाथों के नाखून इतने लंबे हैं कि सीने में घोपकर आपका दिल निकाल लें?

मैं अब भी कह रहा हूं कि मुझे पता नहीं है गौरी लंकेश को किसने मारा. मुझे जानना ज़रूर है और मैं चाहता हूं गौरी लंकेश को इंसाफ मिले. क्योंकि उसका इंसाफ अब सिर्फ उसका इंसाफ नहीं है, हम सब का इंसाफ है. लेकिन हम उस देश में बड़े हुए हैं जहां रावण के मरने पर भी हमें ख़ुशी नहीं हुई थी. जहां हम सब सारे बच्चे इस बात पे सहमत थे कि ‘रावण का हारना ज़रूरी था, पर मरना ज़रूरी नहीं था.’ ऐसा क्या हुआ कि सब कुछ बदल गया.

हमारे सैद्धांतिक प्रतिद्वंद्वी कब से हमारे दुश्मन बन गए? और कब से हम वो बन गए जिनसे हमें नफरत करना सिखाया गया था? ऐसी क्रूरता हम में कब से आ गई कि हम मरी हुई लाश पर भी अपनी चोंच मारने से नहीं कतराते हैं?

‘ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ-साथ चलते?’ सिलसिला फिल्म का गाना है, आज इस गाने के मतलब ही बदल गए हैं. हम सब साथ ही तो चल रहे थे, एक मंजिल की तरफ. जिसमें हमें अपने सपनों का भारत बनाना था. हो सकता है तुम्हारा और मेरा रास्ता अलग था पर मंजिल तो एक थी? रास्ते अलग होने का मतलब दुश्मनी कब से हो गई?

मुझे पता नहीं ये नफरत अब कहां जाकर रुकेगी, पर इसका रुकना ज़रूरी है क्योंकि नफरत शराब की तरह है, उसका नशा कमाल का है पर ज़्यादा हो जाए तो धीरे-धीरे लीवर खा जाती है.

और ये नफरत हमारे देश के लीवर को धीरे-धीरे खा रही है. गौरी लंकेश ने तो अपनी जान दे दी, उन उसूलों के लिए जिसमे वो यकीन रखती थीं. अब वो उसूल सही थे या गलत ये तो समय तय करेगा. उसे किसने मारा ये पर्दा भी समय हटा देगा पर तुम्हारी जुबां से निकले जहर बुझे तीर तुम वापस न ले पाओगे.

वक्त फिर बदलेगा, कल कांग्रेस थी, आज भाजपा है, कल कोई और होगा. दुश्मनी में इतना तो पर्दा तो रखो कि कभी सड़क पर मिल जाओ तो नजरें झुका के नहीं, नजरें मिला के बात करो. और शब्द के घाव बड़े गहरे होते हैं, ऐसा कुछ मत बोलो कि जब वक्त बदले तो तुम अपने शब्द न बदल पाओ…

(दाराब फ़ारूक़ी पटकथा लेखक हैं और फिल्म डेढ़ इश्किया की कहानी लिखी है.)

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