उत्तर प्रदेश में ‘जब नगीचे चुनाव आवत है, भात मांगौ पुलाव आवत है’ का दौर शुरू हो गया है

ऐसी परंपरा-सी हो गई है कि पांच साल की कार्यावधि के चार साढ़े चार साल सोते हुई गुज़ार देने वाली सरकारें चुनाव वर्ष आते ही अचानक जागती हैं और तमाम ऐलान व वादे करती हुई मतदाताओं को लुभाने में लग जाती हैं. बीते दिनों विधानसभा में योगी आदित्यनाथ द्वारा की गई लोक-लुभावन घोषणाएं इसी की बानगी हैं.

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक/@MYogiAdityanath)

ऐसी परंपरा-सी हो गई है कि पांच साल की कार्यावधि के चार साढ़े चार साल सोते हुई गुज़ार देने वाली सरकारें चुनाव वर्ष आते ही अचानक जागती हैं और तमाम ऐलान व वादे करती हुई मतदाताओं को लुभाने में लग जाती हैं. बीते दिनों विधानसभा में योगी आदित्यनाथ द्वारा की गई लोक-लुभावन घोषणाएं इसी की बानगी हैं.

योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक/@MYogiAdityanath)

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा चुनाव से ऐन पहले लाए गए सात हजार तीन सौ एक करोड़ रुपयों के वित्त वर्ष 2021-22 के पहले व अपने कार्यकाल के आखिरी अनुपूरक बजट पर विधानसभा में हुई चर्चा का जवाब देते हुए जो लोकलुभावन घोषणाएं की हैं, उनमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है.

हाल के दशकों में प्रदेश में परंपरा-सी बन गई है कि अपनी पांच साल की कार्यावधि के चार साढ़े चार साल सोती हुई गुजार देने वाली सरकारें चुनाव वर्ष आते ही अचानक जागती हैं और ‘जो मांगोगे, वही मिलेगा’ की तर्ज पर ऐलान और वादे करती हुई मतदाताओं को पटाने लग जाती हैं.

अवध के लोकप्रिय शायर रफीक शादानी ने, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, कभी इसी पर तंज करते हुए कहा था, ‘जब नगीचे चुनाव आवत है, भात मांगौ पुलाव आवत है.’

इसलिए उनके इस कथन को सार्थक करते हुए योगी द्वारा स्नातक, परास्नातक व डिप्लोमा में दाखिला लेने वाले एक करोड़ छात्रों को डिजिटली सक्षम बनाने के लिए टेबलेट या स्मार्टफोन और प्रतियोगी छात्रों को भत्ता व छात्रवृत्ति वगैरह देने, माफियाओं से जब्त भूमि पर दलितों व गरीबों के घर बनवाने और साथ ही 28 लाख सरकारी कर्मचारियों व पेंशनधारकों, दस साल फील्ड कार्मिकों, युवाओं, वकीलों और कोरोना योद्धाओं के भत्तों, मानदेयों और निधियों वगैरह में वृद्धि के ऐलानों की आलोचना में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि 2017 में समूची राजनीतिक संस्कृति बदल डालने के वायदे पर चुनकर आई सरकार के मुखिया के तौर पर चुनाव वर्ष में अचानक पिछली सरकारों की लकीर की फकीरी उनकी कार्यकुशलता से ज्यादा विवशता का ही परिचय दे रही है.

यह विवशता इस अर्थ में कहीं ज्यादा निराश करती है कि कई सर्वे दावा कर रहे हैं कि उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है. वाकई ऐसा है तो उन्हें प्रदेशवासियों, खासकर युवाओं को मुफ्त की उस लत को फिर से ‘जगाने’ की क्या जरूरत थी, जो पिछली ‘समाजवादी’ सरकार उनके मुंह लगा गई थी?

लेकिन इस सवाल का जवाब वे क्योंकर देने लगे, जब गर्वान्वितहो छाती चौड़ी कर रहे हैं कि समूचे कोरोनाकाल में उन्होंने मुफ्त राशन वितरण की बदौलत प्रदेश में किसी भी गरीब को भूख से नहीं मरने दिया. हालांकि उनके इस गर्व से एक प्रतिप्रश्न यह भी पैदा होता है कि अगर बड़ी संख्या में गरीब आज भी अपनी प्राणरक्षा के लिए मुफ्त सरकारी राशन पर निर्भर करते हैं तो आत्मनिर्भर भारत के उस सपने का क्या होगा, जिसे प्रधानमंत्री के साथ मिलकर वे प्रायः दिखाते रहते हैं?

विडबंना देखिए: कोई नहीं जानता कि प्रदेश की कौन-सी योजना है, जिसे योगी ‘आत्मनिर्भर भारत की दिशा में किया जा रहा प्रयत्न’ नहीं बताते, लेकिन विधानसभा में एक घंटे से ज्यादा के अपने भाषण में युवाओं को नए युग के सृजन संबंधी कविता सुनाते हैं, तो सब कुछ उन्हीं के हाथ में बताकर भी उन्हें रोजी-रोजगार के प्रति आश्वस्त करने से ज्यादा जोर मुफ्त टेबलेट व लैपटॉप और प्रतियोगी भत्ते के लालच में फंसाने पर देते हैं.

इससे उन्हें 2012 में समाजवादी पार्टी द्वारा छात्रों को ऐसा ही लालच देकर सत्ता पा लेने के इतिहास की पुनरावृत्ति की उम्मीद हो तो हो, लेकिन कैसे कह सकते हैं कि इससे किसी नये युग का सृजन होगा? वह तो तभी सृजित हो सकता है, जब युवाओं को राजनीति की सीढ़ी बनाने के बजाय रोजी-रोजगार देकर अपने पैरों पर खड़ा किया जाए.

लेकिन इसके लिए दूरदर्शी व दीर्घकालिक रणनीति की जरूरत होती है और चुनाव से चुनाव तक की सोचने वाले राजनीतिक दलों व नेताओं में इस रणनीति को बनाने और अमल में लाने का धैर्य नहीं होता.

अभी भी हालत यह है कि युवाओं को डिजिटल तकनीक में सक्षम बनाने का इरादा भी सरकारी अनुग्रह का मोहताज है और उसका तकिया उपयुक्त प्रशिक्षण से ज्यादा उपकरण मुहैया करा देने भर पर है.

तिस पर इस सवाल का जवाब भी अभी अधर में है कि युवाओं को डिजिटली सक्षम बनाने के अनुपूरक बजट के तीन हजार करोड़ रुपयों के प्रावधान से एक करोड़ स्मार्ट फोन या टेबलेट कहां से और कैसे खरीदे जाएंगे? इन्हें औसतन तीन हजार रुपये प्रति की दर से खरीदा जाएगा तो क्या उनमें इतने ‘फीचर’ होंगे कि वे युवाओं के काम आ सकें? अगर नहीं तो क्या वे झुनझुने होकर नहीं रह जाएंगे?

यहां कह सकते हैं कि अभी विभिन्न वर्गों के नाराज मतदाताओं को पटाने की योगी सरकार की कोशिशों का अभी यह आगाज ही है और उनके तरकश में नये तीरों की कोई कमी नहीं है. एक तीर तो उन्हें हाल में ही किए गए उस संविधान संशोधन ने भी दे दिया है, जिसको राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति दिए जाने के साथ ही राज्यों का ओबीसी सूची बनाने का अधिकार बहाल हो गया है.

जानकारों की मानें, तो इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए योगी सरकार पिछड़े वर्गों के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण के सिलसिले में उनको पिछड़ी, अति पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी तीन श्रेणियों में बांटकर सबका अलग-अलग हिस्सा तयकर खुद ‘वास्तविक सामाजिक न्याय’ की योद्धा बनने की कोशिश भी कर सकती है.

बताने की जरूरत नहीं कि इस बहाने वह अपने चेहरे, चाल और चरित्र में बदलाव के हवाले से अभी पिछड़ों में प्रभुत्व रखने वाली जातियों से खफा अन्य पिछड़ी जातियों को अपने पाले में खींच लाने का सुनहरा सपना देखना चाहेगी.

हम जानते हैं कि भाजपा कहती भले है कि वह जातियों की राजनीति नहीं करती, लेकिन जातीय समीकरणों को अपने अनुकूल रखने की कोई भी कवायद छोड़ती नहीं है. केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार के बाद नये मंत्रियों की जाति बताने से भी परहेज नहीं ही बरतती. ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का उसका पुराना नारा अब उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं को याद दिलाइए, तो वे हंसने लगते हैं.

प्रसंगवश, जाति और धर्म के साथ पटाने, मुफ्त देने और सब्जबाग दिखाने की राजनीति ने देश के इस सबसे बड़े प्रदेश को जमीनी हकीकतों से दूर ले जाकर और वास्तविक समस्याओं को और जटिल बनाकर उसका कितना नुकसान किया है, अब इसकी कल्पना भी डराती है.

इस बात को इस तथ्य से समझ सकते हैं कि पिछले दिनों टोक्यो ओलंपिक में छोटे-छोटे प्रदेशों से गए भारतीय खिलाड़ी किसी भी ओलंपिक में देश के अपने अब तक के प्रदर्शन के रिकॉर्ड को तोड़ और पदक जीत रहे थे तो उत्तर प्रदेश की भूमिका महज तालियां बजाने या टुकुर-टुकुर देखने तक ही सीमित थी. उसका कोई प्रतिभागी किसी प्रतिस्पर्धा में पदक के नजदीक तक भी नहीं पहुंच पा रहा था.

निस्संदेह, इसका कारण प्रदेश के खिलाड़ियों की प्रतिभा में नहीं उनके अच्छे प्रदर्शन के आड़े आने वाली तैयारी व प्रशिक्षण वगैरह की असुविधाओं में था. लेकिन इस स्थिति को इस कदर नियति मान लिया गया है कि न इसे लेकर विपक्ष ने सरकार को घेरा और न सरकार ने इसकी किंचित शर्म महसूस की.

उसे इसका थोड़ा बहुत गम हुआ भी तो उसे उसने देश का मान बढ़ाने वाले दूसरे प्रदेशों के खिलाड़ियों पर धनवर्षा में गलत कर डाला. जैसे प्रदेश में खेल सुविधाओं का विकास कर प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की नई पौध तैयार करने का रास्ता वहीं से होकर गुजरता हो. इसके अलावा कुछ किया गया तो बस लखनऊ में कुश्ती अकादमी खोलने, कुश्ती व एक अन्य खेल को गोद लेने व मेरठ में बन रहे खेल विश्वविद्यालय को ध्यानचंद का नाम देने का ऐलान. इतने भर से भला क्या हासिल हो सकता है?

कहीं है कोई जो प्रदेश के सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के दलों व नेताओं से कहे कि बहुत नुकसान हो चुका, अब तो इस प्रदेश को प्रश्नों के बजाय उत्तरों का प्रदेश बनाने की सोचना और इसके वास्तविक मुद्दों पर गौर फरमाना शुरू करें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)