‘दुर्भावनापूर्ण मामले वापस लेने के ख़िलाफ़ नहीं, पर सरकारों को हाईकोर्ट से मंज़ूरी लेनी चाहिए’

सुप्रीम कोर्ट जघन्य अपराधों में दोषी पाए गए जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके मुक़दमों का शीघ्र निपटारा करने के अनुरोध संबंधी जनहित याचिका सुन रहा है. कोर्ट ने जांच और सुनवाई में अत्यधिक देरी पर भी चिंता जताई और केंद्र से कहा कि वह ज़रूरी मानव संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराए.

(फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट जघन्य अपराधों में दोषी पाए गए जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके मुक़दमों का शीघ्र निपटारा करने के अनुरोध संबंधी जनहित याचिका सुन रहा है. कोर्ट ने जांच और सुनवाई में अत्यधिक देरी पर भी चिंता जताई और केंद्र से कहा कि वह ज़रूरी मानव संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराए.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि कानून के तहत राज्य सरकारों को ‘दुर्भावनापूर्ण’ आपराधिक मामलों को वापस लेने का अधिकार है. शीर्ष अदालत ने कहा कि वह ऐसे मामलों को वापस लिए जाने के खिलाफ नहीं है, लेकिन ऐसे मामलों पर संबंधित उच्च न्यायालयों की तरफ से गौर किया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) की तरफ से दर्ज मामलों की जांच और सुनवाई में अत्यधिक देरी पर भी चिंता जताई और केंद्र से कहा कि वह जरूरी मानव संसाधन और बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराए.

प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ व जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर एक विस्तृत आदेश पारित करेगी.

इसके साथ ही पीठ ने कहा कि वह ईडी या सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों पर कुछ भी नहीं कह रही या कोई राय नहीं व्यक्त कर रही क्योंकि इससे उनका मनोबल प्रभावित होगा. लेकिन उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुनवाई जल्दी पूरी हो.

पीठ ने कहा, ‘हम जांच एजेंसियों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते क्योंकि हम उनका मनोबल नहीं गिराना चाहते. इन अदालतों में 200 से अधिक मामले हैं. तुषार मेहता को यह कहते हुए खेद है कि ये रिपोर्ट अधूरी हैं. 10 से 15 साल तक आरोपपत्र दाखिल नहीं करने के लिए कोई कारण नहीं बताया गया है. सिर्फ करोड़ों रुपये की संपत्ति कुर्क करने से कोई मकसद पूरा नहीं हो जाता.’

शीर्ष अदालत अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने का अनुरोध किया गया है.

मामले में न्याय मित्र के रूप में नियुक्त वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने शुरुआत में पीठ को बताया कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों पर सीबीआई और ईडी की स्थिति रिपोर्ट परेशान करने वाली और चौंकाने वाली है.

प्रधान न्यायाधीश रमना ने कहा, ‘अदालत ने ईडी और सीबीआई की रिपोर्ट पर गौर किया है, लेकिन हमारे लिए यह कहना आसान है, मुकदमे में तेजी लाना आदि. लेकिन हम यह भी जानते हैं कि इससे कई मुद्दे जुड़े हैं. न्यायाधीशों, अदालतों और बुनियादी ढांचे की कमी है. मैंने संक्षेप में कुछ नोट भी तैयार किए हैं. 2012 से ईडी के कुल 76 मामले लंबित हैं. सीबीआई के 58 मामले आजीवन कारावास से जुडे हैं और सबसे पुराना मामला 2000 का है.’

पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर पहले ही सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से अपनी नाराजगी और आपत्ति जता चुकी है और उनसे कुछ करने को कहा है.

पीठ ने कहा, ‘आपको इस मुद्दे पर कुछ करना होगा मिस्टर मेहता. हमें इस तरह अधर में नहीं छोड़ें.’

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, हंसारिया ने कहा कि कई राज्य सरकारों द्वारा केवल यह कहकर मामलों को वापस लिया जा रहा है कि ये दुर्भावनापूर्ण मामले हैं, जिन्हें पिछली राजनीतिक व्यवस्था द्वारा बिना किसी अन्य कारण के स्थापित किया गया था.

पीठ ने कहा, ‘हम राज्य सरकारों द्वारा मामलों को वापस लेने खिलाफ नहीं हैं. उनके पास ऐसा करने की शक्ति है, अगर उन्हें दुर्भावना से स्थापित किया गया है, लेकिन हम जो कह रहे हैं, उनकी न्यायिक अधिकारी या उच्च न्यायालय द्वारा जांच की जानी चाहिए. मामलों को वापस लेने के लिए सरकारों को उच्च न्यायालयों का रुख करना चाहिए. हम इस बिंदु की जांच करेंगे और आवश्यक निर्देश जारी करेंगे.’

सुनवाई के दौरान मेहता ने कहा कि शीर्ष अदालत जांच एजेंसियों को छह महीने के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश दे सकती है और निचली अदालत को समयबद्ध तरीके से सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया जा सकता है.

हंसारिया ने पीठ को बताया कि जो मामले ईडी और सीबीआई के समक्ष जांच लंबित है, उसके लिए एक निगरानी समिति का गठन किया जा सकता है जिसमें शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, निदेशक, ईडी (या उनके नामित व्यक्ति), निदेशक, सीबीआई (या उनके नामित), भारत सरकार के गृह सचिव (या उनके नामित) और एक न्यायिक अधिकारी जो इस न्यायालय द्वारा नामित जिला न्यायाधीश के पद से नीचे नहीं हैं शामिल हों.

पीठ ने मेहता से समिति गठित करने के सुझाव पर अपना जवाब दाखिल करने को कहा.

मेहता ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में पैसा ज्यादातर विदेशों में रखा जाता है और फंड के बारे में पता लगाने में समय लगता है. एजेंसी को अलग-अलग देशों को अनुरोध पत्र भेजना पड़ता है और उनके जवाबों का इंतजार करना पड़ता है, जिससे काफी समय लगता है.

हंसारिया ने कहा कि ईडी और सीबीआई द्वारा दर्ज 50-60 फीसदी मामलों की जांच 10 से 12 साल से लंबित है और इसमें तेजी लाई जानी चाहिए.

पीठ ने हंसारिया से कहा कि न्यायपालिका की तरह जांच एजेंसियों को भी श्रमशक्ति की कमी का सामना करना पड़ रहा है और उसे इन मुद्दों पर व्यावहारिक दृष्टिकोण रखना होगा और सॉलिसिटर जनरल इसे कमी के बारे में बता सकते हैं.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘हम जानते हैं कि श्रमशक्ति असल मुद्दा है. हमें व्यावहारिक रुख अपनाना होगा. हमारी तरह ही, जांच एजेंसियां भी श्रमशक्ति की कमी का सामना कर रही हैं. आप देखिए, आज हर कोई सीबीआई जांच चाहता है.’

उन्होंने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, ‘मुद्दे पर हमें आपका सहयोग चाहिए. आप हमें जांच एजेंसियों में श्रमशक्ति के अभाव के बारे में अवगत कराएं.’

पीठ ने कहा कि वह अपने आदेश में यह भी स्पष्ट करेगी कि किसी मौजूदा या पूर्व विधायक को दोषी ठहराए जाने के बाद उच्च न्यायालय में उसकी अपील पर प्राथमिकता के आधार पर नहीं बल्कि सामान्य तरीके से सुनवाई की जानी चाहिए.

शीर्ष अदालत ने कहा कि वह इस मामले में विस्तृत आदेश जारी करेगी.

शीर्ष अदालत को सूचित किया गया कि 51 मौजूदा और पूर्व सांसदों सहित 120 से अधिक सांसदों पर मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप है, जिनकी जांच प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है, जबकि 121 अन्य पर सीबीआई ने विभिन्न आपराधिक अपराधों के लिए मामला दर्ज किया है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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