पुलिस हिरासत में मौत हमेशा से चिंता का विषय रहा है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1997 में एक व्यक्ति की हिरासत में मौत के मामले में पुलिसकर्मी को ज़मानत देने से इनकार करते हुए यह टिप्पणी की. शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि 28 दिसंबर, 1997 को कुछ पुलिसकर्मी उनके घर आए और उनके पिता को अपने साथ ले गए. उन्होंने आरोप लगाया है कि उनके पिता को बेरहमी से पीटा गया, जिसकी वजह से थाने में ही उनकी मृत्यु हो गई.

इलाहाबाद हाईकोर्ट. (फाइल फोटो: पीटीआई)

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1997 में एक व्यक्ति की हिरासत में मौत के मामले में पुलिसकर्मी को ज़मानत देने से इनकार करते हुए यह टिप्पणी की. शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि 28 दिसंबर, 1997 को कुछ पुलिसकर्मी उनके घर आए और उनके पिता को अपने साथ ले गए. उन्होंने आरोप लगाया है कि उनके पिता को बेरहमी से पीटा गया, जिसकी वजह से थाने में ही उनकी मृत्यु हो गई.

इलाहाबाद हाईकोर्ट. (फोटो: पीटीआई)

इलाहाबाद: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति को जान से मारने के आरोपी एक पुलिसकर्मी की जमानत याचिका खारिज करते हुए बीते बुधवार को कहा कि हिरासत में व्यक्ति के साथ हिंसा और उसकी मौत, हमेशा से ही सभ्य समाज के लिए चिंता का विषय रहा है.

शेर अली नाम के पुलिसकर्मी की जमानत याचिका खारिज करते हुए जस्टिस समित गोपाल ने डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय का हवाला दिया, जिसमें न्यायालय ने पुलिस हिरासत में मौत पर नाराजगी जाहिर करते हुए आरोपी की गिरफ्तारी के लिए दिशानिर्देश जारिए किए थे, ताकि ऐसी घटनाएं रोकी जा सकें.

मौजूदा मामले में शिकायतकर्ता संजय कुमार गुप्ता ने आरोप लगाया कि 28 दिसंबर, 1997 को कुछ पुलिसकर्मी उनके घर आए और उनके पिता गोरखनाथ उर्फ ओम प्रकाश गुप्ता को अपने साथ ले गए. बाद में पुलिसकर्मियों द्वारा उन्हें बताया गया कि उनके पिता की हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई.

पुलिस के इस बयान को नकारते हुए शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उनके पिता को बेरहमी से पीटा गया, जिसकी वजह से थाने में ही उनकी मृत्यु हो गई.

इस मामले में शेर अली के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 364 (हत्या के लिए अपहरण या अपहरण), 304 (गैर इरादतन हत्या) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी.

मालूम हो हाल ही में केंद्र सरकार ने संसद में बताया था कि पिछले तीन साल के दौरान पुलिस हिरासत में 348 लोगों, जबकि न्यायिक हिरासत में 5,221 लोगों की मौत हो गई.

बताया गया था कि उत्तर प्रदेश में 2018 से 2020 के दौरान 23 लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हो गई, जबकि न्यायिक हिरासत में 1,295 लोगों की मौत हो गई.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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