अगर एनपीए की चिंता है तो छोटे देनदार नहीं, बड़े कारोबारी क़र्ज़दारों के पीछे जाएं बैंक: कोर्ट

केनरा बैंक ने तिरुचिरापल्ली की सोशल सर्विस सोसाइटी को 48.8 लाख रुपये की राशि, जो 1994-95 में 1,540 लोगों को क़र्ज़ दी गई थी, को चुकाने के लिए उत्तरदायी बनाने का अनुरोध किया था, जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने ख़ारिज कर दिया था. बैंक ने इसे शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी, जिसने हाईकोर्ट का निर्णय बरक़रार रखा.

New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
(फोटो: पीटीआई)

केनरा बैंक ने तिरुचिरापल्ली की सोशल सर्विस सोसाइटी को 48.8 लाख रुपये की राशि, जो 1994-95 में 1,540 लोगों को क़र्ज़ दी गई थी, को चुकाने के लिए उत्तरदायी बनाने का अनुरोध किया था, जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने ख़ारिज कर दिया था. बैंक ने इसे शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी, जिसने हाईकोर्ट का निर्णय बरक़रार रखा.

New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को कुछ हजार रुपये के छोटे-मोटे कर्ज लेने वालों के पीछे पड़ने के बजाय बड़े कारोबारी कर्जदारों से कर्ज वसूलने में अपनी उर्जा लगानी चाहिए.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस धनंजय वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने केनरा बैंक से कहा, ‘आपको बड़ी मछली पकड़ने पर ध्यान देना चाहिए. यदि आप वास्तव में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बढ़ते एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्ति) के बारे में चिंतित हैं, तो बड़े कॉरपोरेट देनदारों पर ध्यान केंद्रित करें, ऐसे छोटे कर्जदारों पर नहीं.’

देय तिथि से कम से कम 90 दिनों तक भुगतान न किए जाने के बाद ऋणों को गैर-निष्पादित माना जाता है और इसके बाद कर्जदार डिफॉल्ट हो सकते हैं.

शीर्ष अदालत की पीठ इस साल मार्च में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ केनरा बैंक की अपील पर सुनवाई कर रही थी.

हाईकोर्ट ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक द्वारा तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली के सोशल सर्विस सोसाइटी को 48.8 लाख रुपये की राशि चुकाने के लिए उत्तरदायी बनाने के प्रयास को रद्द कर दिया था, जो 1994-95 में 1,540 व्यक्तियों को ऋण के रूप में दिया गया था.

हाईकोर्ट ने माना था कि केनरा बैंक सोसाइटी की फिक्स्ड डिपॉजिट से अपने बकाया ऋण की वसूली नहीं कर सकता है क्योंकि उधारकर्ताओं द्वारा ऋण चुकाने में विफलता के मामले में कोई औपचारिक अनुबंध या सोसायटी से वसूली का स्पष्ट समझौता नहीं था.

बैंक का प्रतिनिधित्व करते हुए वरिष्ठ वकील ध्रुव मेहता शीर्ष अदालत में कहा कि तिरुचिरापल्ली मल्टीपर्पज सोशल सर्विस सोसाइटी ने गारंटी पत्र दिए कि वे उधारकर्ताओं से ऋण की अदायगी का आश्वासन देंगे और यह केवल इस आश्वासन पर ही राशि जारी की गई थी.

लेकिन पीठ ने कहा कि बैंक ने डीआईआर योजना के तहत कम आय वाले समूहों को वित्तीय सहायता के लिए ऋण दिया था.

पीठ ने मेहता से कहा, ‘ये रकम छोटी खेती, मुर्गी पालन, डेयरी से जुड़े लोगों या व्यापारियों और कारीगरों को दी जाती थी. ये हाशिए के तबके हैं. इनमें से कुछ इन फॉर्मों पर लगने वाली अपनी फोटो के लिए 10 रुपये भी नहीं दे सकते हैं. और निस्संदेह सोसाइटी ने इन लोगों को पहचानने में आपकी मदद की. अब सोसाइटी के पीछे क्यों जा रहे हो?’

पीठ ने आगे कहा, ‘समाज के कुछ वर्गों को ऋण देना भी एक सामाजिक कार्य है. यह केवल एक आर्थिक कार्य नहीं है. आपको नैतिक जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए.’

इस पर मेहता ने कहा कि बैंक पहले से ही एनपीए की समस्या से जूझ रहे हैं और इससे उबरने के लिए वसूली की जानी है.

हालांकि, अदालत ने कहा, ‘ये ऐसे लोग नहीं हैं जिनके पीछे पड़ना चाहिए. आपको बड़ी मछली के पीछे जाना चाहिए. केनरा बैंक को इस तरह की सोसाइटी के खिलाफ अपील नहीं करना चाहिए था.’

मेहता ने कहा कि बैंक ने अपील इसलिए की है क्योंकि अनुच्छेद 136 ((व्यापक विवेकाधिकार शक्ति के साथ विशेष अनुमति याचिका) के तहत याचिका एक ब्रह्मास्त्र है.

केनरा बैंक की अपील को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, ‘संविधान ने हमें यह ब्रह्मास्त्र केवल यह सुनिश्चित करने के लिए सौंपा है कि हम इसका उपयुक्त मामलों में ही उपयोग करें. और यह वैसा मामला नहीं है.

इसने हाईकोर्ट के आदेश को भी बरकरार रखा, जिसमें कहा गया था कि बैंक को इस तरह का मामला लड़ने से बचना चाहिए और इसके बजाय अपनी ऊर्जा और संसाधनों को बेहतर मामलों में लगाना चाहिए.

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