क्या कम मज़दूरी और देर से भुगतान नरेगा श्रमिकों की दुखती रग बनते जा रहे हैं

कम वेतन में कड़ी मेहनत करने वाले नरेगा श्रमिकों के लिए जटिल केंद्रीकृत भुगतान प्रणाली दुस्वप्न साबित हुई है. केंद्र को चाहिए कि वह ऐसा सरल, विकेंद्रीकृत तंत्र बनाए जिसमें भुगतानों को मंज़ूरी और भुगतान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो. ऐसा तंत्र नरेगा में और अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देगा.

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(फोटो: रॉयटर्स)

कम वेतन में कड़ी मेहनत करने वाले नरेगा श्रमिकों के लिए जटिल केंद्रीकृत भुगतान प्रणाली दुस्वप्न साबित हुई है. केंद्र को चाहिए कि वह ऐसा सरल, विकेंद्रीकृत तंत्र बनाए जिसमें भुगतानों को मंज़ूरी और भुगतान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो. ऐसा तंत्र नरेगा में और अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देगा.

(फोटो: रॉयटर्स)

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) के तहत भुगतान करने को लेकर केंद्र सरकार का रवैया अपनी मेहनत की कमाई मिलने का लंबे समय तक इंतजार करने वाले मजदूरों के साथ एक भद्दा मजाक है. स्थानीय स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचारों के कारण कई लोगों को तो उनका भुगतान तक नहीं मिलता है.

बेहद ही कम वेतन में कड़ी मेहनत करने वाले नरेगा मजदूरों के लिए जटिल केंद्रीकृत भुगतान प्रणाली एक कभी न खत्म होने वाला दुस्वप्न साबित हुई है.

यह सभी जानते हैं कि मजदूरों द्वारा लंबे समय से सम्माजनक मजदूरी की मांग की जा रही है. इसके बावजूद भी नरेगा में मिलने वाली मजदूरी राज्य में मिलने वाली न्यूनतम कृषि मजदूरी के भी समान नहीं है और शर्मनाक ढंग से लगातार कम बनी हुई है.

आइए समझते हैं कि केंद्रीकृत नरेगा भुगतान प्रणाली और आधिकारिक प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) दोनों मिलकर कैसे भुगतान तय करने में एक बड़ा भ्रम पैदा करते हैं.

नरेगा भुगतान प्रणाली केंद्र द्वारा दो चरणों में बांटी गई है. स्थानीय स्तर पर भुगतान जारी करने के चरण को ‘चरण एक’ के रूप में परिभाषित किया गया है और केंद्र सरकार द्वारा मजदूरों के बैंक खाते में भुगतान भेजने को ‘चरण दो’ कहा जाता है.

चरण एक में स्थानीय स्तर पर विभिन्न प्रक्रियाएं शामिल हैं और यह स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है. इसमें भरे हुए ‘मस्टर रोल’ (मजदूरों के दैनिक उपस्थिति पत्र) को एमआईएस में दर्ज करना होता है और फिर ‘वेतन सूची’ (श्रमिकवार वेतन भुगतान की जानकारी) तैयार होती है.

अलग-अलग समूहों में भुगतान करने के लिए ऐसी अनेक वेतन सूचियों को अलग-अलग फंड ट्रांसफर ऑर्डर (एफटीओ) में क्रमवार लगाया जाता है.

इसके बाद, अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा एफटीओ पर डिजिटल रूप में हस्ताक्षर करने की जरूरत होती है. अधिकांश राज्यों में पंचायत सचिव पहले हस्ताक्षरकर्ता होते हैं जबकि खंड विकास अधिकारी दूसरे. हालांकि, कई राज्यों ने पंचायत प्रमुखों (मुखिया या सरपंच) को भी दूसरे हस्ताक्षरकर्ता के रूप में अधिकृत किया है, जिसका अर्थ है कि उनके पास भुगतानों को मंजूरी देने का अधिकार होता है.

एक बार जब दोनों अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा एफटीओ पर डिजिटल रूप से हस्ताक्षर कर दिए जाते हैं, तो भुगतान प्रक्रिया प्रणाली का पहला चरण समाप्त हो जाता है और दूसरा शुरू होता है.

चरण दो में, केंद्र सरकार राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली (एनईएफएमएस) का उपयोग करते हुए फंड ट्रांसफर ऑर्डर को सीधे मजदूरों के खाते में आगे बढ़ाती है. यह काम किसी एक ही बैंक के जरिये होता है.

यह पूरी प्रक्रिया मस्टर रोल की अंतिम तिथि से 15 दिनों के भीतर पूरी करना जरूरी है और कानून के अनुसार, मजदूरों को उनका भुगतान 15 दिनों के भीतर मिल जाना चाहिए.

बहरहाल, केंद्र ने अपने एमआईएस में यह दिखाने के लिए एक तंत्र स्थापित किया है कि 15 दिनों के भीतर बड़ी तादाद में ‘भुगतान जारी’ हो जाते हैं. लेकिन इसका व्यावहारिक रूप से मतलब यह है कि चरण एक की प्रक्रियाएं 15 दिनों के भीतर पूरी की जा रही हैं.

हालांकि, क़ानून के मुताबिक पूरी भुगतान प्रक्रिया 15 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए इसलिए यह केवल नागरिकों को गुमराह करने और समय पर भुगतान किए जाने का भ्रम पैदा करने वाली एक सरकारी चाल है जो क़ानून का स्पष्ट उल्लंघन है.

हकीकत यह है कि भुगतान नियमित तौर पर देरी से हो रहे हैं. यहां तक कि बहुत बार केंद्र की ओर से ही देरी होती है. फिर भी एमआईएस यह दिखाता रहता है कि अधिकांश भुगतान 15 दिनों के भीतर जारी हो जाते हैं.

उदाहरण के लिए, आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद रिपोर्ट संख्या आर.8.8.1 के अनुसार, 7 सितंबर तक अगस्त महीने के करीब 44 फीसदी भुगतान केंद्र सरकार की ओर से लंबित हैं. इन भुगतानों के तहत करीब 2,846 करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि बतौर मजदूरी मजदूरों को देनी है. हालांकि, उसी वेबसाइट यह दिखाया जाता है कि 99 फीसदी भुगतान समय पर जारी हुए हैं.

स्वाभाविक तौर पर कोई भी पूछेगा ही कि दूसरे चरण के भुगतान चक्र में देरी का प्रतिशत क्या है? पूछने के लिए यह एक गलत सवाल है. क़ानून के मुताबिक, हमें मस्टर रोल की अंतिम तिथि से 15 दिनों के भीतर मजदूरों को भुगतान सुनिश्चित करने के बारे में चिंतित होना चाहिए और चरण एक व चरण दो में देरी की अलग-अलग गणना करने संबंधी जाल में नहीं फंसना चाहिए.

सरकार द्वारा गढ़ी गई शब्दावली के अनुसार, हमें यह देखना चाहिए कि मस्टर रोल की समाप्ति की तारीख से 15 दिनों के भीतर भुगतान चक्र का दूसरा चरण पूरा हुआ है या नहीं. वेबसाइट पर सार्वजनिक तौर से उपलब्ध रिपोर्ट के साथ इसे ट्रैक करने के लिए हमारे पास कोई तंत्र नहीं है.

इसके बजाय, मंत्रालय ‘स्टेज टू ट्रैकिंग‘ नामक एक रिपोर्ट लेकर आया है जो किसी भी बिंदु पर केंद्र सरकार की तरफ से लंबित भुगतानों की संख्या दिखाती है.

हालांकि, एक बार जब सरकार द्वारा भुगतानों को मंजूरी दे दी जाती है तो इसके बाद रिपोर्ट में से लंबित लेन-देन और राशियों को घटा दिया जाता है. इसलिए यह किसी भी रूप में चरण दो में होने वाली देरी का सही मापक नहीं है और हमें यह नहीं बताता है कि निर्धारित समय-सीमा के भीतर मजदूरों के बैंक खातों में भुगतान जमा किया जा रहा है या नहीं.

उल्लेखनीय है कि दूसरे चरण की ट्रैकिंग रिपोर्ट भी वेबसाइट पर तब दिखना शुरू हुई, जब 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भुगतानों में देरी की पूरी संख्या नरेगा वेबसाइट पर दिखाने और उसके मुताबिक मजदूरों को मुआवजा देने के निर्देश केंद्र सरकार को दिए थे.

हालांकि, वेबसाइट पर उपलब्ध वर्तमान रिपोर्ट्स 15 दिनों से अधिक विलंबित लेन-देनों की कुल संख्या या ऐसे लेन-देनों में शामिल कुल धनराशि नहीं दिखाती हैं. जो कि स्पष्ट तौर पर अदालती आदेश की अवमानना है.

सरकार को भुगतान में देरी कम करने और वर्तमान देरी की सही स्थिति दिखाने की व्यवस्थाएं दुरुस्त करने के लिए पारदर्शी होकर काम करना चाहिए, लेकिन इसके बजाय सरकार ने अत्यधिक जटिल एमआईएस के जरिये लोगों को भ्रमित करने का गलत तरीका चुना है.

गौरतलब है कि अधिकांश मजदूरों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं, इंटरनेट या वेबसाइट तक उनकी पहुंच नहीं है. उन्हें कभी यह स्पष्ट ही नहीं हो पाता है कि भुगतानों में इतनी लंबी देरी का क्या कारण है और भुगतान अटक कहां रहा है?

आम तौर पर जब वे फ्रंटलाइन अधिकारियों या कार्यस्थल पर मौजूद पर्यवेक्षकों (जो आम तौर पर उनके साथी ही होते हैं) से पूछते हैं, तो उन्हें यह आम जवाब मिलता है कि, ‘अभी एमआईएस नहीं हुआ है.’ इसलिए मजदूरों के लिए एमआईएस शब्द भुगतान में होने वाली देरी का करीब-करीब समानार्थी शब्द है.

इसलिए सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार भुगतानों में देरी की सीमा की गणना भी नहीं करती है?

2018 में सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार ने कहा था कि 2016-17 में केवल 17 फीसदी और 2017-18 में केवल 43 फीसदी भुगतान समय पर (यानी 15 दिनों के भीतर) हुए थे, जिसका अर्थ है कि वे इस पर नज़र तो रखते हैं लेकिन जानबूझकर रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करते हैं.

वहीं, आधार-आधारित प्रणाली के जरिये भुगतान संबंधी सभी समस्याओं को दुरुस्त करने का केंद्र का दावा एक सफेद झूठ है.

केंद्र सरकार के दावे के विपरीत, नरेगा भुगतान प्रणाली में आधार की शुरुआत नुकसानदेह साबित हुई है और इसने मजदूरों का समय पर भुगतान सुनिश्चित करने में कई चुनौतियां पैदा की हैं.

(फोटो: पीटीआई)

नरेगा भुगतान प्रणाली से आधार के जुड़ाव ने कई बड़ी समस्याओं को जन्म दिया है, जिसमें आधार और बैंक एकाउंट लिंक करने में त्रुटि के चलते भुगतान गलती से मजदूरों की जगह किसी और के बैंक खाते में चले जाते हैं और बड़ी संख्या में लेन-देन रद्द हो जाते हैं. त्रुटि का कारण ‘निष्क्रिय आधार’ दिखाया जाता है.

यह आमतौर पर एक ऐसी घटना है जहां आधार कार्ड आधारित भुगतान जारी किया जाता है लेकिन किसी कारणवश बैंक मजदूर के खाते से आधार को हटा या डी-लिंक कर चुका होता है.

इसके अलावा कई राज्यों से बार-बार ऐसी खबरें आई हैं जहां आधार के कारण लोगों को योजना से बाहर किया गया है. आधार न होने के कारण कई राज्यों में असली जॉब कार्ड धारक और मजदूरों के नाम सूची से हटा दिए गए हैं.

गांवों में नरेगा पर करीब से निगरानी रखने वाला व्यक्ति जानता है कि नरेगा में भुगतान का मुद्दा आधार लिंक करने के मामले तक ही सीमित नहीं है, इसका गहरा संबंध स्थानीय स्तर पर योजना के क्रियान्वयन की गुणवत्ता से भी है.

उदाहरण के लिए, देश भर में अनेक मजदूर काम करते समय अपने स्वयं के जॉब कार्ड का उपयोग भी नहीं करते हैं. वे किसी और के जॉब कार्ड पर काम करते हैं और जॉब कार्ड धारक उन्हें उनकी पूरी मजदूरी के एक भाग का भुगतान नकद में करता है.

अक्सर प्रभावशाली स्थानीय लोग प्रशासन की मदद से इस तरीके से पैसा कमाने के लिए मजदूरों के जॉब कार्ड का उपयोग करते हैं.

इसी तरह, मजदूर कार्यस्थल पर काम करना तो शुरू कर देते हैं लेकिन अक्सर काम करने के कुछ दिनों बाद ही उन्हें समझ आता है कि ई-मस्टर रोल में उनका नाम नहीं चढ़ा है. उन्हें ऐसे कार्य दिवसों का कभी भुगतान नहीं किया जाता है.

गौरतलब है कि केंद्र द्वारा आवंटित धन का करीब 70% इस वर्ष (31 अगस्त तक) खर्च हो चुका है और वर्ष के पहले पांच महीनों के भीतर कम से कम दो बार ऐसा हुआ है कि मजदूरों को भुगतान लगभग एक महीने की देरी से किया गया हो.

ऐसे हालात में पर्याप्त बजट आवंटन और समय पर भुगतान जारी न होने की स्थिति में नरेगा के जमीनी कार्यान्वयन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और आगे जाकर यह काफी धीमा हो जाएगा.

ऊपर से, सरकार ने हाल ही में एक जाति-आधारित भुगतान प्रणाली शुरू की है जिसमें एफटीओ को तीन विभिन्न जातिगत श्रेणियों (एससी, एसटी और अन्य) में पृथक किया जाएगा और सभी श्रेणी की भुगतान प्रक्रिया को अलग-अलग आगे बढ़ाया जाएगा. यह व्यवस्था न केवल अनावश्यक है बल्कि इससे जटिलताएं और बढ़ेंगी व भुगतान में देरी होगी.

सरकार को केवल उन सभी लोगों को समय पर भुगतान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिन्होंने इस योजना के तहत काम किया है. सरकार को उनकी मेहनत की कमाई के साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए.

केंद्र सरकार को चाहिए कि वह ऐसा सरल, विकेंद्रीकृत तंत्र बनाए जिसमें भुगतानों को मंजूरी देने और भुगतान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो. ऐसा तंत्र नरेगा में और अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देगा. साथ ही, स्थानीय शासकीय संस्थानों को भी मजबूती प्रदान करेगा.

(लेखक नरेगा संघर्ष मोर्चा से जुड़े हैं और पिछले 12 वर्षों से झारखंड और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में काम कर चुके हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)