मैं तुम्हारी भाषा से प्यार करता हूं

हिंदी दिवस पर विशेष: हम अपनी भाषा की महानता की गाथा में दूसरी भाषाओं के प्रति एक स्पर्धाभाव ले आते हैं. यह ठीक बात नही है. इससे किसी भी भाषा को आगे बढ़ने और दूसरे भाषायी-सांस्कृतिक स्थलों पर फूलने-फलने की संभावना न्यूनतम हो जाती है.

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(फोटो साभार: सोशल मीडिया)

हिंदी दिवस पर विशेषहम अपनी भाषा की महानता की गाथा में दूसरी भाषाओं के प्रति एक स्पर्धाभाव ले आते हैं. यह ठीक बात नही है. इससे किसी भी भाषा को आगे बढ़ने और दूसरे भाषायी-सांस्कृतिक स्थलों पर फूलने-फलने की संभावना न्यूनतम हो जाती है.

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आज 14 सितंबर है. आज हिंदी दिवस है. इस दिन हमें हिंदी भाषा से अपने प्यार का इजहार करना चाहिए. तमाम प्रकार की असहिष्णुताओं के इस दौर में भाषायी असहिष्णुता से बचते हुए हमें इसके साथ यह भी कहना होगा कि हम जो भी भाषा अपने रोजमर्रा के जीवन में बररते हैं, उस पर भी गर्व करना चाहिए.

दूसरे लोग दूसरी अन्य भाषाओं के साथ भी ऐसा ही महसूस करते होंगे, इसे भी खुले दिल से मानना चाहिए. अगस्त 2017 में पूरे भारत के भाषा विज्ञानी, संस्कृतिकर्मी और कलानुरागी दिल्ली में इकठ्ठा हुए थे.

वे सब भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण के विभिन्न खंडों के विमोचन का उत्सव मना रहे थे. इस अवसर पर भाषाविद गणेश नारायण देवी ने कहा कि भारत एक महान देश है. इसकी समस्त भाषाएं महान हैं. दुनिया के अन्य देश भी महान हैं. वहां पर बोली जाने वाली भाषाएं भी महान हैं.

वास्तव में हम अपनी भाषा की महानता की गाथा में दूसरी भाषाओं के प्रति एक स्पर्धाभाव ले आते हैं. यह ठीक बात नही है. इससे किसी भी भाषा को आगे बढ़ने और दूसरे भाषायी-सांस्कृतिक स्थलों पर फूलने-फलने की संभावना न्यूनतम हो जाती है.

दूसरी भाषा के प्रति हिकारत का भाव रखना ठीक बात नहीं है. पूरी दुनिया में देखा गया है कि शासक वर्ग से संबंधित भाषाओं ने गैर शासक वर्ग की भाषाओं के प्रति उपेक्षा भाव दिखाया है. जिन लोगों पर शासन किया गया उनकी भाषाओं को प्रतिस्थपित कर शासक वर्ग की भाषाओं को उन पर लाद दिया गया. भारत में अंग्रेजी शासन ने और अल्जीरिया में फ्रांस के शासन ने यही किया.

भारत में अंग्रेजी शासन के समय प्रिंट कल्चर का विस्तार हुआ. व्याकरणों, शब्दकोषों, निबंधों, पुस्तकों एवं अनुवादों का निर्माण कर अंग्रेजों ने एक नए प्रकार के तंत्र का निर्माण किया जिससे शासन करना आसान हो गया.

इसे ही मानवशास्त्री बर्नार्ड कोन कमांड आफ लैंग्वेज कहते थे. जब भारत आजाद हुआ तो भाषा का सवाल आ खड़ा हुआ. अनुसूचित भाषाओं की एक श्रेणी के द्वारा भारत की कुछ भाषाओं को कानूनी दर्जा मिला. शेष को उपेक्षित होने के लिए छोड़ दिया गया.

इसके बाद जिन भाषाओं के पास ज्यादा लोग थे उन्होंने भी कानूनी दर्जा प्राप्त कर लिया. कानून से मान्यता प्राप्त भाषाओं में नौकरी मिलने लगी. इसमें ज्ञान-विज्ञान सिरजा जाने लगा. अंग्रेजी के साथ-साथ कई भारतीय भाषाएं नौकरी करने की भाषा बनीं. इसमें हिंदी भी नौकरी और ज्ञान-विज्ञान की एक भाषा है.

अंग्रेज मालिकों से आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी लड़ाई की भाषा बनी. अन्य भारतीय भाषाएं यही काम कर रही थीं. उनमें अखबार निकाले गए, परचे छापे गए और कवियों ने कविताएं लिखीं. जिन समूहों के पास प्रिंट कल्चर की पहुंच नहीं हो पाई या जिन्होंने इसे नहीं अपनाया, उन्होंने भी अपनी भाषा में आजादी की लड़ाई लड़ी. भारत में बोली जाने वाली हर भाषा आजादी की लड़ाई में शरीक थी.

नौकरी और ज्ञान-विज्ञान की भाषा

हिंदी अब नौकरी और ज्ञान विज्ञान की भाषा बन चुकी है. देश में चालीस से अधिक केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं. अभी मेरे एक दोस्त को सिक्किम विश्वविद्यालय में हिंदी के सहायक अध्यापक की नौकरी मिली है.

कुछ और दोस्त इंतजार में हैं कि नार्थ इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी में जगह आए तो वे अपना आवेदन पत्र भेजें. महाराष्ट्र में महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित हिंदी विश्वविद्यालय काम कर रहा है. इस विश्वविद्यालय ने समाज विज्ञान का एक कोष और हिंदी भाषा का शब्दकोश निकाला है.

मूलतः अंग्रेजीदां प्रोफेसरों की जगह माने जाने वाले सेंटर फार द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटी ने हिंदी भाषा में अपने तरह का पूर्व समीक्षित जर्नल निकाला है जिसका दसवां अंक जुलाई-दिसम्बर 2017 में आएगा.

आज पेंगुइन और रूपा जैसे प्रकाशन संस्थान हिंदी भाषा में अनुवाद और मूल सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं तो सेज पब्लिकेशंस से हिंदी में किताबें अनूदित होकर आ चुकी हैं. भारत में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस हिंदी में अनूदित और मूल हिंदी भाषा में लिखी पुस्तकें लेकर आ रहा है.

हिंदी के समाचार चैनल न केवल सूचना के साधन हैं बल्कि वे सरकार के पक्ष या विपक्ष बन चुके है. वायर, फर्स्टपोस्ट, क्विंट जैसी वेबसाइटें सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही हैं.

भविष्य की भाषा हिंदी

भविष्य यदि हिंदी पट्टी के राज्यों से निकली राजनीति का है तो इसमें हिंदी की बड़ी भूमिका होने वाली है लेकिन उसे अपना दिल बड़ा करना होगा. इसे मैं उत्तर प्रदेश के उदहारण से समझाना चाहता हूं. हिंदी भाषा इस राज्य में सबसे ज्यादा बोली जाती है.

गणेश देवी के निर्देशन में जो भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण हुआ उसमें बद्री नारायण के साथ में उत्तर प्रदेश की भाषाओं को इकट्ठा करने का मौका मुझे भी मिला. उत्तर प्रदेश के गांवों में भाषा के नमूने इकट्ठे करते समय मैंने देखा है कि किस प्रकार पढ़े-लिखे हिंदी भाषी समूह ने सीमांत भाषा-भाषी समूहों के साथ वही व्यवहार किया है जो अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं के साथ उन्नीसवीं शताब्दी में किया था.

सार्वजनिक जगहों, बसों और रेलों में सीमांत भाषा-भाषी समूह आपस में या तो बात नहीं करते या बहुत धीमे स्वर में बात करते हैं. एक लोकतांत्रिक देश में कोई पूरी आवाज के साथ बात क्यों नहीं कर सकता?

आज हालात यह हैं कि उत्तर प्रदेश के हिंदी भाषी जन मातृभाषा के नाम पर अवधी और भोजपुरी का ढिंढोरा पीटते रहते हैं. इस शोर में ब्रज, बुंदेली और बघेली का कोई नामलेवा नहीं है.

जिन क्षेत्रों में यह भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें इन भाषाओं की सांस्कृतिक समृद्धि का सोता कभी सूखा ही नहीं लेकिन उसे आगे लाने का प्रयास नहीं किया गया. यदि किया भी जाता है तो उसमे एक भाषायी लड़ाकूपन लाने के हास्यास्पद प्रयास किये जाते हैं.

इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में नेपाली और सिंधी जनों की एक बड़ी संख्या रहती है. सिंधी भाषा को बढ़ावा देने के लिए तो कुछ काम दिल्ली की नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आॅफ सिंधी लैंगवेजेज कर रही है, नेपाली को अपनी राह बनानी है. 1989 से प्रदेश सरकार ने उर्दू को दूसरी शासकीय भाषा का दर्जा दे रखा है लेकिन इसके बहुत कम नामलेवा बचे हैं.

इन भाषाओं का निर्माण सैकड़ों-हजारों साल में हुआ है. यह काम किसी भी भाषा के प्रोफेसर ने नहीं किया बल्कि जन सामान्य ने किया है. वास्तव में अक्षर ज्ञान से रहित समूह ही बोली या भाषा बचाए रखते हैं. वे इसे रचते हैं.

जब यह प्रक्रिया एक स्पष्ट आकार ग्रहण कर लेती है और इसमें तमाम सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां रची जा चुकी होती हैं तो व्याकरण और मानकों के द्वारा पढ़ा-लिखा समूह इस पर अधिकार जमाने का प्रयास करता है और फिर शुरू हो जाता है यह बताना कि क्या व्याकरण सम्मत है और क्या नहीं है.

व्याकरण सम्मत भाषा तो वही बोल सकते हैं जिनकी पाठशाला तक पहुंच रही है. पाठशाला के बाहर के लोग इस विमर्श से सीमांतीकृत कर दिए जाते हैं. हिंदी भाषी प्रदेशों को देखना है कि वे कौन लोग हैं जो पाठशाला से बाहर हैं और उन्हें इसके अंदर कैसे लाना है.

जब तक हर आदमी को उसके मन के अनुसार शिक्षा नहीं मिल जाती है तब तक भाषा दिवस समारोह कर्मकांड से ज्यादा की हैसियत नहीं रखते हैं.

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में कई सीमांत समूह हैं जो विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रीय भाषाओं की दुनिया के बीच में कई अन्य भाषाओं को बचाए हुए हैं. इन पर विद्वत्तजगत ने ध्यान नहीं दिया है. ऐसा इन भाषाओं में नौकरियों के अवसर न होने के कारण है.

उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना नदी के किनारे के मल्लाहों की एक भाषा और संख्या पद्धति है जिसे हमने दर्ज करने का प्रयास किया है. इसी प्रकार मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के घुमंतू समुदायों की विशिष्ट भाषाएं और संख्या पद्धतियां हैं. इन घुमंतू समुदायों का एक समृद्ध मौखिक साहित्य है. जिसे इन समुदायों ने अपनी अंदरूनी दुनिया के भाषाई परिसरों में बचाए रखा है.

पढ़े-लिखे और स्थायी जीवन जीने वाले लोग प्रिंट कल्चर में मुद्रित ज्ञान और भाषा को न केवल अपना ज्ञान और भाषा मान लेते हैं बल्कि इसके द्वारा वे एक संरचनात्मक श्रेष्ठता बोध भी स्थापित करने का प्रयास करते हैं. हिंदी भाषा बोलने वाले प्रभावशाली तबके भी यही करते हैं.

उत्तर प्रदेश के महावतों, नटों, बहेलियों, संपेरों, कंजरो और पारधी समुदाय के लोगों ने अपनी भाषाओं को इसी प्रकार बचाए रखा है. उनकी भाषा में भी वही सब बाते हैं जो दुनिया की अन्य भाषओं में होती है, जैसे यह दुनिया कैसे बनी? इस दुनिया को कौन लोग चलाते हैं? वे जिस स्थान पर इस समय बसे हुए हैं, वहां पर कैसे आये?

आज जब हम हिंदी भाषा के बारे में बात कर रहे हैं तो हमें केवल उन भाषाओं या बोलियों के बारे में बात नहीं करनी है जो दृश्यमान हैं या जो दृश्यमान समूहों द्वारा बोली जाती हैं. हमें इस अंग्रेजी बनाम अन्य अथवा हिंदी बनाम अन्य के विमर्श में बदलने से भी बचना चाहिए.

इसे भाषायी चेतना की अल्प दृष्टि कहें या असहिष्णुता कि हमारा मानस यह मानने को प्रस्तुत नहीं हो पाता कि ठीक हमारे इर्द-गिर्द एक बोली या भाषा सांस ले रही है. उसे सुनने की जरूरत है. उस दुनिया के नागरिकों से परिचय की जरूरत है.

हम अपने देश को प्यार करने का दावा करते रहते हैं. जब तक हम उसकी सभी भाषाओं को प्यार नहीं कर पाएंगे तब तक उससे प्यार का दावा कैसे कर सकते हैं?

(रमाशंकर सिंह ने अभी हाल ही में जी. बी.पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है)

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