मध्य प्रदेश: बरसों से उपेक्षित आदिवासी समुदाय अचानक राजनीति के केंद्र में क्यों आ गया है

हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने और इस रोज़ भव्य आयोजन करने की घोषणा की थी. सरकार व भाजपा संगठन का कहना है कि 15 नवंबर तक वे प्रदेश भर में जनजातियों से जुड़े विभिन्न आयोजन करेंगे. विपक्षी कांग्रेस भी प्रदेश में ‘आदिवासी अधिकार यात्रा’ निकाल रही है.

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18 सितंबर को आजादी की लड़ाई में शहीद हुए आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस पर मुख्यमंत्री आउट भाजपा प्रदेशाध्यक्ष समेत विभिन्न नेताओं के साथ अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने और इस रोज़ भव्य आयोजन करने की घोषणा की थी. सरकार व भाजपा संगठन का कहना है कि 15 नवंबर तक वे प्रदेश भर में जनजातियों से जुड़े विभिन्न आयोजन करेंगे. विपक्षी कांग्रेस भी प्रदेश में ‘आदिवासी अधिकार यात्रा’ निकाल रही है.

18 सितंबर को आजादी की लड़ाई में शहीद हुए आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस पर मुख्यमंत्री और भाजपा प्रदेशाध्यक्ष समेत विभिन्न नेताओं के साथ अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह 18 सितंबर को मध्य प्रदेश के जबलपुर में राज्य सरकार द्वारा आयोजित एक समारोह में शरीक हुए थे. यह समारोह आजादी की लड़ाई में शहीद हुए आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस पर आयोजित किया गया था.

समारोह संबोधित करते हुए अमित शाह ने जनजातीय (आदिवासी) हित में भाजपा सरकारों द्वारा संचालित योजनाएं गिनाईं और कई घोषणाएं कीं. पिछली कांग्रेस सरकारों पर जनजातीय वर्ग की उपेक्षा करने के आरोप भी लगाए. लगे हाथों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी राज्य में पेसा (पंचायत, अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार क़ानून, 1996) क़ानून लागू करने की घोषणा कर दी.

उन्होंने और भी घोषणाएं कीं, जैसे कि राज्य के आदिवासी बहुल 89 विकासखंडों के करीब 24 लाख परिवारों को घर-घर सरकारी राशन पहुंचाने के लिए ‘राशन आपके द्वार’ योजना की शुरुआत और छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम राजा शंकरशाह के नाम पर रखना.

गौरतलब है कि पिछले कुछ महीनों से राज्य में आदिवासी समुदाय सुर्खियों में हैं. हाल ही में मुख्यमंत्री ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने और इस दिन भव्य आयोजन करने की घोषणा की थी. सत्ता व भाजपा संगठन का कहना है कि 15 नवंबर तक वे प्रदेश भर में जनजातियों संबंधी विभिन्न आयोजन करेंगे. इन्हीं आयोजनों की एक कड़ी में 18 सितंबर को अमित शाह मध्य प्रदेश आए थे.

मध्य प्रदेश भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष कल सिंह भाबर ने द वायर  को बताया, ‘हमने पेसा क़ानून धरातल पर उतारने के लिए 5 अक्टूबर से आयोजन शुरू किए हैं. हम सांस्कृतिक आयोजन भी करेंगे. प्रकृति, आदिवासी संस्कृति व तीज-त्योहारों की रक्षा के लिए हम प्रत्येक पंचायत में भी कार्यक्रम करने जा रहे हैं.’

‘जनजातीय गौरव दिवस’ मनाने का मकसद बताते हुए वे कहते हैं, ‘जब-जब देश पर विपत्ति आई, उससे निपटने में जनजातीय समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही. राष्ट्र, धर्म, जाति और समाज की रक्षा हेतु जनजातीय वर्ग के वीर योद्धा मुगलों और अंग्रेजों से लड़े इसलिए बिरसा मुंडा जयंती हम गौरव दिवस के रूप में मनाएंगे.’

दूसरी ओर विपक्षी कांग्रेस भी प्रदेश में ‘आदिवासी अधिकार यात्रा’ निकाल रही है. छह सितंबर को बड़वानी में इसकी औपचारिक शुरुआत हुई थी जिसमें कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ समेत राज्य के कई दिग्गज कांग्रेसी शामिल हुए थे.

मध्य प्रदेश कांग्रेस अनुसूचित जनजाति मोर्चा के अध्यक्ष अजय शाह ने द वायर  को बताया कि अभी इस यात्रा के चार चरण और बाकी हैं.

वे बताते हैं, ‘अभी बड़वानी में आयोजन किया था. अगले आयोजन महाकौशल के मंडला और डिंडोरी क्षेत्र में करेंगे. तीसरा चरण अनूपपुर और शहडोल में होगा और चौथा सिंगरौली में.’

अजय के मुताबिक, यात्रा के दौरान आदिवासियों को समझाया जाता है कि आज उनके पास जो कुछ भी है वो आरक्षण, पांचवी अनुसूची, पेसा क़ानून, वनाधिकार क़ानून, एट्रोसिटी एक्ट के कारण है. यह सारे अधिकार कांग्रेस ने दिए थे.

अजय कहते हैं, ‘हम उन्हें बताते हैं कि जितनी भी परियोजनाएं आती हैं, बड़े बांध निर्माण या विस्थापन होते हैं तो सिर्फ आदिवासी क्षेत्रों में ही इसलिए होते हैं क्योंकि आपको विस्थापित करना आसान है. भाजपा आपके साथ नहीं है, बस वोट के लिए आगे-पीछे घूमती है. इस तरह हम भाजपा को बेनकाब करते हैं.’

राज्य के आदिवासी वर्ग के बीच तीसरा विकल्प बनकर उभर रहा जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) भी 24 अक्टूबर को मनावर क्षेत्र में ‘आदिवासी युवा महापंचायत’ का आयोजन करने वाला है. तो वहीं, हाल ही में मध्य प्रदेश के राज्यपाल बने मंगुभाई पटेल भी आदिवासी क्षेत्रों के लगातार दौरे करने को लेकर सुर्खियों में हैं. दौरों पर वे आदिवासियों से चर्चा करते हैं, उन्हें संबोधित करते हैं और उनके घर भोजन करते देखे जा सकते हैं.

आदिवासियों को प्रभावित करने, अपना बताने और अपना बनाने की इस चौतरफा कवायद से प्रश्न उठता है कि यह उपेक्षित तबका अचानक से राजनीति के केंद्र में कैसे आ गया?

वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी धार-झाबुआ जैसे आदिवासी बहुल इलाकों वाले मालवा-निमाड़ अंचल से ही ताल्लुक रखते हैं. वे बताते हैं, ‘देश में सर्वाधिक आदिवासी मध्य प्रदेश में रहते हैं. झाबुआ-अलीराजपुर जैसे जिलों में तो 85-90 फीसदी आदिवासी हैं. 2018 के सत्ता परिवर्तन में आदिवासी वोट अहम था, जिसकी बदौलत कांग्रेस सरकार बनी.’

वे आगे कहते हैं, ‘लेकिन सिंधिया की बगावत से 29 सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस की हार ने उसके सत्ता वापसी के द्वार बंद कर दिए तो उसने 2023 के विधानसभा चुनावों पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया. कांग्रेस यह ध्यान में रखकर कि पिछली बार आदिवासी और दलित समुदाय के बूते उसने चुनाव जीता था, आक्रामक होकर जनजातीय मुद्दों पर खास ध्यान देने लगी. उसकी सक्रियता देखकर भाजपा भी आदिवासियों के बीच अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए छटपटाने लगी.’

बता दें कि 230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में 20 फीसदी यानी 47 सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हैं. जानकारों के मुताबिक, करीब 70 सीट पर आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव है.

2003 में राज्य में भाजपा की वापसी में आदिवासी वर्ग का अहम योगदान था. तब 41 सीट एसटी आरक्षित थीं, जिनमें 37 भाजपा जीती जबकि कांग्रेस को महज दो सीट मिलीं. अगले दो चुनावों में भी आदिवासी भाजपा के साथ रहा और वह सत्ता में बनी रही.

2008 में एसटी सीट की संख्या बढ़कर 47 हो गई. 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा क्रमश: 29 और 31 सीट जीती, जबकि कांग्रेस क्रमश: 17 और 15 सीट जीती. लेकिन, 2018 में पासे पलट गए. भाजपा की सीटें आधी रह गईं. वह 16 पर सिमट गई. जबकि कांग्रेस की सीट बढ़कर दोगुनी (30) हो गईं और उसने सरकार बना ली.

चुनाव में भाजपा ने कुल 109 और कांग्रेस ने 114 सीट जीतीं. हार-जीत का अंतर इतना मामूली था कि यदि आदिवासी मतदाता भाजपा से नहीं छिटकता तो उसकी सरकार बननी तय थी.

समूचे प्रदेश में एनडीटीवी के लिए रिपोर्टिंग करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनुराग द्वारी कहते हैं, ‘कांग्रेस-भाजपा दोनों के पास राज्य में आदिवासी नेतृत्व के नाम पर कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो वोट दिला सके. दोनों की स्थिति डांवाडोल है. कांग्रेस आदिवासियों में अपना जनाधार बचाने के लिए जूझ रही है तो भाजपा उसे झपटने के लिए जाल बुन रही है.’

वे आगे कहते हैं, ‘इस बीच जयस विकल्प बनकर उभरा है. उसके साथ आदिवासी युवा ज्यादा जुड़ते दिख रहे हैं, जो कांग्रेस-भाजपा के लिए चिंताजनक है, इसलिए उन्होंने अभी से ही बिसात बिछाकर आदिवासियों को प्रभावित करने की जोर-आजमाइश शुरू कर दी है.’

आदिवासी नेतृत्व की बात करें तो मध्य प्रदेश का दुर्भाग्य है कि सबसे अधिक आदिवासी जिस राज्य में रहते हैं, वहां उनका कोई सर्वमान्य नेता तक नहीं है. जानकार मानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा ने यहां कभी आदिवासी नेतृत्व को आगे बढ़ाया ही नहीं.

अनुराग कहते हैं, ‘सन अस्सी के करीब शिवभानु सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन कांग्रेस ने नहीं बनाया. आज भी उमंग सिंघार हाशिये पर हैं. पार्टी कभी उनके साथ खड़ी नहीं होती. जबकि वे युवा और होनहार हैं.’

वर्तमान में कांग्रेस में बतौर आदिवासी नेतृत्व पूर्व प्रदेशाध्यक्ष कांतिलाल भूरिया का नाम सामने आता है, लेकिन उनका प्रभाव केवल झाबुआ तक सीमित है. अनुराग कहते हैं, ‘उनका प्रभुत्व पहले जैसा नहीं रहा. बाप (कांतिलाल) और बेटे (विक्रांत) दोनों को भाजपा के एक ही शख्स गुमान सिंह डामोर ने हरा दिया था.’

भाजपा में भी हालात जुदा नहीं हैं. आदिवासी नेतृत्व के नाम पर केवल केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते नज़र आते हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी केवल अपने संसदीय क्षेत्र मंडला तक सीमित है. इस तथ्य से दोनों ही दल वाकिफ हैं. इसी कारण जयस भी आदिवासियों के बीच पैर जमाने में सफल हुआ.

जानकारों के मुताबिक, भाजपा अब गुजरात के आदिवासी नेता मंगुभाई पटेल को मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाकर उनके माध्यम से आदिवासियों के साथ जुड़ने की कोशिश कर रही है. उल्लेखनीय है कि मंगुभाई गुजरात सरकार में आदिवासी कल्याण मंत्री रहे थे.

गोपनीयता की शर्त पर राज्य के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद गुजरात विधानसभा चुनावों से ठीक पहले तक राज्यपाल हुआ करते थे. वे जिस वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, उसकी संख्या गुजरात में खासी अच्छी है. भाजपा ने उस वर्ग के बीच उनकी छवि को काफी भुनाया था. इसलिए आश्चर्य नहीं कि मध्य प्रदेश में भी राज्यपाल के जरिये भाजपा अपनी सियासत साध रही हो.

बहरहाल, कांग्रेस-भाजपा में नेतृत्वविहीनता के बीच कुछ सालों पहले ही चंद पढ़े-लिखे आदिवासी युवाओं द्वारा धार जिले से शुरू हुए ‘जयस’ में आदिवासी वर्ग अपना नेतृत्व देखने लगा है. जयस का प्रभाव कांग्रेस-भाजपा दोनों स्वीकारते हैं.

अजय शाह कहते हैं, ‘वास्तव में जयस, कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खतरा है. यह पढ़े-लिखे लेकिन बेरोजगार आदिवासी युवाओं का समूह है जिनमें आगे बढ़ने की ललक है लेकिन वे छटपटा रहे हैं कि कहां जाएं? पहले आदिवासी मुखर और साक्षर नहीं था, लेकिन नया युवा इंटरनेट और सोशल मीडिया चलाना जानता है इसलिए जयस का प्रभाव बढ़ता दिखता है.’

हालांकि, कल सिंह भाबर जयस को कांग्रेस की ‘बी’ टीम बताते हुए कहते हैं, ‘जयस सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहा है. उसने कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ा था. वह आदिवासियों का उत्थान नहीं कर सकता. उसका मकसद केवल राजनीतिक रोटियां सेंकना है. भाजपा उसे या किसी को भी चुनौती नहीं मानती.’

हालांकि उनके दावों से इतर हकीकत यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जयस को अपने पाले में लाने की पुरजोर कोशिश की थी. लेकिन उसने कांग्रेस को चुना क्योंकि कांग्रेस ने उसकी मांगें मान लीं. तब जयस संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा ने कांग्रेस से मनावर सीट पर चुनाव लड़कर भाजपा मंत्री रंजना बघेल को बड़े अंतर से हराया था.

हालांकि, जयस अब कांग्रेस से भी खफा है. जयस के संस्थापक सदस्य रविराज बघेल द वायर  से कहते हैं, ‘जयस एक स्वतंत्र सामाजिक संगठन है. उसका किसी भी राजनीतिक दल से समझैता नहीं है. पिछले विधानसभा चुनाव के समय चूंकि हमारी पार्टी रजिस्टर्ड नहीं थी, इसलिए हमने दोनों दलों के सामने अपने मुद्दे रखे थे कि जो इन पर हमारा साथ देगा, हम उनका साथ देंगे. उन मुद्दों पर कांग्रेस के साथ समझौता हुआ. जिसके तहत डॉ. अलावा कांग्रेसी टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन उन्होंने कभी कांग्रेस की सदस्यता नहीं ली.’

रविराज बताते हैं कि सरकार बनने पर कांग्रेस ने उनके साथ वादाखिलाफी की. वे कहते हैं, ‘दोनों ही दलों ने आदिवासी मुद्दों की अनदेखी की है. इसलिए आगामी विधानसभा चुनाव में हम नया नेतृत्व देने पर काम कर रहे हैं. लेकिन अगर दोनों दलों में से कोई भी हमें लिखित आश्वासन देकर आदिवासी मुद्दों पर प्रतिबद्धता दिखाता है तो हम उसके साथ जाने का सोचेंगे. आज हमें राज्य में बतौर तीसरा मोर्चा देखा जा रहा है तो इसे हम साकार भी करेंगे.’

वे कहते हैं, ‘हम युवा नेतृत्व विकसित कर रहे हैं. आगामी पंचायत चुनावों से लेकर विधानसभा और लोकसभा में नेतृत्व देने पर मंथन करने के लिए ही महापंचायत का आयोजन किया है.’

जानकारों के मुताबिक, जयस का यह रुख भी भाजपा-कांग्रेस की हालिया सक्रियता का एक कारण है. जिससे आदिवासी, राजनीति के केंद्र में आ गया है.

अनुराग कहते हैं, ‘जयस को युवाओं का अपार समर्थन है. अगर वह स्वतंत्र चुनाव लड़ा तो भले ही जीतने में सफल न हो, लेकिन हरवाने में सफल हो जाएगा. इसलिए आदिवासी वर्ग में अगर कांग्रेस को अपनी ज़मीन बचानी है, तो भाजपा को अपनी ज़मीन वापस पानी है. नतीजतन दोनों ज़मीन पर उतर आए हैं.’

वरिष्ठ पत्रकार शम्स उर रहमान अलवी कहते हैं, ‘शहर ही देश चलाते हैं, पर वहां आदिवासियों की बसाहट नहीं है. इसलिए उनके मुद्दे सुर्खियां नहीं पाते. लेकिन अब पढ़-लिखकर शहरी जीवनशैली में शामिल हुआ राज्य का आदिवासी युवा अपना हक मांगने की स्थिति में आ गया है. इसमें जयस का भी अहम योगदान है.’

वे आगे जोड़ते हैं, ‘राज्य में करीब 23 फीसदी आदिवासी आबादी है, जो दो करोड़ से अधिक बैठती है. अगर चार-पांच फीसदी आदिवासी वोट भी इधर-उधर शिफ्ट हो जाए तो बहुत बड़ा अंतर डाल सकता है. खासकर भाजपा यह बात अच्छी तरह समझ रही है जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में मुंह की खा चुकी है.’

शायद इसलिए ही भाजपा प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा ने पिछले दिनों घोषणा की थी कि राज्य के सभी 89 आदिवासी विकासखंडों में भाजपा की टीमें सक्रिय होकर जनजातीय वर्ग को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने का कार्य करेंगी और सरकारी घोषणाएं इस वर्ग तक सही तरीके से पहुंचें, इसका ध्यान रखेंगी.

राज्य की राजनीति के आदिवासीमय हो जाने के दो और कारण हैं.

पहला कारण अनुराग बताते हैं, ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, देश में आदिवासियों पर सर्वाधिक अत्याचार मध्य प्रदेश में होता है. हाल ही में कुछ घटनाएं राष्ट्रीय सुर्खियां भी बनीं. सहरिया और बैगा जैसी जनजातियां यहां भुखमरी की शिकार हैं. आदिवासियों की जमीनें छीनी गईं. इस सबके डैमेज कंट्रोल के लिए भी भाजपा अब ‘प्रतीकों की राजनीति’ कर रही है.’

‘प्रतीकों की राजनीति’ को आसान शब्दों में ऐसे समझें कि जिस तरह भाजपा राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के प्रतीकों के सहारे मतदाताओं की भावनाएं भुनाती है, उसी तरह बिरसा मुंडा, रघुनाथ शाह और शंकर शाह जैसे आदिवासी प्रतीकों के सहारे वह आदिवासियों से जुड़ना चाहती है.

दूसरा कारण है, इसी माह राज्य की तीन विधानसभा सीट (जोबट, रैगांव, पृथ्वीपुर) और खंडवा लोकसभा सीट पर उपचुनाव. इनमें जोबट एसटी आरक्षित सीट है, तो वहीं खंडवा लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाली आठ विधानसभाओं में से चार एसटी आरक्षित हैं.

पिछले दिनों भाजपा नेताओं की ओर से ऐसे बयान भी आए थे कि वे खंडवा लोकसभा सीट को आठ विधानसभाओं में बांटकर चुनावी तैयारी कर रहे हैं. इस तरह देखें तो हालिया उपचुनावों में कुल 11 विधानसभा सीट दांव पर हैं, जिनमें 5 एसटी आरक्षित हैं.

अजय कहते हैं, ‘न सिर्फ पिछले विधानसभा चुनाव, बल्कि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को आदिवासी क्षेत्रों में अपेक्षानुरूप समर्थन नहीं मिला. चुनाव में हम हर जगह बड़े अंतर से हारे, सिर्फ एक सीट (छिंदवाड़ा) जीते. लेकिन मंडला, खरगोन, झाबुआ में कम अंतर से हारे. वे सभी आदिवासी सीट थीं. भाजपा समझ गई कि आदिवासी को और बरगला नहीं सकते, वह छिटक रहा है इसलिए मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय गृहमंत्री तक आदिवासियों को प्रभावित करने में जुटे हैं.’

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

वे आगे कहते हैं, ‘दोनों दल जानते हैं कि जिस ओर आदिवासी जाएगा, सरकार उसकी बननी है. इसलिए दोनों ने आदिवासी को अपने काबू में रखने की कवायद शुरू कर दी है.’

हालांकि, कल सिंह कहते हैं कि भाजपा की सक्रियता चुनावों या राजनीति से जोड़कर न देखी जाए. उनके मुताबिक, ‘भाजपा जनजातीय समाज की हितैषी है, इसलिए विभिन्न आयोजन कर रही है. उसका मकसद जनजातीय समाज का विकास करना है.’

लेकिन, जब आयोजन मंच से कांग्रेस पर निशाना साधा जाता है तो स्वत: ही यह राजनीतिक श्रेणी में आ जाते हैं. मसलन, जब अमित शाह कहते हैं, ‘कांग्रेस ने अभी तक बस जनजातीय वर्ग के वोट लिए हैं. उनका भला कभी नहीं किया. जबकि भाजपा जनजातीय वर्ग के कल्याण के लिए कटिबद्ध है. शिवराज ने जनजातियों को उनका अधिकार देने की शुरुआत की है.’

या वीडी शर्मा कहते हैं, ‘जनजातीय वोट में बंटवारा हो, कांग्रेस यही प्रयास करती है. जबकि भाजपा हमेशा जनजातियों के कल्याण के लिए प्रयासरत है.’, तो वे सीधे तौर पर वोट बैंक की चुनावी राजनीति करते नज़र आते हैं.

भाजपा की मंशा पर सवाल उठाते हुए रविराज पूछते हैं, ‘अगर भाजपा आदिवासी हितैषी है तो पंद्रह सालों के शासन में पेसा क़ानून और पांचवी अनुसूची क्यों लागू नहीं की? कांग्रेसी कमलनाथ सरकार ने ‘विश्व आदिवासी दिवस’ का शासकीय अवकाश घोषित किया था और इसे धूमधाम से मनाने के लिए आदिवासी विकासखंडों में प्रत्येक जनपद को 50-50 हजार रुपये दिए थे, लेकिन भाजपा ने अवकाश भी रद्द किया और राशि देना भी. यह सब दिखाता है कि भाजपा आदिवासी विरोधी है लेकिन हितैषी होने का ढोंग करती है.’

वे आगे कहते हैं, ‘विगत सात-आठ वर्षों से जयस, सामाजिक संगठन और समस्त आदिवासी समाज जो आंदोलन कर रहे हैं, कहीं न कहीं शिवराज सरकार उससे डर महसूस कर रही है. इसलिए अब उसे पेसा क़ानून लागू करने की याद आई.’

बता दें कि शिवराज सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस (9 अगस्त) की छुट्टी रद्द कर दी थी, जिस पर काफी बवाल हुआ था. आदिवासी संगठनों ने इसका विरोध किया था. कांग्रेस ने सदन में हंगामा किया था. तब आदिवासियों के बीच अपनी बिगड़ती छवि देखकर ही मुख्यमंत्री ने बिरसा मुंडा जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने और इस दिन सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की थी.

हालिया सक्रियता से पहले दोनों दलों की आदिवासी राजनीति आदिवासियों के हिंदू होने या न होने की बहस तक सीमित थी जिसमें दोनों दलों के शीर्ष राज्यस्तरीय नेता उतर चुके थे. भाजपा जहां आदिवासियों को हिंदू मानती, तो वहीं कांग्रेस आरोप लगाती कि भाजपा आदिवासियों का हिंदूकरण करके उनकी संस्कृति को नुकसान पहुंचा रही है.

इसी कड़ी में कुछ माह पहले राज्य सरकार द्वारा बनाया गया ‘धार्मिक स्वतंत्रता क़ानून’ कहने को तो लव जिहाद रोकने के उद्देश्य से बनाया गया था, लेकिन उसका एक छिपा हुआ मकसद आदिवासियों के मतांतरण को रोकना भी था. क़ानून आने के बाद से आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन के खिलाफ अनेकों मामले दर्ज हुए हैं.

5 अक्टूबर को झाबुआ में भाजपा सरकार ने जनजातीय सम्मेलन का आयोजन किया था, जहां मुख्यमंत्री ने अनेक घोषणाएं कीं, जैसे कि आदिवासियों को रोजगार के अवसर देंगे, पुलिस में दर्ज आपराधिक मामले वापस लेंगे, आबकारी क़ानून में संशोधन करके महुआ से शराब बनाने का अधिकार देंगे, 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस मनाने के साथ-साथ भोपाल में भी एक विशाल समागम का आयोजन करेंगे आदि.

इस दौरान अपने संबोधन में शिवराज ने रघुनाथ शाह, शंकर शाह और टंट्या मामा को महापुरुष व समाज के लिए आदर्श बताया और कहा कि कांग्रेस ने इनकी उपेक्षा की.

जबकि अजय उलटा भाजपा पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘आज जिन रघुनाथ शाह और शंकर शाह को वे अपना आदर्श बता रहे हैं, करीब डेढ़ दशक पहले उन्हीं के नाम पर शुरू हुआ पुरस्कार इनकी सरकार ने बंद किया था. रानी दुर्गावती ऋण योजना भी इन्होंने बंद की. पुरस्कार और योजना शुरू करने वाले मंत्री से जनजाति मंत्रालय तक छीन लिया. भाजपा के आदिवासी प्रेम का सच यह है कि उन्होंने जनजाति मंत्रालय का मंत्री तक गैरआदिवासी (लाल सिंह आर्य) को बना दिया था.’

अंत में अनुराग कहते हैं, ‘एक ओर आदिवासियों पर अत्याचार की घटनाएं हैं, तो दूसरी ओर आदिवासी समाज के अंदर होने वाली वे अमानवीय घटनाएं हैं जहां महिला को निर्वस्त्र करके उसके कंधे पर पुरुष बैठाकर गांव में घुमाया जाता है, उन्हें पेड़ से उलटा लटका दिया जाता है. अफसोस कि आदिवासी हितैषी सरकार इन खाप पंचायत शरीके क़ानूनों के खिलाफ आदिवासियों में जनजागरण नहीं लाती. कांग्रेस भी जुबां नहीं खोलती. चूंकि यह मुद्दा वोट बैंक प्रभावित कर सकता है, इसलिए इन बर्बर घटनाओं को मूक समर्थन दिया जाता है. इस तरह तो दोनों दल आदिवासी का कभी भला नहीं कर सकते.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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