मोदी सरकार और सावरकर का सच…

सेल्युलर जेल के सामने बने शहीद उद्यान में वीडी सावरकर की मूर्ति और संसद दीर्घा में उनका तैल चित्र लगाकर भाजपा सरकार ने उनकी गद्दारी के प्रति जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की है.

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विनायक दामोदर सावरकर. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

सेल्युलर जेल के सामने बने शहीद उद्यान में वीडी सावरकर की मूर्ति और संसद दीर्घा में उनका तैल चित्र लगाकर भाजपा सरकार ने उनकी गद्दारी के प्रति जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की है.

विनायक दामोदर सावरकर को श्रद्धांजलि देते गृह मंत्री अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

विलायत में वकालत- की पढ़ाई पूरी करने के बाद महात्मा गांधी 5-6 महीने भारत में रहे जब उन्हें दक्षिण अफ्रीका के व्यापारी दादा अब्दुल्लाह ने अपने मुकदमे के लिए वकील रखा और अपने जहाज से दक्षिण अफ्रीका ले गए. गांधी को लगा था कि साल डेढ़ साल दक्षिण अफ्रीका में रहना होगा फिर भारत लौट कर वकालती जमाएंगे. दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के जन्म के बाद उनका अनुमान गलत साबित हुआ.

सत्याग्रह के दौरान गांधी ने दो बार दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के मसले पर इंग्लैंड यात्रा कीं. 1906 में पहली यात्रा के दौरान ‘सत्याग्रह’ उनके इरादों में आ चुका था. इस यात्रा में दादाभाई नौरोजी का उन्हें स्नेह, आशीष और सहयोग मिला. दादाभाई ब्रिटिश पार्लियामेंट के पूर्व सदस्य (लिबरल पार्टी) थे तथा दक्षिण अफ्रीका के मसले पर उनकी पहल पर सभी दलों के सांसदों की एक बैठक गांधी के साथ आयोजित की गई थी.

इंग्लैंड पहुंचकर शुरुआत के कुछ दिन गांधी श्यामजी कृष्णवर्मा द्वारा स्थापित भारतीय छात्रों के लिए स्थापित ‘इंडिया हाउस’ में टिके थे. कृष्णवर्मा हिंसक साधनों से परिवर्तन में यकीन रखते थे, मांडवी-कच्छ के मूल रूप से थे और उन्होंने इंडियन होम रूल सोसायटी, इंडियन सोशियोलॉजिस्ट नामक पत्रिका भी शुरू की थी. कुछ ही दिन इंडिया हाउस में रहने के बाद गांधी एक ऑलीशान होटल में रहने चले गए थे. ब्रिटिश हुक्मरान के समक्ष रुतबा फीका न पड़े, यह मकसद रहा होगा.

दक्षिण अफ्रीका के मसले पर गांधी की दूसरी इंग्लैंड यात्रा 1909 में हुई. इस बीच दादा भाई भारत लौट गए थे. मदनलाल ढींगरा नामक श्यामजी कृष्णवर्मा के शागिर्द ने एक अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी थी. श्यामजी ने अपनी पत्रिका में लिखा था कि राजनीतिक छलघात हत्या नहीं होती. इस मामले में गिरफ्तारी की आशंका में श्यामजी कृष्णवर्मा इंग्लैंड से पेरिस चले गए थे और इंडिया हाउस में वीडी सावरकर का वर्चस्व था. इस हत्या के बाद इंडिया हाउस से कई युवा दूर ही रहना चाहते थे. मदनलाल ढींगरा की हत्या के बाद पड़ने वाले दशहरे के मौके पर मुख्य अतिथि के नाते गांधी से उपयुक्त कोई व्यक्ति नहीं सूझा.

सत्याग्रह और अहिंसा के उसूल गांधी के लिए अब सिर्फ इरादतन नहीं थे. उन्हें वे अमली जामा पहना रहे थे. गांधी को हिंसा में यकीन रखने वाले तरुणों से बहस करने का मन रहता था. इन बहसों से उनका विश्वास और मजबूत होता था. अपने दक्षिण अफ्रीका के साथी पोलाक को गांधी ने लिखा कि इकट्ठा होने वाले नौजवानों को मैं हिंसा की व्यर्थता समझाऊंगा इसलिए उन्होंने यह न्योता कबूला लिया था.

एक शर्त रखी थी कि दशहरे की दावत में शाकाहारी भोजन बनेगा. इंडिया हाउस से जुड़े तरुण इस मौके के लिए रसोई बनाने और टेबल सजाने में लगे थे. इस दौरान एक इकहरी कद -काठी का एक व्यक्ति उन तरुणों का हाथ बटाने में जुट गए. प्लेटें धोने और टेबल सजाने में वह लग गए. युवाओं को अचरज हुआ जब उन्होंने देखा कि उस वह उस शाम के मुख्य अतिथि गांधी थे.

यह बता देना उचित होगा कि सावरकर तब तक हिंदू-मुस्लिम भेद करने के पक्षधर नहीं थे. बहरहाल, दशहरे के मौके पर हुए इस आयोजन की अध्यक्षता बिपिनचंद्र पाल ने की थी. सावरकर ने रावण-वध पर जोर दिया होगा और गांधी ने बुराई पर अच्छाई की विजय बताया होगा.

इस लंदन प्रवास से लौटते वक्त जहाज में गांधी ने अपनी मौलिक पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ गुजराती में लिखी. इंग्लैंड में मौजूद सत्याग्रह के दर्शन के विरोधी और हिंसा के पक्षधर लोगों से सवाल-जवाब की शैली में यह किताब लिखी गई है. गांधी की जीवनी का नाम ‘सत्य के प्रयोग’ और इसलिए वे अपने पाठकों से वे कहते हैं कि मेरे एक ही विषय पर मेरे विचारों में परस्पर विरोधी बातें मिल सकती हैं तब बेहिचक बाद वाली तिथि की बातें स्वीकार की जाएं.

सावरकर अंडमान से छूटकर कभी अंग्रेजों के खिलाफ नहीं हुए. नेताजी ने खुद की लिखी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ में सावरकर के रवैए के बारे में लिखा है. कांग्रेस से अलग होने के बाद तथा गुप्त रूप से देश छोड़ने के पहले की स्थिति के बारे में वे बताते हैं-

‘इस मौके पर मैंने अन्य संगठनों के नेताओं से भी बातचीत की, जैसे कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के प्रधान मि. जिन्ना से, अ.भा. हिंदू महासभा के अध्यक्ष श्री सावरकर से. उस समय श्री जिन्ना अंग्रेजों की मदद से पाकिस्तान की अपनी योजना को पूरा करने की सोच रहे थे. कांग्रेस के साथ मिलकर भारत की आजादी के लिए राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करने के मेरे सुझाव का श्री जिन्ना पर जरा भी प्रभाव नहीं पड़ा यद्यपि मैंने सुझाव दिया था कि यदि इस प्रकार मिल-जुलकर संघर्ष किया गया तो स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री वही बनेंगे. श्री सावरकर अंतरराष्ट्रीय स्थिति से बिल्कुल अनभिज्ञ दिखाई देते थे और बस यही सोच रहे थे कि ब्रिटेन की भारत में जो सेना है इसमें घुसकर हिंदू किस प्रकार सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करें. इन मुलाकातों के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुंचा कि मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा से किसी प्रकार की कोई आशा नहीं की जा सकती.’ (नेताजी संपूर्ण वाङ्मय,खंड 2, पृष्ठ 272)

सावरकर ने यह भी स्पष्ट किया था कि फौजी प्रशिक्षण का इस्तेमाल वे विधर्मियों के खिलाफ करेंगे. इस प्रकार यह प्रतीत होता कि सावरकर की राष्ट्रीयता दबाव पड़ने पर दब जाती है तथा उस पर सांप्रदायिकता हावी हो जाती है.

आसफ अली साहब एक नौजवान के रूप में लंदन में गांधी-सावरकर की मुलाकात के समय मौजूद थे और 33 वर्ष बाद दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने गांधी का तार्रुफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कराया था. गांधी ने आसफ अली द्वारा भेजे गए प्रसंग को 9 अगस्त 1942 के ‘हरिजन’ (पृष्ठ 261) में छापा था.

आसफ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों के बारे में प्राप्त एक शिकायत गांधी को भेजी और लिखा था कि वे शिकायतकर्ता को नजदीक से जानते हैं, वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं. उद्धरण दे रहा हूं-

‘शिकायती पत्र उर्दू में है. उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके तीन हजार सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं, कवायद के बाद नारा लगाते हैं- हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं. इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं, जिनमें वक्ता कहते हैं- ‘पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे, अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे.’ बात जिस ढंग से कही गई है, उसे वैसे ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है.

‘नारा गलत और बेमानी है, क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते. इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है.

आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा.

‘धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं. जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे. अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता. वह स्वराज्य नहीं होगा.’

राम और रावण की तरह गीता में पापी का नाश करने की बात की व्याख्या की बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने गांधी के सामने रखी थी. यह बहुत गौरतलब है इसी प्रसंग के बारे में गृह मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने दावा किया था कि ‘मत भूलिए कि महात्मा गांधी, जिनको हम आज भी अपना पूज्य मानते हैं, जिन्हें हम राष्ट्रपिता मानते हैं, उन्होंने भी आरएसएस के कैंप में जाकर ‘संघ’ की सराहना की थी.’

इसी प्रसंग का वर्णन गांधी के सचिव प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ (Mahatma Gandhi, The last Phase) में ऐसे किया है-

प्यारेलाल ने ‘पूर्णाहुति’ में सितंबर, 1947 में संघ के अधिनायक एमएस गोलवलकर से गांधी की मुलाकात, विभाजन के बाद हुए दंगों और गांधी-हत्या का विस्तार से वर्णन किया है. प्यारेलाल की मृत्यु 1982 में हुई, तब तक संघ द्वारा इस विवरण का खंडन नहीं हुआ था.

गोलवलकर से गांधी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे- ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है. उन्होंने अनुशासन, साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है.’

गांधी ने उत्तर दिया- ‘पर यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था.’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया. (पूर्णाहुति, चतुर्थ खंड, पृष्ठ: 17)

अपने एक सम्मेलन (शाखा) में गांधी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता गोलवलकर ने उन्हें ‘हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया. उत्तर में गांधी बोले- ‘‘मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य है. पर मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी. हिंदू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है. यदि हिंदू यह मानते हों कि भारत में अहिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा- तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा… मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा.’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उनमें गांधी से पूछा गया- ‘क्या हिंदू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता? यदि नहीं देता, तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है, उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है?’

गांधी ने कहा, ‘पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है. मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है? दूसरे शब्दों में, हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं. एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने या फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है? रही बात दूसरे प्रश्न की. यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है, तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है. अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जाएं, तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे- उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए, कानून को अपने हाथों में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए.’

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21 अक्टूबर 1951 को भाजपा के पूर्व रूप और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पार्टी – भारतीय जन संघ की स्थापना हुई. सावरकर की मृत्यु 26 फरवरी 1966 में हुई. 1951 से 1966 तक जन संघ से सावरकर का क्या नाता रहा? जन संघ में क्यों न रहे सावरकर?

‘हिंदू महासभा का सावरकर धड़ा’- गांधी हत्या और दंगों के संदर्भ में इस जुमले का प्रयोग तत्कालीन गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अक्सर किया है.

महात्मा गांधी की हत्या के मामले में दिल्ली में हुई सुनवाई के दौरान नाथूराम गोडसे (पहली पंक्ति में बाएं) और सावरकर (सबसे पीछे दाएं) (फोटो साभार: फोटो डिवीज़न/भारत सरकार)

‘गोडसे संघ का नहीं महासभा का सदस्य था’- संघ वाले हाल तक कहते थे.यह कहते वक्त जानबूझकर भूल जाते हैं कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी हिंदू महासभा के थे. 1951 से 1966 तक सावरकर से दूरी बनाने का प्रमुख कारण गांधी-हत्या का षड्यंत्र था. गांधी हत्या से 1962 तक संघ का राष्ट्रवाद दब-छिपकर रहा. चीन के आक्रमण के समय कम्युनिस्टों के एक धड़े की चीन के प्रति नरमी के कारण संघ को अपने राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवाद के प्रसार का मौका मिला.

गांधी हत्या में सावरकर के मुख्य षड्यंत्रकारी साबित होने से बचने का मुख्य कारण नाथूराम गोडसे का अदालत में दिया गया बयान है. सावरकर को बचाने के लिए नाथूराम गोडसे ने जो कुछ बोला उसकी जिरह भी ढंग से नहीं हुई. गलत साबित न कर पाने वाले तथ्यों के बचाव में तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना ,झूठ चलाने के प्रयास करना भले ही वे प्रयास चाहे जितने लचर हों इनका भी इतिहास है. चंद उदाहरण दे रहा हूं ताकि सनद रहे-

‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ नामक एमएस गोलवलकर की किताब से वर्ण व्यवस्था, हिटलर, पुरुष वर्चस्ववादी उद्धरणों का खंडन न कर पाने के चलते एक बार यह कहा गया कि यह किताब सावरकर की मराठी में लिखी हिंदुत्व किताब का अंग्रेजी अनुवाद है, अनुवादक गोलवलकर है. मधु लिमये जैसे समाजवादियों के पास मूल संस्करण की प्रति सुरक्षित थी. आजकल इंटरनेट पर पीडीएफ में मूल प्रति उपलब्ध है.

1991 में कभी विश्व हिंदू परिषद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि गांधी अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर के पक्ष में थे. उनके द्वारा उद्धरण का गांधी साहित्य का तब कॉपीराइट धारक संस्था नवजीवन ट्रस्ट ने खंडन किया.

संघ के सिपाही के नाते और देश के गृह मंत्री के रूप में गांधी के बारे में संसद में विवादास्पद बयान देने वाले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में गांधी द्वारा विनायक सावरकर के भाई को लिखे पत्र के हवाले से फिर एक विवाद खड़ा किया है.

राजनाथ सिंह के साथ हुई एक राजनीतिक घटना का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं. 1909 से लेकर 1948 के बीच कई घटनाओं का इस लेख में जिक्र आया है. राजनाथ से जुड़ी घटना अपेक्षतया इन सबसे हालिया है. विद्यार्थी परिषद तथा उसके द्वारा छात्रसंघ चुनाव न लड़ने की घोषणा के दिनों में राष्ट्रवादी छात्र मोर्चा, जनता विद्यार्थी संगठन जैसे नामों से चुनाव लड़ा जाता था.

विद्यार्थी परिषद की इकाइयों के अध्यक्ष विद्यार्थी नहीं शिक्षक हुआ करते हैं. छात्रसंघ चुनाव के प्रत्याशियों के नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय से बंद लिफाफे में आते थे. संघ के सरंसंघचालक के वारिस का नाम भी बंद लिफाफे से निकलता है.

राजनाथ सिंह ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नवीन कृषि छात्रावास के कॉमन रूम में संघ के कार्यालय (काशी में जिसके बगल में राम मंदिर होने के कारण उसे भी राम मंदिर कहा जाता था, से आए बंद लिफाफे को राजनाथ सिंह ने छात्रों की सभा में खोला. नाम थे- बैरिस्टर सिंह (बाद में इन्होंने वैधानिक तौर पर अपना नाम अनुपम आलोक में बदल लिया) अध्यक्ष, वीणा पांडे -उपाध्यक्ष तथा राम इकबाल सिंह- महामंत्री. जम्मू कश्मीर के मौजूदा उपराज्यपाल मनोज कुमार सिन्हा की भी अध्यक्ष पद पर दावेदारी थी और उनका बंद लिफाफे में नाम नहीं था. उनके समर्थकों ने राजनाथ सिंह पर हमला बोल दिया. वे जो धोती-जामा पहनते हैं, वह फाड़ दिया गया और उन्हें एक कमरे में बंद करके बचाया गया.

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अंडमान की सेल्युलर जेल के सामने एक पार्क में कई मूर्तियां लगी हैं. एक को छोड़कर सभी मूर्तियां ऐसे कैदियों की हैं जिन्हें या तो फांसी हुई थी अथवा वे कारागार में मारे गए थे.

बंगाल के ‘अनुशीलन’ के अंतिम अगुआ त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कैदियों के उत्पीड़न के खिलाफ जब प्रतिकार तय किया जाता था तब सावरकर उसमें भाग नहीं लेते थे. ब्रिटिश राज में राजद्रोह के आरोपी दो तरह के थे. सावरकर और तिलक जैसे जो आरोप का अदालत में खंडन करते थे मगर दोषमुक्त नहीं हो पाते थे. गांधी ने न सिर्फ आरोप को कबूला बल्कि अदालत को यह साफ कहा कि छूटने के बाद मैं पुनः इन्हीं कामों को दोहराने वाला हूं. वीरता को समझने के लिए माफीनामों के क्रमशः नतशीष झुकते जाने के क्रम को देखा जाना चाहिए.

काला पानी की सजा पाए राजनीतिक बंदियों के उत्पीड़न की कथायें दर्दनाक हैं. कई कैदियों ने तंग आत्महत्या की, कुछ विक्षिप्त हो गए,कुछ जेल की दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ उपवास करते हुए या उपवास के दौरान जबरदस्ती खिलाने की कोशिश में मारे गए.

15 अगस्त 2003 को स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जो स्वागत समारोह आयोजित किया था, उस समारोह में कालापानी की सजा भुगत चुके दिनेश दासगुप्त सिर्फ इस उद्देश्य से गए थे कि राष्ट्रपति से सीधे निवेदन करें कि अंडमान शहीद पार्क का सावरकर पार्क नामांतरण रद्द किया जाए. उन्होंने राष्ट्रपति को स्पष्ट शब्दों में कहा शहीद पार्क में सावरकर की मूर्ति बैठाना तो शहीदों का घोर अपमान है क्योंकि सावरकर शहीद तो हुए ही नहीं उल्टे उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगकर जेल से मुक्ति पाई और फिर देश के स्वाधीनता संग्राम में भाग ही नही लिया. इसी आशय का एक पत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी लिखा.

समुद्री जहाज से इंग्लैंड से भारत लाए जा रहे सावरकर ने जहाज से फ्रांस में समुद्र में छलांग लगा दी थी. वे पकड़ लिए गए और उन्हें दो ‘आजीवन कैद’ की सजा सुनाई गई जो पचास वर्ष की मानी जाती थी. काला पानी के पहले सावरकर स्वतंत्रता संग्राम में सभी संप्रदायों के योगदान और उनकी एकता के हिमायती थे. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) पर लिखी गई उनकी पुस्तक इस बात का प्रमाण है.

4 जुलाई 1911 में सेल्युलर जेल में लाए जाने के बाद उन्होंने माफ़ी मांगते हुए कई अर्जियां दीं. धीरे-धीरे वे जेल अधिकारियों के चहते बन गए और उन्हें जेल में पहले मुंशी का काम फिर जेल के तेल डिपो के फोरमैन का काम सौंपा गया. काला पानी से रिहा होने के बाद उन पर कहने को रत्नागिरि न छोड़ने और ’राजनीतिक’ गतिविधियों पर रोक रहे परंतु पालतू बन चुके शेर को हिंदू महासभा का संगठन करने की छूट रही.

रिहाई के बाद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ किसी आंदोलन को न चलाया और न ही भाग लिया. अधिकांश लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि 1966 में उनकी मृत्यु हुई. 27 फरवरी, 1948 को सरदार पटेल ने गांधी की हत्या की बाबत नेहरू को लिखे अपने पत्र में लिखा, ‘यह हिंदू महासभा के सावरकर के नेतृत्व में चलने वाले मतान्ध खेमे द्वारा गढ़ी गई साजिश और उसके क्रियान्वयन का परिणाम थी.’

पोर्टब्लेयर हवाई अड्डे का नाम सेल्युलर जेल के सामने बने शहीद उद्यान में उनकी मूर्ति और संसद की दीर्घा में उनका तैल चित्र लगाकर भाजपा सरकार ने सावरकर की गद्दारी के प्रति जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की.

(लेखक समाजवादी जन परिषद के महामंत्री हैं.)

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