कर्नाटक: भगत सिंह की किताब के चलते यूएपीए के तहत गिरफ़्तार आदिवासी पिता-पुत्र बरी

मामला मंगलुरु का है, जहां साल 2012 में पत्रकारिता के छात्र विट्टला मेलेकुडिया और उनके पिता को गिरफ़्तार करते हुए उनके पास मिली किताबों आदि के आधार पर उन पर यूएपीए के तहत राजद्रोह और आतंकवाद के आरोप लगाए गए थे. एक ज़िला अदालत ने उन्हें बरी करते हुए कहा कि पुलिस कोई भी सबूत देने में विफल रही. भगत सिंह की किताबें या अख़बार पढ़ना क़ानून के तहत वर्जित नहीं हैं.

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बरी होने के बाद विट्टला मेलेकुडिया और उनके पिता. (फोटो साभार: ट्विटर/@Vittala Malekudiya)

मामला मंगलुरु का है, जहां साल 2012 में पत्रकारिता के छात्र विट्टला मेलेकुडिया और उनके पिता को गिरफ़्तार करते हुए उनके पास मिली किताबों आदि के आधार पर उन पर यूएपीए के तहत राजद्रोह और आतंकवाद के आरोप लगाए गए थे. एक ज़िला अदालत ने उन्हें बरी करते हुए कहा कि पुलिस कोई भी सबूत देने में विफल रही. भगत सिंह की किताबें या अख़बार पढ़ना क़ानून के तहत वर्जित नहीं हैं.

बरी होने के बाद विट्टला मेलेकुडिया और उनके पिता. (फोटो साभार: ट्विटर/@Vittala Malekudiya)

नई दिल्ली: देश की एक अदालत द्वारा एक और बार यह दोहराते हुए कि किसी साहित्य का बरामद होना प्रतिबंधित संगठन के साथ कोई सीधा संबंध साबित नहीं करता है, कर्नाटक की एक जिला अदालत ने एक आदिवासी युवक को बरी कर दिया, जिन्हें 2012 में कथित माओवादी संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

दक्षिण कन्नड़ के तृतीय अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीबी जकाती ने गुरुवार को पत्रकार विट्टला मेलेकुडिया और उनके पिता को माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तारी के नौ साल के बाद राजद्रोह के आरोपों से बरी कर दिया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, विट्टला के छात्रावास के कमरे से जब्त की गई किताबों के आधार पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ संबंध रखने के आरोप में उस समय पत्रकारिता के इस 23 वर्षीय छात्र और उनके पिता लिंगप्पा मालेकुड़िया को गिरफ्तार किया गया था. दोनों पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत राजद्रोह और आतंकवाद के आरोप लगाए गए थे.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में बताया गया है कि उनके पास मिले कथित रूप से आपत्तिजनक साहित्य की सूची में भगत सिंह की एक किताब भी शामिल है, इसके अलावा उनके पास ‘जब तक कि उनके गांव को बुनियादी सुविधाएं  नहीं पहुंचतीं, तब तक संसद चुनावों का बहिष्कार करने’ का एक पत्र और कुछ अख़बारों के लेखों की कतरनें मिली थीं.

32 साल के विट्टला अब एक प्रमुख कन्नड़ दैनिक के पत्रकार हैं और उनके 60 वर्षीय पिता दक्षिण कन्नड़ जिले के कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान के पास कुथलूर गांव में रहते हैं.

यह देखते हुए कि पुलिस द्वारा जब्त की गई सामग्री आरोपी व्यक्तियों की ‘रोजमर्रा की आजीविका के लिए जरूरी’ लेख थे, अदालत ने कहा कि पुलिस पिता-पुत्र के किसी भी नक्सल लिंक को साबित करने में विफल रही है.

अदालत ने उनके खिलाफ राजद्रोह के आरोप को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘भगत सिंह की किताबें रखना कानून के तहत वर्जित नहीं है… ऐसे ही अखबारों को पढ़ना कानून के तहत निषेध नहीं है.’

अदालत ने आगे कहा, ‘किसी भी गवाह ने यह नहीं कहा है कि आरोपी नंबर 6 और 7 ने राजद्रोह का अपराध किया है. यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड में कोई सबूत नहीं है कि आरोपी नंबर 6 या 7 ने अपने शब्दों या संकेतों या दृश्य द्वारा या अन्यथा, घृणा या अवमानना ​​​​का प्रयास किया या सरकार के प्रति असंतोष भड़काने का प्रयास किया.

पुलिस को कथित तौर पर उनके एक वरिष्ठ अधिकारी से यह सूचना मिलने के बाद कि यह दोनों मालेकुड़िया कुद्रेमुख जंगलों में सक्रिय पांच वांछित नक्सलियों की सहायता कर रहे थे, 3 मार्च, 2012 को इन दोनों को उनके घर से गिरफ्तार किया गया था.

बाद में उन पर आईपीसी के तहत आपराधिक साजिश, राजद्रोह और यूएपीए के तहत आतंकवाद का आरोप लगाए गए. गौरतलब है कि एफआईआर में जिन पांच ‘नक्सलियों’ के नाम दर्ज किए गए थे, उन्हें कभी गिरफ्तार नहीं किया गया.

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए विट्टला ने कहा, ‘मैं इस मामले में बरी होने पर बहुत खुश हूं. हमने नौ साल तक आरोपमुक्त होने के लिए कड़ा संघर्ष किया. हमें नक्सल चरमपंथी के तौर पर फंसाया गया था लेकिन चार्जशीट में इन आरोपों को साबित करने के लिए कुछ नहीं था. हमारी बेगुनाही साबित हो गई.

उन्होंने आगे बताया, ‘हम हर सुनवाई में शामिल हुए. कोविड के दौरान भी हम कुछ दिन कोर्ट के बाहर खड़े रहते थे. सुनवाई के लिए अपने गांव से मैंगलोर जाना हमारे लिए बहुत मुश्किल था. हमें सुबह 11 बजे से पहले अदालत में पहुंचना होता था और हमारे गांव के पास से कोई बस नहीं थी.’

महामारी के दौरान उनके वकील दिनेश हेगड़े उलेपदी ने उन्हें वॉट्सऐप वीडियो कॉल के माध्यम से पर कुछ सुनवाई में शामिल होने में मदद की.

मालेकुड़िया आदिवासी समुदाय, जो ज्यादातर वनोपज और कृषि पर निर्भर है, से आने वाले विट्टला आरोप लगने के समय मैंगलोर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता स्नातक कार्यक्रम के दूसरे सेमेस्टर में थे. 90 दिनों की निर्धारित अवधि के अंदर इस मामले में आरोपपत्र दायर करने में पुलिस की विफलता के बाद पिता-पुत्र को जमानत मिलने से पहले उन्हें 2012 में लगभग चार महीने तक जेल में रखा गया था.

इस अवधि में विट्टला को अपनी परीक्षाएं देने के लिए विशेष अनुमति पाने के लिए अदालत दर अदालत भागना पड़ा. 2016 में पत्रकारिता का कोर्स पूरा करने वाले विट्टला ने कहा, ‘मुझे हथकड़ी लगाकर इम्तिहान दिलाने ले जाया गया था और इस बात को लेकर उस समय एक विवाद खड़ा हुआ था.’ अंततः 2018 में उन्हें एक कन्नड़ दैनिक में नौकरी मिली.

उनके वकील उलेपडी ने बताया कि पुलिस ने खुद अदालत में स्वीकार किया कि उनके द्वारा जब्त की गई सामग्री ‘घरेलू सामान’ था. उन्होंने बताया, ‘हमने जिला अदालत से बाइज्जत बरी किए जाने का निवेदन किया था, न कि केवल आरोपमुक्ति का. किसी को बाइज्जत बरी तब किया जाता है जब पुलिस ने झूठा मामला दर्ज करे और गिरफ्तार व्यक्ति के सम्मान को बहाल किया जाना हो. अभी जिला अदालत ने मेरे मुवक्किलों को केवल बरी किया है और हम उन्हें बाइज्जत बरी किए जाने के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे.’

दक्षिण कन्नड़ के तृतीय अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीबी जकाती ने दोनों आरोपियों को बरी करते हुए कहा कि पुलिस, यह दावा करने के बावजूद कि उनके पास से जब्त किए गए तीन मोबाइल फोन नक्सलियों के साथ उनके संबंध स्थापित कर सकते हैं, उनके खिलाफ कोई भी सबूत पेश करने में असफल रही.

अदालत ने कहा, ‘इन मोबाइलों का सीडीआर तैयार नहीं किया गया. मुकदमे के दौरान भी अभियोजन पक्ष ने जब्त किए गए मूल मोबाइल  फोन्स आपत्तिजनक सबूत नहीं दिखाए… केवल आरोपियों की हिरासत या उनके कहने पर मोबाइल को जब्त करने से अभियोजन पक्ष के मामले में किसी भी तरह से मदद नहीं मिलेगी.’

अदालत ने आगे जोड़ा कि जहां तक ​​चुनाव के बहिष्कार का आह्वान करने वाली चिट्ठी की बात है, तो ‘पत्रकारिता के एक छात्र’ ने ऐसा पत्र इसलिए लिखा ‘क्योंकि नेताओं ने कुथलूर गांव के आदिवासी लोगों की लंबे समय से की जा रही मांगों को पूरा नहीं किया था.’

न्यायाधीश जकाती ने अपने आदेश में कहा, ‘इसे पढ़ने पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि इस तरह के पत्रों में स्थानीय लोगों की मांगें हैं.’

कोर्ट का कहना था कि अभियोजन पक्ष के तेईस गवाह भी पुलिस के दावों का समर्थन नहीं कर सके. अदालत ने कहा कि यह साबित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि वे नक्सली समूह के सदस्य थे या उनकी गतिविधियों में नक्सलियों की सहायता कर रहे थे.

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