छठ का भाजपाईकरण एक और पवित्र अवसर को विकृत करने का प्रयास है

छठ में कोई पंडित, पुरोहित नहीं होता, यह भाजपा के सांसद महोदय को किसी ने नहीं बताया. छठ बिना नदी या घाट के नहीं हो सकता, यह भी सांस्कृतिक मूर्ख ही बोल सकते हैं. असल बात है मन का पवित्र होना. मन में द्वेष, घृणा और दूसरे को नीचा दिखाने की सोच के साथ छठ की बात सोचना भी पाप है.

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10 नवंबर 2021 को दिल्ली के एक यमुना घाट की दीवार पर पेंट से लिखते भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा. (फोटो साभार: ट्विटर/@p_sahibsingh

छठ में कोई पंडित, पुरोहित नहीं होता, यह भाजपा के सांसद महोदय को किसी ने नहीं बताया. छठ बिना नदी या घाट के नहीं हो सकता, यह भी सांस्कृतिक मूर्ख ही बोल सकते हैं. असल बात है मन का पवित्र होना. मन में द्वेष, घृणा और दूसरे को नीचा दिखाने की सोच के साथ छठ की बात सोचना भी पाप है.

10 नवंबर 2021 को दिल्ली के एक यमुना घाट की दीवार पर पेंट से लिखते भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा. (फोटो साभार: ट्विटर/@p_sahibsingh)

पुरखों ने बतलाया था, मन चंगा तो कठौती में गंगा. लेकिन परंपरा के पुजारी भारतीय जनता पार्टी के नेता उल्टा बतलाते हैं अपनी जनता को. मन को स्वच्छ करने गंगा या यमुना घाट जाना ही पड़ेगा. यमुना में भले ही गंदगी का झाग उफना रहा हो, उसी में डुबकी लगाना होगा वरना न तो छठी मैया प्रसन्न होंगी न सूर्य देवता का प्रसाद प्राप्त होगा.

यही समझ में आया जब भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद को यमुनाजी के किनारे छठ के लिए घाट बनाते हुए देखा. वे अपनी ही सरकार के नुमाइंदे, यानी लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब के आदेश का उल्लंघन करते हुए छठ व्रतधारियों की आस्था की रक्षा के लिए यमुना पहुंचे थे.

सांसद छठ करने वाली जनता के धार्मिक अधिकार की रक्षा करने के संकल्प से भरे हुए पहुंचे थे. छठ क्या होता है और क्या विधि है उसकी, यह जानने का आवश्यकता क्यों हो भला!

सो, खरना के दिन ही घाट पर दौरे में फलादि लेकर पूजा करवाते फोटो खिंचवाई. देखा, एक पंडित पूजा करवा रहा है. सांसद गहन संकल्पयुक्त भाव से माथे पर हाथ रखे पूजा करवा रहे हैं. फिर कुदाल लेकर घाट बनाते तस्वीर खिंचवाई.

आईटीओ के पास के यमुना घाट पर पूजा करते भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा. (फोटो साभार: ट्विटर)

यह सब कुछ छठ का भाजपाईकरण है. छठ में कोई पंडित, पुरोहित नहीं होता, यह सांसद महोदय को किसी बिहारी ने नहीं बताया. छठव्रती को किसी पंडित के समर्थन की आवश्यकता नहीं होती. उसके हृदय का संकल्प ही पर्याप्त है.

तो परंपरा की दुहाई देने वाले लोग परंपरा को कैसे रौंद डालते हैं, यह उसका एक उदाहरण है. यह तो एक पर्व है हिंदुओं का, जो पंडितों की गेटकीपरी से आज़ाद है. उसे भी जनता से छीनकर पुरोहितों को बिचौलिया बना देना चाहती है भाजपा, यह इस तस्वीर से साफ़ हुआ.

छठ बिना नदी या घाट के नहीं हो सकता, यह सांस्कृतिक मूर्ख ही बोल सकते हैं. बिहार और पूर्वांचल के आस्थाप्राण जन से पूछिए, वे आपको बताएंगे कि अपने घर में में छोटा तालाब बनाकर, छोटा पोखरा बनाकर भी छठ किया जा सकता है. असल बात है मन का पवित्र होना. मन में द्वेष, घृणा और दूसरे को नीचा दिखाने की हिंसा के साथ छठ की बात सोचना भी पाप है.

सांसद महोदय को यमुना पर छठ के लिए घाट बनाने का आयोजन करते देखा तो याद आया कि पटना में हमारी मामीजी ने अपनी छत पर और घर के सामने पानी घेरकर छोटा पोखरा बनाकर छठ करना शुरू किया था. तब थोड़ा अटपटा लगा था.

आदत थी हर छठ के समय घाट-घाट घूमने की. लेकिन जब मामीजी ने यह करना शुरू किया क्योंकि पटना में घाट पर भीड़ होने लगी थी, जगह की कमी और फिर मामीजी शारीरिक रूप से भी कुछ अक्षम होती जा रही थीं. वह अस्थायी घरेलू पोखरा अनूठा लगा था. लेकिन मामीजी ने छठ में व्रत की शेष कठिनाइयों से समझौता नहीं किया था.

जो छठ करते यहीं या जिन्होंने छठ किया है, वे जानते हैं कि उसका आरंभ करने के लिए तन और मन की कितनी तैयारी चाहिए. इसलिए चाहते हुए भी बहुत लोग खुद छठ नहीं करते क्योंकि उसका निर्वाह कठिन है.

पूर्वांचल, बिहार के लोग जानते हैं कि नहाय-खाय से जो तैयारी शुरू होती है, खरना के दिन दूसरे, उच्च चरण में पहुंचती है और फिर शुरू होता है लगभग 30 घंटे का निर्जल व्रत. इस बीच छठ व्रती या व्रतधारी का ध्यान उसके स्वजन, परिजन करते हैं.

हरेक वस्तु स्वच्छ होनी चाहिए. हर चूल्हे पर छठ की सामग्री तैयार नहीं हो सकती. पवित्रता पहली शर्त है. संयम उसके साथ लगा चला आता है. इसीलिए तो चार दिनों के इस पर्व में पहले दिन नहाए खाए है, जिसमें आप दोनों शाम खाते हैं, फिर खरना, जिसमें एक शाम खाते हैं, और फिर शाम के सूरज को अर्घ्य देकर भोर के सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही पारण.

अगर आपकी तैयारी इस कठिन व्रत की नहीं है तो दिखावे के लिए छठ नहीं किया जा सकता. इस कठिनाई को साधने वाले के प्रति श्रद्धा के कारण ही छठव्रती के आसपास के लोग उसका पूरा ध्यान रखते हैं. यह एक अवसर है, पूर्वा ने याद दिलाया, जिसे हम पर्व कहा करते थे. कब लोग छठ पूजा कहने लगे, याद कर रहा हूं. लेकिन वह भी कोई आपत्ति की बात नहीं. इसमें कोई मूर्ति नहीं हुआ करती थी.

एकमात्र ऐसा पर्व जो प्रकृति का था. आपका शरीर, जल और सूर्य. प्रकृति का प्रकृति से संयोग. कोई मध्यस्थ नहीं. जल जहां हो, मन पवित्र है तो वह गंगा है. दाहा नदी सीवान की हो, या पटना की गंगा या मुंबई का जुहू तट या आपके घर में सामने मिट्टी से घेरकर बनी पुखरिया, आपका तन और मन संयमित है या नहीं, शर्त बस उसी की है.

सांसद महोदय छठ करने नहीं, करवाने आए थे. बिना खुद को शिक्षित किए. लेकिन क्या छठव्रती इतने मूर्ख हैं? क्या वे अपने पर्व को इस हिंसक मूर्खता या मूढ़ता के हवाले करके इसके पवित्र सौंदर्य का नाश कर डालेंगे?

यमुना का जल प्रदूषित है, अभी भी कोरोना के संक्रमण का भय है, आपदा प्रबंधन प्राधिकार ने ही निर्देश जारी किए हैं कि लोग इकठ्ठा न हों, फिर सांसद और संघीय सरकार के मंत्री उस यमुना में व्रतधारियों को घंटों खड़ा करके क्यों उनकी जान जोखिम में डालना चाहते हैं? वे चाहते हैं कि हिंदू आत्महत्या कर लें?

यह धर्म नहीं है, न यह आस्था है. इसमें पाखंड है और है दिखावा. और यह एक पवित्र अवसर को विकृत करना है. गोवर्धन पूजा को गुड़गांव में मुसलमान के खिलाफ इस्तेमाल करना और छठ के अवसर का इस्तेमाल आम आदमी पार्टी की सरकार के खिलाफ हथियार की तरह करना.

आम आदमी पार्टी की सरकार भी इतनी भीरू और पाखंडी है कि साहस के साथ सच बोलने की जगह उसने यमुना में गंदले झाग को पानी की फुहार से बैठाने को जल बोर्ड के कर्मचारी तैनात कर दिए.

क्या हिंदू यह प्रहसन, जो उनके नाम पर किया जा रहा है, खामोशी से देखते रहेंगे और हास्य के पात्र बन जाएंगे?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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