चंडीगढ़ में सड़क पर ऑटो में दुबेजी से बातचीत: सब बेच दिया लेकिन देश वही चला सकता है

चंडीगढ़ की सड़कों पर ऑटो चलाने वाले एक शख़्स का कहना था कि महंगाई आसमान छू रही है, हर चीज़ महंगी है, किसान का जीना मुहाल है पर लोग खुश हैं.

/
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

चंडीगढ़ की सड़कों पर ऑटो चलाने वाले एक शख़्स का कहना था कि महंगाई आसमान छू रही है, हर चीज़ महंगी है, किसान का जीना मुहाल है पर लोग खुश हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

ट्रेन वक्त से ही चंडीगढ़ पहुंच गई थी. नवंबर के आख़िरी दिन थे. हल्की ठंड थी. अभी प्लेटफार्म पर उतरा ही था कि देखा चंडीगढ़ के मित्र, लेखक और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव सुखदेव सिंह का फोन आ रहा था.

‘आपके शहर में हूं,’ फोन पर पहला वाक्य अभिवादन की जगह कहा. ‘अरे! और मैं दिल्ली में.’ सुखदेवजी ने जवाब दिया. वे 26 नवंबर की तैयारी के लिए पहले ही दिल्ली पहुंच गए थे. 26 नवंबर को साल जो पूरा हुआ था किसानों के दिल्ली कूच का. उस मौके पर सिंघू, टिकरी और गाज़ीपुर, तीनों ही धरना स्थलों पर किसानों का बड़ा जमावड़ा हुआ था.

टिकरी पर सभा में पंजाबी लेखकों का जत्था भी पहुंचा था. किसानों पर पंजाबी में लिखी कविताओं की किताब का लोकार्पण हुआ. उसी में शामिल होने की दावत के लिए यह फोन था. अफ़सोस! मैं तो तब तक चंडीगढ़ में ही था.

बात करते-करते स्टेशन से बाहर निकल आया था. टैक्सी, ऑटो की पुकार सुनते हुए आगे बढ़ रहा था. एक ने इशारे से पूछा, गंतव्य पूछकर हामी भरी लेकिन हवाले कर दिया अपने किसी और साथी के. नौजवान ही था. दरम्याने कद का. फुर्तीला. पार्किंग में कुछ दूर जाकर मुझे खड़ा करके अपना ऑटो तेजी से ले आया.

एक की पीठ पर दूसरी कारों और ऑटो की कई लाइनें, जिससे एक दूसरे को धकेलती हुई धीरे-धीरे सरक रही थीं. मेरे मन में तीन दशक पहले का खामोश स्टेशन बसा हुआ है. मैंने बढ़ती भीड़ पर अपनी खीझ जाहिर की. ‘लोग हैं तो अच्छा ही है न! चंडीगढ़ में इतना फील्ड है, इतनी जगह है, आदमी नहीं रहे तो अच्छा लगेगा क्या?’ आदमी के बिना खाली जगहों के क्या मायने, इस तर्क का तुरत जवाब न था.

ऑटो ड्राइवर ने बात आगे बढ़ाई, ‘आपका बड़ा मकान हो, ऊपर नीचे, लेकिन रहने वाला न हो, कैसा लगेगा? मकान की शोभा है परिवार से.’ इस सवाल का भी जवाब मेरे पास न था. भीड़ और ट्रैफिक जाम पर मेरी खीझ पर यह एक चपत थी.

ऑटो दौड़ रहा था. चंडीगढ़ आते हुए 35 साल हो चुके हैं. ट्रैफिक की बत्तियां बढ़ते हुए और अब जाम में फंसते हुए उन शुरुआती सालों की दूर दूर तक फैली सड़कें याद आ जाती हैं जो अब गाड़ियों से ढंक गई हैं.

मैं जनशून्य खुलेपन के खो जाने से दुखी था. लेकिन मेरे ड्राइवर ने कहा कि गुजरे एक साल में एक भी गाड़ी इस पार्किंग में नहीं दिखती थी. न सड़क पर. तब मुझे खालीपन की अपनी तलाश और जनसंकुलता से उसकी आकांक्षा के बीच का फर्क समझ में आया. हम अभी कोरोना के वक्त के एक छोर पर थे. हम दोनों के चेहरों पर नकाब था.

कोरोना से बचे या नहीं, एक रस्मी सवाल मैंने किया. ‘हमें तो कुछ नहीं नहीं हुआ. जैसे ही शुरू हुआ, गाड़ी करके हम घर निकल गए. 26 हजार में गाड़ी की, आठ-नौ लोग मिलकर लखनऊ निकल गए.’

कोई परेशानी नहीं हुई? ‘नहीं.’ मेरे ऑटो ड्राइवर के स्वर में कोई शिकायत न थी. और गांव में क्या हाल था? ‘अरे! गांव में सब ठीक था. किसी को कुछ नहीं हुआ. जो खेती कर रहा था, उसको कोरोना-वोरोना नहीं हुआ.’

उत्तर से मुझे राजनीतिक संदेह हुआ. आखिर नदियों में तैरती लाशों की तस्वीरें क्या झूठ थीं? ‘अरे! लोग तो वैसे भी मरते ही हैं. सब लोग कोरोना से थोड़े ही मरे थे.’

ऑटो ड्राइवर के स्वर में बेपरवाही थी. वह गांव पर रहकर खेती करता रहा, मज़े से रहा. फिर जब आवाजाही शुरू हुई, एक ऑटो पर ही लखनऊ से चंडीगढ़ आ गया. एक भाई ऑटो ले गया था. उसी में पेट्रोल, सीएनजी डलवाते पहुंच गए. यहां आए तो फिर बंदी हो गई. किसान आंदोलन के चलते ट्रेन आ जा नहीं रही थी. काम ही नहीं था. किसी तरह दिन में सौ दो सौ रुपया अगर हो गया तो गनीमत.

क्या आपके गांव में किसान आंदोलन की चर्चा नहीं थी? ‘नहीं. वहां तो कोई जानता भी नहीं है. वहां इसका कोई असर नहीं है.’

‘और इस बार क्या होने वाला है आपके राज्य में?’ मैंने वही सवाल पूछा जो पत्रकार पूछा करते हैं ऑटो या टैक्सी वालों से. ‘वही आएगा, और क्या!’ उसने प्रश्न का संदर्भ समझ लिया था. ‘देश वही चला सकता है. सपा, कांग्रेस कोई कहीं नहीं है.’

मुझमें पत्रकार की चतुराई और समाजशास्त्री का धीरज था नहीं. कुछ बोल ही पड़ता कि वह खुद बोला, ‘लेकिन एक बात है. इस राज में महंगाई आसमान छू रही है. हर चीज़ महंगी. मत पूछिए. अब तेल दो सौ रुपया लीटर मिल रहा है. टमाटर का देख ही रहे हैं.’

मुझे मौक़ा मिला. आप तो कह रहे थे कि बड़ा अच्छा चला रहा है, इसी को आना है. लेकिन महंगाई फिर क्यों है? ‘महंगाई क्या सपा कम कर देगी कि कांग्रेस कम करेगी? वह तो हर राज में रहेगी! देश इसके अलावा और कोई चला नहीं सकता.’

लेकिन सरकार का फिर काम क्या है अगर वह महंगाई पर रोक नहीं लगा सकती? ‘सो तो है. ये रहेगा तो बेच देगा. सब ख़त्म हो जाएगा.’

बात अब दूसरी सतह पर चली गई थी. पहली सतह और दूसरी में बहुत दूरी थी. इस छलांग से मैं भी ज़रा हड़बड़ा गया. ‘किसान का जीना मुहाल है. अगर कोई नौकरी कर रहा परिवार में तो ठीक है. नहीं तो बड़ी दिक्कत है.’

फिर भी आप इसी सरकार लाना चाहते हैं, मैंने उलाहना दिया. ‘अब क्या करें! हमारे गांव के 20 किलोमीटर तक किसी और पार्टी का झंडा भी नहीं है. हम थोड़े कह रहे हैं. गांव के लोग यही कह रहे हैं.’

‘देखिए, अब लोग खेती नहीं करना चाहते हैं. नौकरी हो तो ठीक है. इस सरकार ने नौकरी दिया है. हमारे यहां कोई मास्टर लग गया तो कोई पुलिस में गया और कोई मिलिटरी में. लोग यही कह रहे हैं. लोग खुश हैं.’

ऑटो सीएसआईओ  के आवासीय परिसर में घुस चुका था. ‘मेरी भाभी यहां काम करती हैं.’ उसके मन में मेरे इस परिसर से रिश्ते को लेकर उत्सुकता को भांपकर पहले ही मैंने सूचित किया.

ऑटो घर के सामने रुका.’सुनीता मिश्रा!’ ऑटो ड्राइवर ने उन बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे नाम को पढ़ा. मिश्रा! इसे दुहराया. ‘अच्छा,तो आप मिश्रा हैं!’ नहीं, मैं नहीं, मेरी भाभी मिश्रा हैं, मैंने उत्तर दिया.

‘हम दुबे हैं.’ ऑटोवाले ने प्रतिसूचना दी. अयाचित! ‘अच्छा दुबेजी! बहुत धन्यवाद.’ मैंने किराया दिया और गेट से अंदर घुसा और ऑटो उसी मज़े की तेजी में आगे बढ़ गया.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq