दिनकर: उजले को लाल से गुणा करने से बनने वाले रंग की कविता

रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था, ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा.’

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रामधारी सिंह दिनकर. (जन्म: 23 सितंबर 1908, अवसान: 24 अप्रैल 1974)

रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था, ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा.’

रामधारी सिंह दिनकर. (जन्म: 23 सितंबर 1908, अवसान: 24 अप्रैल 1974)
रामधारी सिंह दिनकर. (जन्म: 23 सितंबर 1908, अवसान: 24 अप्रैल 1974)

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

रामधारी सिंह दिनकर

ये बात थोड़ी विचित्र लग सकती है, लेकिन अपने रचनात्मक जीवन में लगातार सुविधाजनक तटस्थता का विरोध करने वाले दिनकर की स्थिति हिंदी साहित्य के इतिहास में करीब-करीब हाशिए पर खड़े कवि की है.

ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि दिनकर आधुनिक हिंदी के सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक हैं. दिनकर को साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मविभूषण आदि तमाम बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया.

इसके अलावा दिनकर दो बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे. दिनकर की चर्चित किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है. इस प्रस्तावना में नेहरू ने दिनकर को अपना ‘साथी’ और ‘मित्र’ बताया है.

दिनकर हिंदी पट्टी के मानस में जितनी जगह घेरते हैं, उतनी जगह हिंदी साहित्य के इतिहास की किताबों में नहीं घेरते. ‘उर्वशी’ पर हुए विवाद को छोड़ दें, तो हिंदी आलोचना और गंभीर साहित्यिक बहसों से भी उन्हें एक तरह से बाहर रखा गया.

इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हिंदी कविता में जितने भी आंदोलन हुए, दिनकर उनमें से किसी में फिट नहीं बैठते हैं. वे हिंदी कविता के प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी, दोनों गुटों से बाहर रहे.

दिनकर ने छायावाद के आखिरी वर्षों में लिखना शुरू किया और आजादी के बाद लगभग एक चौथाई सदी तक लिखते रहे. इस दौर में हिंदी में ‘प्रगतिवाद’, ‘प्रयोगवाद’, ‘नई कविता’ जैसे बड़े काव्य आंदोलन हुए. लेकिन दिनकर इनमें से किसी भी आंदोलन का हिस्सा नहीं माने जाते. दिनकर का पहला कविता-संग्रह ‘रेणुका’ 1935 में छपकर आया.

हिंदी साहित्य के इतिहास में 1934 से 1936 के दो-तीन साल खासे ऐतिहासिक महत्व के हैं. हिंदी की कई बड़ी रचनाएं इसी दौरान प्रकाशित होती हैं. प्रेमचंद का उपन्यास गोदान, निराला की कविता राम की शक्तिपूजा, जयशंकर प्रसाद की कामायनी आदि. दिलचस्प है कि 1935 में ही हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला का प्रकाशन हुआ और 1936 में ही लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन के साथ प्रगतिवादी आंदोलन की शुरुआत भी हुई.

इसी तरह कुरुक्षेत्र (1946) के प्रकाशन से पहले अज्ञेय के संपादन में ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन हो चुका था और ‘प्रयोगवाद’ पर बहस चल रही थी. रश्मिरथी (1952) से एक साल पहले अज्ञेय के संपादन में ही ‘दूसरा सप्तक’ आया और धीरे-धीरे ‘नई कविता’ की बात चल पड़ी. तीसरा सप्तक के प्रकाशन के करीब दो साल बाद 1961 में दिनकर की कामाध्यात्म की समस्या को लेकर ‘उर्वशी’ आई (जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया).

यहां यह जानकारी इस ओर ध्यान दिलाने के लिए है कि तत्कालीन हिंदी कविता जिन नए-नए भावबोधों को लेकर चली दिनकर उनसे लगभग अछूते नजर आते हैं. दिनकर एक तरह से ‘एकला चलो रे’ की तर्ज पर अपनी ही गति से अपने रास्ते पर चलते गए.

लेकिन साहित्य की मुख्य धारा से बाहर होने के बावजूद दिनकर की उपस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. दिनकर की छवि ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो/उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो’ जैसी पंक्तियां लिखने वाले राष्ट्रीयता के योद्धा (मैस्कुलीन) कवि की है. ‘कुरुक्षेत्र’(1946), रश्मिरथी(1952) और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’(1963) को उनके इसी काव्य व्यक्तित्व का प्रतिनिधि माना जा सकता है.

दिनकर के अंदर युद्ध या कि शांति को लेकर एक दुविधा दिखती है. दिनकर एक तरफ 1946 में ‘कुरुक्षेत्र’ जैसी रचना के साथ आते हैं, जिसमें युद्ध की सार्थकता पर ही सवाल खड़े किए गए हैं, वहीं दूसरी तरफ 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारत को मिली हार के बाद वे ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की रचना करते हैं, जिसमें युद्ध को एकमात्र रास्ता बताया गया है.

इस बात को आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहिए कि नेहरू के बाद देश की बागडोर संभालने वाले लालबहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था. ‘किसान’ से पहले ‘जवान’ का आ जाना संयोग नहीं है. यह नारा एक तरह से राष्ट्र की उस तत्कालीन चेतना से जुड़ने के लिए है, जिसका प्रतिनिधित्व दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में किया था.

दरअसल, 1962 के बाद भारत शांति के नेहरूवादी रास्ते से हटकर वास्तव में एक बाहुबली राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ता है. पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 के युद्धों में भारत की जीत इसी नए बाहुबली भारत की जीत थी.

एक शांतिवादी राष्ट्र की जगह एक सामरिक शक्ति के तौर पर भारत के उदय की जो कल्पना दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में की थी, उसकी चरम परिणति 1974 में पोखरण के परमाणु परीक्षण में हुई.

ऐसा नहीं है कि दिनकर में यह बदलाव अचानक आया हो. अपनी शुरुआती रचना, ‘हिमालय’ में भी दिनकर ऐसी बातें कर चुके थे:

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां,

जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा,

लौटा दे अर्जुन-भीम वीर.

युद्ध और शांति को लेकर दिनकर के भीतर अंतर्विरोध की स्थिति लगातार दिखाई देती है. आजाद भारत की ‘पंचशील’ पर आधारित नेहरूवादी विदेश नीति को दिनकर ने अपना पूरा समर्थन दिया था. 1955 लिखे अपने एक लेख, ‘शांति की समस्या’ में दिनकर जोर देकर कहते हैं:

‘प्रत्येक देश की वैश्विक नीति, उसके राष्ट्रीय चरित्र की परछाईं होती है. हमारा राष्ट्रीय चरित्र योद्धा नहीं, शांति-सेवक का रहा है…भारत नाम में जो दिव्यता है, उसके प्रतीक यहां अर्जुन नहीं, युधिष्ठिर रहे हैं. चंद्रगुप्त नहीं अशोक रहे हैं…सच तो ये है कि हमारी विदेश नीति कुछ और हो ही नहीं सकती थी. आनेवाला विश्व सिकंदर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गांधी और जवाहर का संसार होगा.’’

अगर इस कथन को ‘हिमालय’ या ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के साथ मिलाकर देखा जाए, तो दिनकर के विचारों का विरोधाभास सामने आ जाता है. लेकिन, वास्तव में यह एक तरफ दिल और एक तरफ दिमाग (ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र की तर्ज पर) का मामला ज्यादा है.

कह सकते हैं कि दिनकर दिल से युद्ध के पक्ष में रहे और चिंतन के स्तर पर शांति के पक्ष में. दिनकर के साहित्यिक व्यक्तित्व का एक पहलू भावुक युवक का है. दूसरा पहलू गंभीर चिंतक का है. दिनकर का गद्य दिनकर का दिमाग है, कविता उनका दिल. ‘कुरुक्षेत्र’ में उन्होंने हृदय और मस्तिष्क को एक साथ मिलाने की कोशिश की है. ‘कुरुक्षेत्र’ में द्वंद्व का कारण यही है.

दिनकर की कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि वे बड़े पैमाने पर लोगों की जुबान पर चढ़ गईं. खासकर बिहार में दिनकर की प्रतिष्ठा किसी को भी हैरान कर सकती है.

यह बात भी भुलाई नहीं जा सकती है कि दिनकर की मृत्यु के बाद, बिहार में ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन में दिनकर की कविता (जो संभवतः उन्होंने पहले गणतंत्र दिवस पर लिखी थी) की ये पंक्तिया एक तरह से क्रांति गीत बन गई थीं:

सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है.

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.

जनता और साधारण लोगों की बात दिनकर की कविता में बार-बार आती है. उनकी कविताओं में यह सवाल भी आता है कि आजादी के मायने क्या हैं? यह आजादी किसके लिए है? यह सवाल उन्हें वैचारिक स्तर पर मार्क्सवाद के थोड़ा नजदीक ले जाता है. ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहण करते वक्त दिए गए आत्मवक्तव्य में दिनकर ने अपनी प्रेरणाओं के बारे में बताया था:

“जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा.”

रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव दिनकर पर कई जगहों पर दिखाई देता है. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ किताब की शुरुआत में दिनकर ने टैगोर की एक बांग्ला कविता का इस्तेमाल किया है:

हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़-चीन

शाक-हूण-दल, पाठान-मोगल एक देहे होलो लीन

(यानी जितनी भी जातियां आईं, वे सब भारत के महासमुद्र में लीन हो गईं.)

उनकी कविता ‘रोटी और स्वाधीनता’ में तो इकबाल भी आते हैं और टैगोर भी. यहां मार्क्स भी हैं और गांधी भी हैं. जब दिनकर ये कहते हैं कि आजादी का मतलब सोचने का हक़ है, बोलने का हक़ है, दिल जिधर ले जाना चाहे, उधर जाने का हक़ है, तो वे टैगोर से प्रेरणा ले रहे होते हैं और जब वे कहते हैं कि ‘रोटी उसकी जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम’ और आजादी का मतलब मेहनत का फल पाना और शोषण की धज्जियां उड़ाना है, तो वे मार्क्स के करीब पहुंच जाते हैं.

दिनकर की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ को भारत के भविष्य की कल्पना और भारत को समझने की कोशिश का परिणाम कहा जा सकता है. लगभग एक हिंदू वेदांती मन से लिखे जाने के बावजूद यह एक पठनीय किताब है.

इस किताब में भारतीय इतिहास, समाज, संस्कृति, धर्म और दर्शन पर विस्तार से विचार किया गया है. किसी गैर-इतिहासकार द्वारा इतिहास के अनुशासन में प्रवेश की यह कोशिश, अपनी कमियों के बावजूद महत्वपूर्ण कही जा सकती है.

एक तरह से इसे नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की पूरक भी कहा जा सकता है. हालांकि इस किताब की कुछ स्थापनाओं को स्वीकार किया जाना मुश्किल है, लेकिन फिर भी भारत को समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है.

बाकी बातों के अलावा, इस किताब की अहमियत इस्लाम और हिंदू समाज के बीच के जटिल रिश्ते की पड़ताल करने के कारण है. कई जगहों पर सरलीकरण की प्रवृत्ति के बावजूद दिनकर की यह दृष्टि महत्वपूर्ण है :

‘हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए इतिहास की घटनाओं पर पर्दा नहीं डाला जा सकता. न यही योग्य है कि हम इस्लाम पर पड़नेवाले हिंदू प्रभाव अथवा हिंदुत्व पर पड़ने वाले मुस्लिम प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें. जो बातें जैसी हैं, इतिहास में उनका वर्णन वैसा ही रहेगा. मुसलमानों को यह समझना होगा कि आदमी की धर्म-भक्ति और उनके स्वदेश प्रेम में विरोध नहीं है. अमीर खुसरो, जायसी, अकबर, रहीम, दाराशिकोह मुसलमान भी थे और भारत-भक्त भी. हिंदुओं को भी इस बात का ज्ञान प्राप्त करना है कि इस्लाम का भी अर्थ शांति-धर्म ही है. इस धर्म का मौलिक रूप अत्यंत तेजस्वी था तथा जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किए, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे. इन अत्याचारों को हमें इसलिए भूलना है कि उनका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियां थीं, जो अब समाप्त हैं और इसलिए भी कि उन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकते.’

दिनकर यह दृष्टि ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू की हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को लेकर अपनाई गई दृष्टि से मेल खाती है. इसमें नेहरू ने ‘इस्लामी हमला’ पद को गलत बताते हुए लिखा है कि वास्तव में भारत पर अफगानों का, तुर्कों का, मंगोलों का हमला हुआ.

दिनकर भी इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि ‘जिस मुसलमान के कारण इस्लाम भारत में उतना बदनाम हुआ, वह ईरानी कम, तुर्क या हूण अधिक था और अरबी तथा ईरानी संस्कृति की उदारता उसमें नहीं थी.’

साथ ही वे यह भी दिखाते हैं कि इस्लाम सिर्फ तलवार की ताकत के बल पर नहीं फैला. हिंदू समाज के भीतर अछूत कही जानेवाली जातियों ने हिंदू धर्म की अमानवीय प्रथाओं से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम को अपने मुक्तिदाता के तौर पर देखा.

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(फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर सिर्फ पूर्वाग्रहों के आधार पर बहस करनेवालों को एक बार दिनकर की यह किताब पढ़नी चाहिए. दिनकर ने यहां बाबर के वसीयतनामे के हवाले से यह दिखाया है कि किस तरह से बाबर ने हुमायूं से इस देश में सारे धर्मो के साथ बराबरी का बर्ताव करने की बात कही थी (हिंदुस्तान में अनेक धर्मों के लोग बसते हैं. भगवान को धन्यवाद दो कि उन्होंने तुम्हें इस देश का बादशाह बनाया है. तुम तअस्सुब से काम न लेना; निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी धर्मों की भावना का ख्याल करना..). वे आजादी की लड़ाई में भी मुसलमानों भूमिका की याद दिलाते हैं. दिनकर लिखते हैं,

‘भारत का विभाजन हो जाने के कारण ऐसा दिखता है, मानो, सारे के सारे हिंदू और मुसलमान उन दिनों आपस में बंट गए थे तथा मुसलमानों में राष्ट्रीयता थी ही नहीं. किंतु यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. भारत का विभाजन क्षणस्थाई आवेगों के कारण हुआ और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि मुसलमानों में राष्ट्रीयता नहीं है.’

दिनकर ने अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, जमील मज़हरी, सागर निज़ामी और सीमाब अकबराबादी के लेखन को सामने लाकर यह दिखाया है कि किस तरह से मुसलमानों के भीतर राष्ट्रीयता के भाव लहरा रहे थे.

वैसे ये बात खटकती है कि दिनकर ने इनकी देशप्रेम से भरी कविताओं को फुटनोट्स में डाल दिया है. प्रकाशक को चाहिए कि इन कविताओं को फुटनोट्स से निकालकर किताब के भीतर शामिल करे.

देश की साझी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए, सबसे पहले अपने देश के इतिहास, समाज, संस्कृति, धार्मिक परंपराओं और यहां रहनेवाले सभी लोगों को जानना जरूरी है. यह समझना जरूरी है कि आखिरी हमारी साझी विरासत क्या चीज है?

‘संस्कृति के चार अध्याय’ इस काम में हमारी मदद करती है. दिनकर को सिर्फ एक योद्धा कवि के तौर पर देखना और संस्कृति के चार अध्याय जैसी किताब को दरगुजर कर कर देना, दिनकर के महत्व को कम करना तो है ही, इससे भारत के विचार को मजबूत करने की लड़ाई भी कमजोर होती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)