विधायिका पारित क़ानून के प्रभाव का आकलन नहीं करती, जिससे बड़े मुद्दे खड़े होते हैं: सीजेआई

संविधान दिवस समारोह के समापन कार्यक्रम में प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि अदालतों में मामले लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी है. विधायिका अपने द्वारा पारित क़ानूनों के प्रभाव का अध्ययन नहीं करती और इससे कभी-कभी बड़े मुद्दे उपजते हैं. ऐसे में पहले से मुक़दमों का बोझ झेल रहे मजिस्ट्रेट हज़ारों केस के बोझ से दब गए हैं.

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चीफ जस्टिस एनवी रमना. (फोटो साभार: यूट्यूब/सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन)

संविधान दिवस समारोह के समापन कार्यक्रम में प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि अदालतों में मामले लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी है. विधायिका अपने द्वारा पारित क़ानूनों के प्रभाव का अध्ययन नहीं करती और इससे कभी-कभी बड़े मुद्दे उपजते हैं. ऐसे में पहले से मुक़दमों का बोझ झेल रहे मजिस्ट्रेट हज़ारों केस के बोझ से दब गए हैं.

चीफ जस्टिस एनवी रमना. (फोटो साभार: यूट्यूब/सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन)

नई दिल्ली: प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना ने शनिवार को कहा कि विधायिका कानूनों के प्रभाव का आकलन या अध्ययन नहीं करती है, जो कभी-कभी ‘‘बड़े मुद्दों’’ की ओर ले जाते हैं और परिणामस्वरूप न्यायपालिका पर मामलों का अधिक बोझ पड़ता है.

प्रधान न्यायाधीश ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना मौजूदा अदालतों को वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

न्यायाधीशों और वकीलों को संबोधित करते हुए जस्टिस रमना ने कहा, ‘हमें याद रखना चाहिए कि जो भी आलोचना हो या हमारे सामने बाधा आए, न्याय प्रदान करने का हमारा मिशन नहीं रुक सकता है. हमें न्यायपालिका को मजबूत करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करने को लेकर आगे बढ़ना होगा.’

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की उपस्थिति में संविधान दिवस समारोह के समापन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि न्यायपालिका में मामलों के लंबित होने का मुद्दा बहुआयामी प्रकृति का है और उम्मीद है कि सरकार इस दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान प्राप्त सुझावों पर विचार करेगी तथा मौजूदा मुद्दों का समाधान करेगी.

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘एक और मुद्दा यह है कि विधायिका अपने द्वारा पारित कानूनों के प्रभाव का अध्ययन या आकलन नहीं करती है. यह कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाता है. परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 की शुरूआत इसका एक उदाहरण है. पहले से मुकदमों का बोझ झेल रहे मजिस्ट्रेट इन हजारों मामलों के बोझ से दब गए हैं. इसी तरह, मौजूदा अदालतों को एक विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना वाणिज्यिक अदालतों के रूप में पेश करने से लंबित मामलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.’

परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 बैंक खातों में पर्याप्त धन नहीं रहने पर चेक बाउन्स होने से संबंधित मामलों से जुड़ी है.

प्रधान न्यायाधीश ने केंद्रीय कानून मंत्री की घोषणा की सराहना की कि सरकार ने न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 9,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. जस्टिस रमना ने कहा, ‘जैसा कि मैंने कल बताया था, धन की समस्या नहीं है. समस्या कुछ राज्यों के अनुदान की बराबरी करने के लिए आगे नहीं आने के कारण है. नतीजतन, केंद्रीय धन का काफी हद तक इस्तेमाल नहीं होता है.’

उन्होंने कहा, ‘यही कारण है कि मैं न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की एक सहायक कंपनी (एसपीवी) का प्रस्ताव कर रहा हूं. मैं मंत्री से आग्रह करता हूं कि इस प्रस्ताव को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाएं. मैं उनसे न्यायिक रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया में तेजी लाने का भी आग्रह करता हूं.’

उन्होंने आगे जोड़ा कि इस दो दिवसीय बैठक का उद्देश्य संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करना था और शुक्रवार को उन्होंने उल्लेख किया था कि कैसे समाज के जानकार वर्ग भी संविधान के महत्व से अनजान हैं.

उन्होंने कहा, ‘हालांकि हम संविधान के मूल्यों को बनाए रखने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं, फिर भी संविधान के बारे में और अधिक जागरूकता फैलाने की जरूरत है. यदि लोग अपने अधिकारों और अधिकारों के बारे में अनजान होंगे, तो वे इससे फायदा भी नहीं ले सकते हैं. लोगों को राज्य के विभिन्न अंगों को सौंपी गई भूमिकाओं के दायरे और सीमाओं को जानना चाहिए. हमें प्रचलित भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत है.’

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि देश में कई लोग ऐसा मानते हैं कि अदालतें कानून बनाती हैं तथा एक और गलतफहमी है कि बरी किए जाने और स्थगन के लिए अदालतें जिम्मेदार हैं.

उन्होंने कहा, ‘हकीकत यह है कि सरकारी वकील, अधिवक्ता और पक्षकारों, सभी को न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग करना होता है. असहयोग, प्रक्रियात्मक चूक और दोषपूर्ण जांच के लिए अदालतों को दोष नहीं दिया जा सकता है. न्यायपालिका के साथ ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है.’

न्यायिक प्रणाली के पुनर्गठन और अदालतों के पदानुक्रम में बदलाव के प्रस्ताव को लेकर अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा शुक्रवार को दिए गए सुझावों का उल्लेख करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह कुछ ऐसा है, जिस पर सरकार को विचार करना होगा.

उन्होंने कहा, ‘स्वतंत्रता के बाद से भारत में न्यायपालिका का संरचनात्मक पदानुक्रम वास्तव में क्या होना चाहिए, मुझे नहीं लगता कि इस पर विचार करने के लिए कोई गंभीर अध्ययन किया गया है.’

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, उन्होंने यह भी कहा कि आवश्यकता सभी आविष्कारों की जननी है और कोविड-19 महामारी के दौरान न्यायपालिका को विभिन्न मुद्दों पर अपना रवैया बदलना पड़ा.

सीजेआई ने जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जो प्रौद्योगिकी से संबंधित सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न समितियों के प्रमुख हैं, को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘इसने हमें कुछ अच्छे तरीकों को विकसित करने के लिए मजबूर किया है, जो आने वाले दिनों में हमारे लिए सहायक होंगे, हालांकि एक भयानक कीमत भी चुकाई गई. भारतीय न्यायपालिका ऑनलाइन मोड में परिवर्तित होने वाले पहले संस्थानों में से एक थी. इसने अवसरों की एक दुनिया खोली है और हमने इससे होने वाले असंख्य लाभों को देखा है.’

उन्होंने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (नालसा) के कार्यकारी अध्यक्ष जस्टिस यूयू ललित को भी कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए एक उत्साही अभियान का नेतृत्व करने के लिए धन्यवाद दिया.

जस्टिस रमना ने कहा कि पिछले दो साल सभी के लिए बहुत कठिन रहे हैं और कई न्यायाधीशों, न्यायिक अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी जान गंवाई है और वे समझते हैं कि इस कठिन समय में उन्होंने कितना तनाव और पीड़ा का सामना किया होगा.

 (समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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