‘संदिग्ध एनकाउंटर’ का इस्तेमाल अपराध पर अंकुश लगाने के लिए नहीं किया जा सकता: दिल्ली कोर्ट

दिल्ली की एक अदालत एक ऐसे व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे कथित तौर पर उसके घर से उठाया गया था, अवैध हिरासत में रखा गया और फिर एक ‘मुठभेड़’ में पैर में गोली मार दी गई थी. अदालत ने पाया कि औपचारिक गिरफ़्तारी 13 नवंबर को की गई थी, हालांकि उस व्यक्ति को कथित मुठभेड़ में गोली दो नवंबर को मारी गई थी.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

दिल्ली की एक अदालत एक ऐसे व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे कथित तौर पर उसके घर से उठाया गया था, अवैध हिरासत में रखा गया और फिर एक ‘मुठभेड़’ में पैर में गोली मार दी गई थी. अदालत ने पाया कि औपचारिक गिरफ़्तारी 13 नवंबर को की गई थी, हालांकि उस व्यक्ति को कथित मुठभेड़ में गोली दो नवंबर को मारी गई थी.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: हिरासत में प्रताड़ना के आरोपों पर पुलिस को फटकार लगाते हुए दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि ‘संदिग्ध मुठभेड़ों’ का इस्तेमाल अपराध पर अंकुश लगाने के लिए नहीं किया जा सकता है.

बार एंड बेंच के मुताबिक, मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट विनोद कुमार मीणा की अदालत एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दायर एक आवेदन पर सुनवाई कर रही थी, जिसे कथित तौर पर उसके घर से उठाया गया था, अवैध हिरासत में रखा गया था और फिर एक ‘मुठभेड़’ (Encounter) में पैर में गोली मार दी गई थी.

बीते 26 नवंबर के आदेश में कहा गया, ‘यह गहरी चिंता का विषय है, क्योंकि यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है, जिसे नागरिकों का रक्षक माना जाता है. इसे वर्दी की आड़ में अंजाम दिया गया है, जहां पीड़ित पूरी तरह से असहाय है.’

कोर्ट ने कहा, ‘निस्संदेह अदालत इस बात से अवगत है कि पुलिस को कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए कठिन और संवेदनशील काम करना पड़ता है, लेकिन ऐसी स्थिति से निपटने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की जरूरत होती है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘किसी भी स्थिति में सभी नागरिकों के संवैधानिक मौलिक अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए. संदिग्ध मुठभेड़ों को अपराध को नियंत्रित करने के समाधान के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह याद रखना होगा कि इलाज बीमारी से भी बदतर नहीं हो सकता है.’

अदालत ने यह भी नोट किया कि औपचारिक गिरफ्तारी केवल 13 नवंबर को की गई थी, हालांकि उस व्यक्ति को दो नवंबर को पुलिस ने गोली मारी थी.

जज ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस परिवार को सूचित नहीं करना चाहती थी कि क्या हुआ था. परिवार का कहना है कि उन्हें मुठभेड़ के बारे में मीडिया रिपोर्ट्स से ही पता चला था.

आदेश में कहा गया है, ‘जांच एजेंसी ने लगभग 11 दिनों तक इंतजार किया जब तक कि उसे डीडीयू अस्पताल से तिहाड़ जेल में ट्रांसफर नहीं किया गया. ये सभी परिस्थितियां स्पष्ट रूप से मुठभेड़ की जानकारी उसके परिवार के सदस्यों से गुप्त रखने के लिए जांच एजेंसी के प्रयास को प्रदर्शित करती हैं. इसके साथ ही गिरफ्तारी में जान-बूझकर देरी की गई, जो कि जांच एजेंसी की दुर्भावना को दर्शाती है.’

अदालत ने दावा किया कि जांच एजेंसी भी परस्पर विरोधाभासी और टालमटोल कर जवाब दे रही है. अदालत ने कहा, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि जांच एजेंसी ने पूरे दिल से कोशिश की है कि मुठभेड़ के तथ्य को सामने न लाया जाए.’

जज ने यह भी चिंता व्यक्त की कि अधिकारियों ने अपने पिछले निर्देश का पालन नहीं किया. इसे लेकर कोर्ट ने संबंधित जिला आयुक्त को आरोपों का जवाब देने और इस पर रिपोर्ट दायर करने को कहा है.

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