क्या उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी चुनावी रण शुरू होने से पहले ही बाहर हो गई है

उत्तराखंड के तेरह ज़िलों में असल समस्या सुदूर नौ पहाड़ी ज़िलों की है, लेकिन आम आदमी पार्टी का इन दुर्गम अंचलों से कोई सरोकार नहीं दिखता. वह भी कांग्रेस और भाजपा की राह पर चलते हुए राज्य में सुविधा की राजनीति कर रही है.

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अगस्त 2021 में देहरादून में आप की 'देवभूमि संकल्प यात्रा' के दौरान पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार रिटायर्ड कर्नल अजय कोठियाल के साथ अरविंद केजरीवाल. (फोटो: पीटीआई)

उत्तराखंड के तेरह ज़िलों में असल समस्या सुदूर नौ पहाड़ी ज़िलों की है, लेकिन आम आदमी पार्टी का इन दुर्गम अंचलों से कोई सरोकार नहीं दिखता. वह भी कांग्रेस और भाजपा की राह पर चलते हुए राज्य में सुविधा की राजनीति कर रही है.

अगस्त 2021 में देहरादून में आप की ‘देवभूमि संकल्प यात्रा’ के दौरान पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार रिटायर्ड कर्नल अजय कोठियाल के साथ अरविंद केजरीवाल. (फोटो: पीटीआई)

अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में पहली बार यहां एक तीसरा ध्रुव आम आदमी पार्टी के तौर पर उभरा था. विडंबना यही है कि भाजपा व कांग्रेस की तरह ही आम आदमी पार्टी (आप) यहां भी दिल्ली के रिमोट से ही संचालित हो रही है. दिल्ली से यहां उसकी भी लगाम कसने की वही कार्यशैली है जो कांग्रेस या भाजपा की इन दो दशकों में रही है.

पिछले साल तक लगा था कि आम आदमी पार्टी की दस्तक से उत्तराखंड कि राजनीति मे भूचाल आ सकता है. अब जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहे हैं, सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस मे कांटे की टक्कर थी और पूरा चुनाव सिमटता दिख रहा है. मात्र 2-3 सीटों पर ही आप उम्मीदवारों की  मौजूदगी दिखने के आसार हैं.

उत्तराखंड के तेरह जिलों में असल समस्या सुदूर नौ पहाड़ी जिलों की है. आम आदमी पार्टी को इन दुर्गम अंचलों से कोई सरोकार नहीं दिखता. वह भी कांग्रेस और भाजपा की नक़ल कर उत्तराखंड में भी सुविधा की राजनीति कर रही है. जैसे लोगों को मात्र वोट और सत्ता पाने को बिजली मुफ़्त जैसे तात्कालिक लालच के सब्जबाग दिखाना.

इस तरह के ढुलमुल रुख से लोगों की नजर मे चुनाव प्रचार के पहले ही आम आदमी पार्टी यहां गेम से बाहर हो गई है.

70 विधानसभा सीटों वाले उत्तराखंड में फरवरी व मार्च के शुरू में  चुनाव होंगे. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया उत्तराखंड के दो-तीन दौरे कर चुके हैं. उनके दौरों के बाद उनकी पार्टी मे सब कुछ शून्य हो जाता है.

भाजपा से गए रविंद्र जुगरान जैसे आंदोलनकारी व कुछेक संघर्षशील लोग आप से जुड़े भी लेकिन उनको जानबूझझकर एकदम अलग-थलग कर दिया गया है.

धारणा यही है कि आम आदमी पार्टी को वाकई में उत्तराखंड की  समस्याओं से लेना-देना होता तो उसे गैरसैण में राजधानी समेत पहाड़ के तमाम सवालों पर अपनी साफ़ रणनीति घोषित करनी चाहिए थी. जगजाहिर है कि उत्तराखंड के विनाश की शुरुआत ही भाजपा और कांग्रेस ने देहरादून से अस्थाई राजधानी चलाकर यहां पर्वतीय प्रदेश की अवधारणा को दफ़न कर दिया.

यहां के सारे नेता सांसद, पूर्व सांसद, मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री सब देहरादून में घर बनाकर बस गए. 20 साल में शायद ही कोई विधायक ऐसा होगा, जिसने पहाड़ से पलायन कर देहरादून में ही अपना स्थाई ठिकाना न बना लिया हो.

नेताओं की देखा देखी सारे अधिकारी कर रहे हैं. जमीन और भू माफिया ने सत्ता में बैठे लोगों के साथ इन तमाम सालों में नापाक गठबंधन बना लिया है. राज्य बनने के बाद यहां 200 से ज्यादा घोटाले हो चुके लेकिन यहां के चुनावों मे ये कोई मुद्दा नहीं हैं.

दरअसल पहाड़ के आम नागरिक के मुद्दों को ईमानदारी से वही पार्टी उठा सकती थी जिनका नेतृत्व सुदूर पहाड़ों के लोगों का प्रतिनिधित्व करता हो. आम आदमी पार्टी ने पहाड़ के लोगों और उनके बुनियादी मुद्दों से मुंह चुराकर यह बड़ा मौका हाथ से गंवा दिया.

उसने साफ छवि के कर्नल अजय कोठियाल को भले ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया. कोठियाल को कोई नेता मानने को तैयार नहीं दिखता. नतीजतन आप मुकाबले में कहीं नहीं है.

लोगों को अब यही लग रहा है कि नाममात्र के लिए चुनाव लड़ने और वोट काटने तक ही इस बार के चुनाव में आप का ताना-बाना सीमित रहेगा. भाजपा को तोड़ने में आप की कोई दिलचस्पी नहीं दिखी, जबकि शुरू में कई बड़े नाम आप के संपर्क में बताए जा रहे थे.

उत्तराखंड बनने के बाद अलग पर्वतीय राज्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाला उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) पहाड़ की राजनीति में अब लगभग इतिहास बन चुका है.

इसकी वजह गिनाने के लिए कई हैं लेकिन कांग्रेस व भाजपा के साथ तीन-चार बार सत्ता की भागीदारी करके यूकेडी ने पहाड़ की जनता में अपनी साख बुरी तरह खो डाली. आप चाहती तो खुद को आम मतदाता की नजर में एक बड़ा विकल्प बना सकती थी.

पलायन रोकना सबसे बड़ी समस्या है. स्थानीय पढ़े-लिखे युवकों के पास सेना में भर्ती होने के अलावा कोई विश्वसनीय रोजगार का विकल्प नहीं है. रोजगार देने के वादे सिर्फ़ चुनाव सामने आने के बाद ही सुनाई देते है. आम लोग भी बखूबी जानते हैं कि चुनाव सिर पर नहीं होते तो इस रोजगार के पिटारे को खोलने के दावे नहीं होते.

रोजगार के नाम पर यहां के नौजवानों के पास पलायन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है. गाहे-बगाहे फ़ौज और अर्धसैनिक बलों में नौकरी तलाशने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं. बड़ी तादाद में आए दिन सीमाओं पर संघर्ष में जान गंवाने वाले सैनिकों के पार्थिव शरीर पहुंचना एक अंतहीन सिलसिला बन चुका है.

पहाड़ के इन जवान फौजियों की शहादत की दर्दनाक खबरें कुछ दिनों तक सुर्खियां बनती हैं लेकिन अंत में ऐसे शहीद सैनिकों के परिजनों को ही जीवन भर उनकी मृत्यु की त्रासदी झेलनी पड़ती है.

विडंबना यह है कि कांग्रेस भी यहां अपनी निष्क्रियता और खींचतान से निरंतर कमजोर हुई है. इसी का लाभ उठाकर 2014 के बाद भाजपा में मोदी युग आने के बाद उत्तराखंड की राजनीति को भाजपा और संघ परिवार ने हिंदुत्व की लैबोरेट्री बना दिया.

यहां भाजपा के मुकाबले सिर्फ कांग्रेस ही बची है. एक कोण यह भी है कि आम आदमी पार्टी अधिकतर  सीटों पर भाजपा विरोधी वोटों को ही काटेगी. इससे कई सीटों पर विरोधी वोट के विभाजन से भाजपा को सीधा लाभ मिलना तय है.

भाजपा विरोधी वोटों को काफी सीटों पर आप काटेगी और इससे भाजपा को ही कई सीटों पर लाभ मिलेगा. भाजपा निश्चिंत इसीलिए है कि संगठन व साधनों के मुकाबले पहाड़ की राजनीति में दूसरी पार्टी कहीं भी उसके आसपास नहीं फटकती.

दूसरा आम आदमी पार्टी नेतृत्व विहीन है. उसके पास फ्री बिजली के वादे के अलावा समस्याग्रस्त उत्तराखंड के लिए कुछ ख़ास नहीं दिखता. उसके पास मात्र हवाई वादे हैं. या उन लोगों का जमघट हैं जिनके लिए किसी दूसरी पार्टी में कोई जगह ही नहीं बची.

भाजपा उत्तराखंड में घूम-फिरकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को ही अपना हथियार बना रही है. मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश के मुकाबले उत्तराखंड में अब भी कम है. लेकिन स्थानीय पर्वतीय लोगों को राज्य में बढ़ती मुस्लिम आबादी का भय दिखाकर ध्रुवीकरण की राजनीति का फंदा चलाना भाजपा को बखूबी आता है.

इसी तर्ज पर स्थानीय मुख्यधारा का मीडिया पूर्णतः सांप्रदायिक बयानबाजी को हवा देने पर तुला है. गृहमंत्री अमित शाह ने 30 अक्तूबर को देहरादून की अपनी एक दिन की यात्रा के दौरान पिछली कांग्रेस सरकार में शुक्रवार को नमाज के लिए रियायतें देने व राज्य की मुख्य सड़कों पर नमाज के लिए अनुमति के मुद्दे को हवा दे डाली.

साथ ही रावत के कार्यकाल में विवादास्पद डेनिस ब्रांड शराब और भ्रष्टाचार के मामलों को उछाला. हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अमित शाह को चुनौती दी कि शाह के आरोप मनगढ़ंत व बेबुनियाद हैं.

उत्तराखंड भाजपा और कांग्रेस में चारित्रिक तौर पर कोई बड़ा और वैचारिक अंतर नहीं दिखता. मौजूदा पुष्कर सिंह धामी सरकार में आधे मंत्री वही हैं जो पिछली कांग्रेस सरकार में इन्हीं पदों पर विराजमान थे.

पिछले कई दिनों से भाजपा व कांग्रेस दोनों में ही दल बदल की कशमकश चल रही है. कांग्रेस व यूकेडी के कुछ पूर्व विधायकों और नेताओं को भाजपा ने अपने पाले में ले लिया तो बदले में कांग्रेस ने भाजपा में गए अपने पूर्व मंत्री यशपाल आर्य और उनके विधायक पुत्र को कांग्रेस में शामिल कर दिया. दोनों ही पार्टियों में चुनाव के पहले पाला बदलने और सेंधमारी के लिए सौदेबाजी चल रही है.

भाजपा व कांग्रेस में दलबदल की इस होड़ का उत्तराखंड के उन ज्वलंत सवालों से कोई ताल्लुक नहीं दिखता, जिनके लिए पर्वतीय राज्य का गठन हुआ था.

पहाड़ों से पलायन लगातार जारी है. राज्य गठन के बाद यह और तेज़ हुआ है. उत्तराखंड को विपक्षविहीन राज्य बनाने का भाजपा और संघ परिवार ने गांव व शहरों में ज़मीनी स्तर पर एक नई तरह की विकृति, घृणा और नफरत की राजनीति का ताना-बाना तैयार कर दिया है, जिससे इस नाजुक पर्वतीय क्षेत्र में शिक्षा, रोज़गार, जल, ज़मीन और जंगल के सवालों पर चर्चा तक नहीं हो रही.

आए दिन सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में बिना उपचार से कई मौतें होने और पहाड़ों में दुर्घटनाओं में बेशकीमती जानें जा रही हैं. दस बड़े अस्पताल राजधानी देहरादून जिले और तराई के शहरों में हैं. सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत बहुत जर्जर है. मात्र चुनावों के वक्त ही सरकारी मशीनरी की सक्रियता झलकती दिख रही है.

उत्तराखंड भी मोटे तौर पर यहां उत्तर प्रदेश की तर्ज पर ही वोट करता है लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद यहां भाजपा का हिंदुत्व एजेंडा और मोदी लहर का असर अभी ज़्यादा कम नहीं हो सका. इसकी वजह लोग  सक्रिय और सशक्त विपक्ष का अभाव बताते हैं.

गृहमंत्री अमित शाह भाजपा को आगामी चुनाव में फिर से भारी बहुमत दिलाने की अपील कर आए हैं. ऐसा लगता है कि अमित शाह इस बात को भूल गए हैं कि 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड की 70 में से 56 सीटों पर भाजपा के विधायक जीते थे. इसके बावजूद 4 साल बाद बेआबरू होकर हटाए गए त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल की भाजपा अब बात तक नहीं करती.

उन्हें हटाकर तीरथ सिंह रावत की ताजपोशी की गई थी, लेकिन दो महीने में ही उनकी भी छुट्टी कर दी गई. 70 में से 57 सीटों का प्रचंड बहुमत के बाद 3 मुख्यमंत्री! इसका जवाब भाजपा के पास नहीं है.

भाजपा के पास प्रचंड बहुमत में सत्ता में आई अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने को कुछ भी ख़ास नहीं है, इसलिए चुनावों में बेशुमार पैसा और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के भरोसे पर ही उसकी पूरी राजनीति की बिसात टिकी है. पर्वतीय क्षेत्र भयावह प्राकृतिक आपदाएं हर साल झेल रहे हैं. इससे प्रकृति और यहां पार्टियों के एजेंडा पर भयावह त्रासदियों की दूर-दूर तक कोई चिंता नहीं दिखती.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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