‘इस ज़मीन पर हमारा हक़ है, हम यहीं रहेंगे, सरकार ज़मीन नहीं देगी तो यहीं पर मरेंगे’

ग्राउंड रिपोर्ट: सरदार सरोवर बांध के पानी में डूब रहे मध्य प्रदेश के भादल गांव के ग्रामीणों का कहना है कि सरकार ने बांध में पानी छोड़ दिया लेकिन हमें कहीं नहीं बसाया.

ग्राउंड रिपोर्ट: सरदार सरोवर बांध के पानी में डूब रहे मध्य प्रदेश के भादल गांव के ग्रामीणों का कहना है कि सरकार ने बांध में पानी छोड़ दिया लेकिन हमें कहीं नहीं बसाया. अब हम जिएं या मरें, यहीं रहेंगे.

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सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आए मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले के भादल गांव के किसान आदिवासी पांड्या. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

राजू ने अचानक धीमी सी आवाज़ में पूछा, ‘मोदी का कोई संदेश है क्या’? वह गौर से मुझे देख रहा था. डूब रही दूरस्थ पहाड़ियों में बसे एक गांव में, जहां पहुंचने के लिए सिर्फ़ नाव आपकी मदद कर सकती है, वहां कोई आदिवासी युवक बहुत उम्मीद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ देख रहा है. लगभग डूब चुके भादल गांव के राजू ने फिर पूछा, ‘मेरा घर डूब गया. खेत, फसल सब डूब गया. पूरा गांव डूब रहा है. मोदी जी ने कुछ बोला है क्या हमारे गांव के लिए.’

मुझे वाकई नहीं पता था कि प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री को इस गांव के बारे में कोई जानकारी है या नहीं. पानी में समा चुके 10 घरों में से प्रशासन ने सिर्फ़ दो घरों को डूब क्षेत्र में माना है. राजू बार-बार कह रहा था कि हमारे आधार और वोटर कार्ड भी हैं. राजू को लग रहा था कि आधार और वोटर कार्ड जीवन और हर तरह की सुरक्षा की गारंटी देते होंगे.

राजू की तरह ही, डूब रही नर्मदा घाटी के तमाम आदिवासियों और दलितों को लगता है कि उनके घर भले डूब चुके हों, लेकिन सरकार उनके लिए कुछ करेगी. जिनका घर अभी नहीं डूबा है, उन्हें भी उम्मीद है कि सरकार उनका घर बचा लेगी.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 56 साल पहले 5 अप्रैल, 1961 को जब इस बांध की आधारशिला रखी होगी तब उन्होंने शायद ही यह सोचा होगा कि बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले गांवों को बिना मुआवज़ा दिए, बिना समुचित पुनर्वास किए उन्हें यूं ही डूबने या फिर इधर-उधर भटकने के लिए छोड़ दिया जाएगा.

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बड़वानी ज़िले के भादल गांव के किसान गेमतिया. गेमतिया के पीछे दिख रहे ताड़ के पेड़ के नीचे उनका घर था जो अब डूब गया है. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

2017 में जब भारत के ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांध का उद्घाटन किया, तब मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले में कुछ ग्रामीण मेधा पाटकर के साथ जल सत्याग्रह कर रहे थे. उनकी मांग थी कि बिना समुचित पुनर्वास किए बांध में पानी न छोड़ा जाए. मध्य प्रदेश के 193 गांवों की तरह भादल गांव के वासियों को भी उम्मीद है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन की लड़ाई उनके घर बचा लेगी.

मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले का आख़िरी गांव है भादल जो कि पहाड़ी के ऊपर बसा है. महाराष्ट्र के नंदूरबार से लगा यह गांव अब तीन तरफ से पानी से घिरकर टापू बन गया है. एक तरफ बची ऊंची पहाड़ी ही अब गांव वालों की अंतिम उम्मीद है.

भादल गांव के सबसे बुजुर्ग पुस्लिया पटेल सोलंकी के घर की दीवार तक सरदार सरोवर बांध का पानी आ गया है लेकिन अभी उन्होंने घर ख़ाली नहीं किया है. उन्होंने कहा, ‘घर, खेत, फ़सल सब डूब रहा है. बहुत बुरा लग रहा है. हम जीवन भर यहां रहे हैं. बाप दादा भी यहीं रहे. हमें घर नहीं छोड़ना है. हमें खलघाट में घर-प्लाट दिया है, लेकिन वहां ज़मीन नहीं है. वहां क्या करेंगे. यहां खेती करके खा लेते हैं. वहां पर खेती कहां करेंगे? हम वहां नहीं जाएंगे.’

पुस्लिया पटेल के बेटे ने बताया, ‘ये बहुत दुखी और परेशान हैं. दिन-रात यही सब बड़बड़ाते रहते हैं.’

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भादल गांव के किसान पुस्लिया. पीछे उनका मकान नज़र आ रहा है जिसकी नींव तक नर्मदा नदी का पानी पहुंच चुका है. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

पुस्लिया पटेल के घर के ठीक बगल नालानुमा झड़कन नदी बहती थी. बांध के पानी से वह महासागर जैसी बन गई है. नदी की धार काफी नीचे थी, उससे काफी ऊपर पुस्लिया का घर था. अब झड़कन का पानी उनके घर की दीवार से लगा है. बांध का जलस्तर क़रीब 130 मीटर तक पहुंच चुका है.

पुस्लिया ने मुझसे पूछा, ‘क्या पानी और बढ़ेगा? दिल्ली में क्या बात हुई? और बढ़ेगा तो घर डूब जाएगा.’

दिल्ली में कोई बात हुई हो, मुझे नहीं मालूम था लेकिन लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों ने जल सत्याग्रह शुरू किया था, वह सत्याग्रह इस आश्वासन पर तोड़ा गया कि अब इस साल पानी का जलस्तर नहीं बढ़ाया जाएगा. हम 23 की रात पुस्लिया पटेल के घर पहुंचे थे. सुबह उठे तो एक फिट से ज़्यादा पानी बढ़ गया था.

ग्रामीणों ने बताया, सरकार कह रही है कि अब पानी नहीं बढ़ेगा, लेकिन पानी रोज़ थोड़ा-थोड़ा बढ़ रहा है. सरकार झूठ बोल रही है.

पुसलिया के घर के नीचे नदी की धारा से थोड़ा ऊपर दयाल सोलंकी का घर था. 17 सितंबर की रात को अचानक पानी आया और घर अथाह पानी में समा गया. दयाल ने बताया, ‘रात को अचानक पानी आ गया. हम लोग उठकर भागे. ज़रूरी सामान ही निकल पाए. घर में लगी तमाम अच्छी-अच्छी लकड़ियां डूब गईं. हम ऊपर वाले एक घर में आ गए थे. अब वो भी डूबने वाला है.’

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बड़वानी ज़िले के भादल गांव में नर्मदा का पानी लोगों के घरों तक पहुंच गया है. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

जिसे वे घर कहते हैं, वे मज़बूत लकड़ी और मिट्टी से बनी छोटी-छोटी झोपड़ियां हैं, शायद इसीलिए उनका डूबना बाकी दुनिया के लिए सामान्य बात है. लेकिन पुस्लिया पटेल का कहना है, ‘हमारा घर कम से कम 100 साल पुराना है. हम इसी घर में पैदा हुए. हमारा बाप भी इधर ही पैदा हुआ था. दादा भी. हमें बहुत फ़िक्र हो रही है.’

इस गांव में 80 घर हैं, जिनमें से 11 परिवारों को 5-5 एकड़ ज़मीन मिली है और 18 लोगों को 60-60 लाख रुपये मुआवज़ा मिला है. सुप्रीम कोर्ट में चले लंबे मुक़दमे के बाद ज़मीन वालों को 60-60 लाख का मुआवज़ा देने का आदेश हुआ था. बाक़ी परिवार मुआवज़े और राहत के रूप में आने वाले सरकारी महकमे की राह देख रहे हैं.

इस गांव के आसपास कोई स्कूल नहीं है. कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक सरकारी स्कूल है जो कभी नहीं खुलता. नर्मदा बचाओ आंदोलन की तरफ से एक जीवनशाला बनवाई गई है. झोपड़ी में चलने वाली इस जीवनशाला में 60 बच्चे पढ़ते हैं. वे यहीं रहते हैं. दयाल सोलंकी और बटे सिंह नाम के दो युवक इसके अध्यापक हैं. उनकी पत्नियां बच्चों के लिए खाना बनाती हैं. दयाल सोलंकी और बटे सिंह भी इसी जीवनशाला में पढ़े हैं. उनके पहले यहां का कोई बच्चा कभी स्कूल नहीं गया था. यह पहली पीढ़ी है जिसने स्कूल देखा. दयाल ख़ुद 12वीं पास करके इन बच्चों को पढ़ाते हैं.

जीवनशाला में प्रवेश करते ही बच्चे ज़िंदाबाद की गूंज के साथ अभिवादन करते हैं. यह जीवनशाला पहले झड़कन नदी के एकदम तट पर थी, लेकिन निचले इलाके में पानी भर जाने से इसे पहाड़ी पर बना दिया गया है. फीस के नाम पर प्रत्येक बच्चे से 50 किलो अनाज और 150 रुपये लिए जाते हैं. दयाल सोलंकी ने बताया कि अब तक गांव के क़रीब 150 बच्चे यहां से पढ़कर जा चुके हैं. जीवनशाला में कक्षा पांच तक पढ़ाई होती है. पांचवीं की परीक्षा बाहर दिलाई जाती है.

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भादल गांव की जीवनशाला, जहां बच्चे पढ़ाई करते हैं. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

दयाल ने कहा, ‘आसपास के सभी गांवों के लोग अनपढ़ हैं. हमारे गांव में कभी कोई अधिकारी नहीं आता. कहते हैं कि भादल वाले बहुत सवाल करते हैं. हम सब आंदोलन से जुड़े हैं. हम अपना हक जानते हैं, इसलिए सरकारी अधिकारी यहां आने से डरते हैं. बांध का सर्वे हुआ तो अधिकारी बगल के गांव से लौट गए. मैं 25 साल का हो गया हूं, मेरे सामने मेरे गांव का कोई सर्वे नहीं हुआ, इसलिए सरकार को नहीं पता कि हमारा कितना नुकसान हो रहा है.’

गांव के लोग झड़कन नदी के किनारे-किनारे खेती करते थे. पानी आया तो सबकी फसल डूब गई. दयाल सोलंकी ने बताया, ‘सबकी फ़सल डूब गई, खेत डूब गया. लेकिन सरकार मान नहीं रही कि नदी के किनारे खेती थी. सरकार इसे नाला मान रही है. सर्वे करने आया अधिकारी मान ही नहीं रहा था कि यहां खेती है. हमारे दादा ने बाजरा उखाड़ कर उसे दिखाया तब जाकर माना. लेकिन तब भी फसलों का मुआवज़ा नहीं मिला है. गांव में कुछ लोगों को मुआवज़ा मिला है बाकी सबका शिकायत निवारण प्राधिकरण (जीआरए) में केस चल रहा है.’

भादल गांव के एक अन्य आदिवासी गेमतिया ने बताया, ‘हम ग़रीब लोग हैं. 3 साल से जीआरए में केस लड़ रहे. केस के लिए इंदौर जाना पड़ता है. इतना पैसा कहां से लाएं. मेरी ज़मीन बहुत अच्छी थी, वो डूब गई. फ़सल डूब गई, खेत, घर सब डूब गया. अब इस पानी के किनारे रहना भी मुसीबत है. इसी नदी का पानी पीते थे. अब इसका पानी सड़ रहा है, क्योंकि बांध की वजह से पानी बह नहीं रहा है, ठहरा हुआ है. यह पानी पीकर बीमारी हो जाएगी. इस पानी में मगरमच्छ आ गए हैं. बच्चे नहाने या पानी पीने आएं तो मगरमच्छ उठा ले जाएं. अब यहां रहना हर तरह से जान जोख़िम में डालना है. लेकिन हमें मुआवज़ा मिला नहीं, हम तो कहीं जा भी नहीं सकते.’

गेमतिया डूब के किनारे तक ले जाकर दिखाने की कोशिश करते हैं कि उनका घर, उसके आसपास की फ़सलें ज़मीदोज़ हो चुकी हैं. 17 सितंबर को जब प्रधानमंत्री ने सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया, उसी दिन बांध में पानी छोड़ा गया और गेमतिया के घर का नामो-निशान मिट गया. गेमतिया के भाई रेमतिया का भी घर पास में था, वह भी डूब गया. गेमतिया अपने घर, खेत के क़ागज़ हमें इस उम्मीद से दिखाते हैं कि हम उनका घर वापस न दे पाए तो कम से कम घर का मुआवज़ा ज़रूर दिलाएंगे.

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भादल गांव की जीवनशाला. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

वे बताते हैं कि ‘न घर का मुआवज़ा मिला, न खेत का, न ज़मीन का. गांव के दोनों तरफ एक एक घर को डूब में मान लिया गया, लेकिन हम बार-बार बोलते रहे कि हमारा सर्वे नहीं हुआ, हमारी ज़मीन छूट गई. हम बहुत पहले से यहां रहते आ रहे हैं. हमारा, भाई का, पिता का सबका हिस्सा डूब चुका है, हमें क्यों छोड़ दिया? तो सरकार ने कहा कि ग़लती हो गई, हो जाएगा. करते-करते बहुत दिन बीत गए. अब ज़मीन डूब चुकी है. अब क्या सबूत बचा?’

इस गांव में लोगों का जीवन सिर्फ़ खेती पर निर्भर रहा है. साल भर में एक ही फ़सल की उपज होती है. मक्का, ज्वार, बाजरा, उड़द, मूंगफली यहां की मुख्य फ़सल है. यहां के ग्रामीण गाय, भैंस और बकरी पालते हैं, बैल से खेती करते हैं. दिसंबर तक फ़सल कट जाती है, फिर बाक़ी साल गांव के लोग बाहर जाकर मज़दूरी करते हैं. ज़्यादातर युवक मज़दूरी करने गुजरात जाते हैं. काम के नाम पर उन्हें जो भी काम मिल जाए, वे करते हैं.

बड़वानी ज़िले के इस सीमांत गांव के एक तरफ मध्य प्रदेश का ही अलीराजपुर है, दूसरी तरफ महाराष्ट्र का नंदूरबार ज़िला है. इस गांव के जिन लोगों को घर प्लाट और ज़मीन मिल गई, वे बड़वानी के खलघाट में जाकर रहने लगे हैं.

गांव में जिस जगह पर गेमतिया का घर था, वहां पर पानी की सतह पर एक लकड़ी तैर रही है. उसे दिखाते हुए गेमतिया बताते हैं, ‘बड़वानी के कलेक्टर ने बहुत दिनों बाद दौरा किया. लेकिन उन्होंने एक घर की जांच करके बताया कि वहां पर बालू मिली और एक घर की जांच करके बता दिया कि वहां पर गाद मिली और पानी मिला. यही रिपोर्ट बनाकर जीआरए में पेश कर दिया.’

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भादल गांव लोग. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

पूछने पर गेमतिया गिनकर बताते हैं कि करीब 10 से ज्यादा घर डूब चुके हैं. घरों के आसपास फ़सलें थीं, वे भी डूब चुकी हैं, लेकिन जिनका घर डूबा है, उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला. गांव के दोनों तरफ़ दो घरों को डूब में बताकर मुआवज़ा दिया गया, बाक़ी के लिए बताया कि बीच में कुछ नहीं है, न कोई घर, न कोई पेड़, न कोई झाड़ी. एक ही लेवल पर सारे घर थे, उनको हक़ था लेकिन उनको डूब में नहीं माना गया.

जिनके भी घर डूबे थे, वे सभी आदिवासी चाहते थे कि हम नाव में बैठकर उस जगह तक जाएं जहां उनका घर था. वे कहते हैं, ‘घर के आसपास के बड़े पेड़ अभी पूरी तरह नहीं डूबे हैं. वे कहते हैं कि पेड़ झूठ नहीं बोलते. पेड़ अब भी वहां खड़े हैं.’ गांव के ही एक आदिवासी सुरेश सोलंकी ने मुझे मोटर बोट में ले जाकर क़रीब आधा दर्जन घरों की जगह बताई, जो अब अथाह पानी में समा चुके हैं.

पुस्लिया पटेल की बहू अपने खेत से भिंडी तोड़कर लाई थीं और सब्जी बनाने जा रही थीं. हमने उनकी मां से कहा कि घर के पीछे तक पानी आ गया है, ख़ाली कर लीजिए. इसके जवाब में उन्होंने कहा, ख़ाली नहीं करेंगे. उनकी बहू ने भिंडी काटते हुए कहा, भिंडी खाएंगे, यहीं रहेंगे. डूब जाएंगे लेकिन घर नहीं छोड़ेंगे.’

दयाल ने बताया कि मेधा पाटकर कह रही थीं कि पानी अब नहीं बढ़ेगा, रोक दिया गया है. लेकिन पानी बढ़ रहा है. हमने निशान लगाया था, रात भर में एक फुट से ज्यादा पानी बढ़ गया. मोदी जी बांध का उद्घाटन कर दिया. एक मीटर पानी और बढ़ जाएगा तो यहां आसपास सब घर डूब जाएंगे और इलाका टापू बन जाएगा. यह ग़लत है.’

गांव के ही तीन तरफ पानी से घिरा पुस्लिया पटेल के घर के पास करीब एक दर्जन लोग एकत्र थे. उन्हीं में से उमरिया ने बताया, ‘मेरा घर डूब चुका है, लेकिन घर प्लाट, ज़मीन, पैसा कुछ नहीं मिला.’ उमरिया ने ऊपर पहाड़ी पर अपना दूसरा घर बना लिया है.

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भादल गांव लोग. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

एक और आदिवासी सुपरिया ने बताया कि उनका भी घर और ज़मीनें डूब चुकी हैं, लेकिन अभी मुआवज़े के नाम पर कुछ भी नहीं मिला है. गुलसिंह की भी यही शिकायत है कि घर डूब गया है लेकिन कोई मुवाअज़ा नहीं मिला है. पांड्या नाम के बुजुर्ग आदिवासी ने कहा, हमारा घर, खेत, ज़मीन सब डूब चुका है लेकिन न ही कोई ज़मीन मिली है, न घर प्लाट.

पेरवा का भी घर पानी में समा चुका है. भुरला बताते हैं कि गांव के दो बुजुर्गों और उनके परिवार यानी सभी वयस्क पुत्रों को 60-60 लाख मुआवज़ा मिल चुका है. बाक़ी किसी को नहीं मिला. भुरला बताते हैं कि ‘सर्वे तो दो बार हुआ लेकिन सबको मुआवज़ा नहीं दिया गया. हमारा गांव है, हमारा भी अधिकार है इसलिए हम अभी लड़ रहे हैं.’

एक और बुजुर्ग मोकन का भी घर डूब चुका है. नरसिया उठकर अपना घर दिखाते हैं जो डूब चुका है, एक घर और कुछ पेड़ ऊपर पहाड़ी पर बचा है. नरसिया कहते हैं, हम जनम-जनम से, पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं. हमारी यहीं पैदावार है, पिता भी यही पैदा हुए थे. वे आसपास के और घरों के बारे में बताते हैं जो डूब चुके हैं.

गांव में जो हिस्सा डूबने से बचा है, उस हिस्से में घर और फ़सलें देखी जा सकती हैं. वह भी सब डूबने वाला है. इस गांव के कुछ युवा रोज़गार के लिए गुजरात जाते हैं, वहां मजदूरी करते हैं. भुरला इनमें से एक हैं जो गुजरात जाकर मज़दूरी करते हैं या फिर गांव में मछली मारकर बेचते हैं.

भुरला कहते हैं कि ‘हमें रहने में यहीं ठीक है. यहां इतना ज़मीन है, जंगल है, यहां हम मछली मारते थे, लेकिन अब यहां सब डूब रहा है. बाहर सरकार ज़मीन दे दे तो हम भी चले जाएंगे, यहां क्या करेंगे? लेकिन हमें बाहर कहीं ज़मीन नहीं मिली तो यहीं बैठे हैं, कहां जाएं? खलघाट में कुछ लोगों को ज़मीन मिली तो वे जा चुके हैं.’

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर कहती हैं, ‘मध्य प्रदेश में 193 गांव हैं जो डूब में जा रहे हैं. अभी तक मात्र 53 लोग ऐसे हैं जिनको ज़मीन के बदले ज़मीन और घर प्लॉट मिल सके हैं. जबकि तीनों राज्य- मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में कुल मिलाकर 40 हज़ार परिवार सरदार सरोवर बांध से प्रभावित हो रहे हैं. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्वास का जो प्लान पेश किया, उसे ही पूरा नहीं कर रही है. इसका नतीजा है कि जीआरए में 8000 आवेदन पेंडिंग हैं.’

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भादल गांव. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

भादल गांव के एक और आदिवासी किशोर सोलंकी ने कहा, ‘हम पहाड़ में रहने वाले लोग हैं. पहले लगता था कि यहां से जाकर कहीं और कैसे रहेंगे. लेकिन ज़मीन हो तो हम रह लेंगे. ज़मीन के बिना हम नहीं रह सकते. ज़मीन नहीं होगी तो खेती कैसे करेंगे? खाएंगे क्या?’

आदिवासी समुदाय का जंगल और जमीन से कितना गहरा नाता है, यह किशोर की बातों से समझा जा सकता है. किशोर खीझते हुए कहते हैं, ‘ये झाड़ी, ये जंगल, पेड़ सब हमने बचाकर रखा है. हमारे घर भी झाड़ियों के बीच में होते हैं. बाहर जाकर देखिए तो सब साफ हो चुका है. सरकार पेड़ लगाने के नाम पर सिर्फ़ गड्ढा खोदती है. पेड़ लगाना उनके बस की बात नहीं है. सरकार हर साल गड्ढा खोदती है, फिर पानी बरसता है और सब बह जाता है. फॉरेस्ट वाले झाड़ पेड़ सब काटकर सड़क बनवाते हैं. झाबुआ की तरफ जाइए, महाराष्ट्र की तरफ जाइए, सब जंगल काटकर नंगा कर दिया. जो हमने बचाकर रखा था, उसे अब डुबा रहे हैं.’

मेधा पाटकर बार-बार सरकार को चुनौती दे रही हैं कि सरदार सरोवर बांध से जुड़े मुद्दों पर सार्वजनिक बहस की जाए. उनका कहना है कि ‘सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्वास का जो प्लान दिया था, खुद ही उसके मुताबिक पुनर्वास नहीं कर सकी. बिना लोगों का समुचित पुनर्वास किए डूब कैसे लाई जा सकती है? सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर रही है.’

गंगाराम ने बताया, हमें मुआवज़े के रूप में खलघाट में पांच एकड़ ज़मीन मिली है, लेकिन वहां रहने की कोई व्यवस्था नहीं है. वहां जाएंगे तो रहेंगे कहां? यहां गांव में ज़मीन थी, खेत था. महीने में 1500 का खीरा बेचते थे. तमाम ज़मीन डूब गई. घर डूब गया. कुछ ज़मीन अभी बाक़ी है, जिसमें फ़सल लगी है.

गांव दिन पर दिन डूब रहा है. सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आ रहा पूरा इलाका डूब जाएगा. क्या सरकार की तरफ से पुलिस या सुरक्षाकर्मी कभी देखने नहीं आए? इसके जवाब में दयाल बताते हैं, ‘पटवारी फोन लगाकर बोला- पानी बढ़ रहा है, ज़िंदगी बचा लेना, मरना मत. पांच लाख अस्सी हजार रुपये मिल रहा है तो ले नहीं रहे हो, अब पानी आ रहा है, मरो वहीं. सब डूब जाएगा. तुमको कुछ नहीं मिलेगा. राजघाट पुल डूब चुका है, कोई बचाने भी नहीं आएगा.’

सरकार जो दे रही थी, वह क्यों नहीं लिया? ये पूछने पर दयाल ने कहा, घर प्लाट के लिए 50 हज़ार रुपये दे रहा था. 50 हज़ार में कौन सा घर प्लाट मिलता है? थोड़ी सी ज़मीन मिल भी जाए तो घर कैसे बनेगा?’

जो गांव या घर पूरी तरह डूब रहे हैं, वे सर्वे में डूब से बाहर कैसे रह गए? गुलसिंह बताते हैं, ऊपर पहाड़ी पर घर और पेड़ को डूब के अंदर मानकर मुआवज़ा दे दिया है, लेकिन जहां पानी आ चुका है, उसे डूब से बाहर बता दिया है. जो घर, खेत, ज़मीन डूब गए, उनको सरकार ने डूब क्षेत्र में नहीं माना.’

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भादल गांव. (फोटो: कृष्णकांत/द वायर)

जिनको मुआवज़े में ज़मीन या घर प्लाट मिल गया है, उनका अपना दुख है. राजू सोलंकी ने बताया, ‘मेरे पिता को खलघाट में पांच एकड़ ज़मीन मिली है, घर प्लाट की ज़मीन भी मिली, लेकिन वह नाले में है. वो भी मुंबई हाइवे के दो तरफ है. एक तरफ ज़मीन, दूसरी तरफ घर प्लाट. हम हाइवे कैसे पार करेंगे? नाले में घर कैसे बनाएंगे? हम वहां जाएंगे ही नहीं. हम यहीं रहेंगे.’

इसी गांव के गुरु ने बताया कि उनका घर बचा हुआ है, लेकिन फ़सल और खेती की ज़मीनें डूब चुकी हैं. अब तक कोई मुआवज़ा नहीं मिला है. उनकी मां मेंती बाई के नाम से केस चल रहा है. उन्होंने बताया, ‘हमारा गांव फॉरेस्ट ग्राम में आता है. फॉरेस्ट विभाग वाले लिखकर दे दें तो मुआवज़ा मिल जाएगा, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे.’

गेमतिया कहते हैं,’जीआरए वाले कहते हैं कि फॉरेस्ट वाले क्या कर रहे हैं? उनसे लिखवाकर लाओ कि ज़मीन डूब रही है. लेकिन फॉरेस्ट वाले लिखकर नहीं दे रहे. मैंने फॉरेस्ट अधिकारी से बोला था तो हां-हां करता रहा, लेकिन लिखकर नहीं दिया.’

गांव के ही एक बुजुर्ग पांड्या ने बताया कि उन्हें भी ज़मीन, पैसा, प्लाट कुछ नहीं मिला है. उनके पिता मोकन कांकड़िया के नाम केस चल रहा है. पांड्या कहते हैं, ‘अब कहां जाएं? कहीं नहीं जाएंगे. यहीं पहाड़ पर रहेंगे. पहाड़ है तो डूब के तो मरेंगे नहीं. सरकार अगर ज़मीन देगी तो जाएंगे. हम यहीं पैदा हुए, परिवार यहीं पैदा हुआ. इस ज़मीन पर हमारा हक़ है, हम यहीं रहेंगे. सरकार ज़मीन नहीं देगी तो यहीं पर मरेंगे.’

देश का प्रशासनिक ढांचा शायद आदिवासियों के लिए बना ही नहीं है. न वह ग्रामीण आदिवासियों को समझता है, न अादिवासी इस प्रशासन को समझ पाते हैं. दयाल के मुताबिक, ‘गंगाराम पटवारी हमारे बीच का ही है. अब पटवारी हो गया तो आकर पूछता है कि ये किस चीज़ का पेड़ है, ये कितने दिन में बड़ा होता है? अब ऐसे बात करता है. वो सर्वे कराने में या मुआवज़ा दिलाने में हमारी मदद कर सकता था, लेकिन नहीं की. हम आदिवासियों को सरकार लूटती है और हमारे लोग बड़े आदमी बनकर सरकार की ही मदद करते हैं.’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 सितंबर को वडोदरा के दाभोई में जब सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया तो नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने इसे फर्जीवाड़ा बताया. उनका कहना है कि सरकार सरदार सरोवर बांध को विकास का प्रतीक मान रही है, जबकि इसे कच्छ और सौराष्ट्र की प्यास बुझाने, विस्थापित लोगों का पुनर्वास करने और प्राकृतिक नुकसान की भरपाई करने में विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने भी समुचित पुनर्वास का आदेश दिया था. लेकिन मेधा पाटकर के मुताबिक, राज्य और केंद्र सरकार ने बिना पुनर्वास का कार्य पूरा किए बांध में पानी छोड़ दिया. गांव डूब रहे हैं, लेकिन सरकार को चिंता नहीं है.

भादल गांव की तरह बांध के पानी में डूबने वाले तमाम गांवों अब भी इस उम्मीद में हैं कि इससे पहले उनकी पहाड़ियां पूरी तरह डूब जाएं, सरकार उन्हें बचा लेगी.

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