चुनाव आयोग को बीते 15 नवंबर को कानून मंत्रालय की ओर से एक पत्र मिला था, जिसमें कहा गया था कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीके मिश्रा एकल मतदाता सूची को लेकर एक बैठक लेने वाले हैं और चाहते हैं कि इसमें ‘मुख्य चुनाव आयुक्त’ मौजूद रहें. यह पत्र बहुत ही असामान्य था, क्योंकि चुनाव आयोग आमतौर पर अपने कामकाज की स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए सरकार से दूरी बनाए रखता है.
नई दिल्लीः निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और दो अन्य चुनाव आयुक्त- राजीव कुमार और अनूप चंद्र पांडेय को आपत्तियां जताने के बावजूद बीते 16 नवंबर को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा आयोजित एक असामान्य ऑनलाइन बातचीत में शामिल होना पड़ा था.
अंग्रेजी दैनिक द इंडियन एक्सप्रेस की एक विशेष रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई है.
रिपोर्ट के मुताबिक, इससे एक दिन पहले (15 नवंबर) ही चुनाव आयोग को कानून मंत्रालय (चुनाव आयोग का प्रशासनिक मंत्रालय) के एक अधिकारी से एक पत्र मिला था, जिसमें कुछ असामान्य शब्दों का इस्तेमाल किया गया था.
इस पत्र में कहा गया था कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीके मिश्रा आम मतदाता सूची को लेकर एक बैठक की अध्यक्षता करने वाले हैं और चाहते हैं कि इसमें ‘मुख्य चुनाव आयुक्त’ मौजूद रहें.
एक अधिकारी ने बताया कि इस तरह के असामान्य शब्दों वाली चिट्ठी से चुनाव आयोग में खलबली मच गई, क्योंकि यह पढ़ने में किसी ‘समन’ जैसी लग रही थी.
सूत्र का कहना है कि पत्र की भाषा इस तरह की थी जैसे किसी को ‘समन’ भेजा गया है, जो एक तरह से संवैधानिक मानदंडों का उल्लंघन है.
रिपोर्ट के अनुसार, बीते साल इसी विषय पर 13 अगस्त और तीन सितंबर को हुई बैठकों में चुनाव आयोग के अधिकारियों ने हिस्सा लिया था न कि चुनाव आयुक्तों ने.
इस मामले में सीईसी चंद्रा टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं थे, लेकिन चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सीईसी ने इस पत्र को लेकर कानून मंत्रालय से असंतोष जाहिर करते हुए कहा था कि वह बैठक में शामिल नहीं होंगे.
हालांकि, इस पत्र के बारे में पूछने पर कानून मंत्रालय के अधिकारी ने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.
हालांकि, सीईसी चंद्रा और अन्य दो चुनाव आयुक्त इस वीडियो बैठक से दूर रहे लेकिन उनके अधीनस्थ अधिकारियों ने इस बैठक में हिस्सा लिया. चुनाव आयोग के इन तीनों शीर्ष अधिकारियों ने इस बैठक के तुरंत बाद पीके मिश्रा के साथ अनौपचारिक बातचीत की थी.
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘उन्होंने इस दौरान एकल मतदाता सूची (Common Electoral Roll) की सुविधा जैसे लंबित सुधारों पर बात की.’ दरअसल ये सुधार बीते 15 दिसंबर को कैबिनेट की ओर से मंजूर किए गए संशोधनों का हिस्सा थे.
चुनाव आयोग और पीएमओ के बीच बातचीत के औचित्य को लेकर पूछे जाने पर वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘यह अनौपचारिक थी, बैठक नहीं थी. चुनाव आयुक्तों ने आगामी चुनाव (पांच विधानसभा चुनाव जिनकी अधिसूचना जल्द जारी होने वाली है) से जुड़े किसी मुद्दे पर चर्चा नहीं की. यह सिर्फ चुनाव सुधारों के शीघ्र निपटारे को लेकर हुई बातचीत थी.’
हालांकि, यह बातचीत संवैधानिक उपयुक्तता का सवाल खड़ा करती है, क्योंकि तीनों चुनाव आयुक्त चुनाव आयोग के कामकाज को बाहरी दबाव से बचाने के लिए अमूमन कार्यपालिका (Executive- सरकार) से दूरी बनाए रखते हैं, जिसके परिणामस्वरूप चुनाव आयोग का चुनावी मामलों को लेकर सरकार से संपर्क सिर्फ इसके प्रशासनिक मंत्रालय यानी कानून मंत्रालय तक सीमित रहता है.
चुनावों के लिए सुरक्षा बलों की व्यवस्था करने के लिए चुनाव आयोग गृह मंत्रालय से संपर्क करता है. जरूरत पड़ने पर सरकारी अधिकारी तीनों चुनाव आयुक्तों से संपर्क करते हैं.
संयोग से पंचायत, नगर पालिका, राज्य विधानसभा और संसद के चुनावों के लिए एकल मतदाता सूची 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में भाजपा द्वारा किए गए वादों में से एक है. यह घोषणा-पत्र लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों का चुनाव एक साथ कराने की पार्टी की प्रतिबद्धता से भी जुड़ा है.
मौजूदा सरकार ने भारी प्रयास और व्यय को बचाने के तरीके के रूप में एक सामान्य या एकल मतदाता सूची और एक साथ चुनाव कराने की वकालत की है.
एकल मतदाता सूची का मुद्दा कोई नया नहीं है. विधि आयोग ने 2015 में अपनी 255वीं रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी. इसके अलावा चुनाव आयोग ने भी 1999 और 2004 में एक एकल मतदाता सूची बनाने की बात कह चुका है.
वर्तमान में कम से कम 29 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश स्थानीय निकाय चुनावों के लिए चुनाव आयोग की मतदाता सूची का उपयोग करते हैं, जबकि कुछ ने इसे समग्रता में अपनाया है.
अन्य राज्य नगरपालिका और पंचायत चुनावों के लिए मतदाता सूची की तैयारी और संशोधन के लिए चुनाव आयोग की सूची का उपयोग आधार के रूप में करते हैं.