आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण से मौतों को रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार योजना तैयार करे: अदालत

बॉम्बे हाईकोर्ट 2007 में दायर की गईं कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अमरावती ज़िले के मेलघाट क्षेत्र में कुपोषण के कारण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की मौतों की अधिक संख्या को उजागर किया गया है.

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बॉम्बे हाईकोर्ट (फोटो: पीटीआई)

बॉम्बे हाईकोर्ट 2007 में दायर की गईं कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अमरावती ज़िले के मेलघाट क्षेत्र में कुपोषण के कारण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की मौतों की अधिक संख्या को उजागर किया गया है.

बॉम्बे हाईकोर्ट (फोटो: पीटीआई)

मुंबई: बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सोमवार को महाराष्ट्र सरकार से कहा कि वह राज्य की आदिवासी पट्टी में कुपोषण की वजह से होने वाली मौतों को रोकने के लिए अल्पकालिक योजना लेकर आए.

अदालत 2007 में दायर की गईं कई जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें अमरावती जिले के मेलघाट क्षेत्र में कुपोषण के कारण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की मौतों की अधिक संख्या को उजागर किया गया है.

मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और जस्टिस एमएस कार्णिक की खंडपीठ ने यह भी कहा कि जब सवाल आदिवासी आबादी के स्वास्थ्य से जुड़ा हो तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल किया जाना चाहिए.

अदालत के पहले के आदेशों के अनुसार, वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉ. छेरिंग दोरजे (विशेष महानिरीक्षक) ने सोमवार को इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की समस्याओं पर अपनी रिपोर्ट पेश की.

रिपोर्ट में दोरजे ने राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाली गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बच्चों में कुपोषण के मसले के समाधान के लिए एक व्यापक कार्यक्रम चलाए जाने का सुझाव दिया है.

दोरजे ने कहा, ‘आदिवासी आबादी में अपने पुराने रीति-रिवाजों और मान्यताओं के कारण सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में जाने को लेकर अनिच्छा और हिचकिचाहट है.’

उन्होंने कहा कि कुछ आदिवासी बीमार होने के बाद तांत्रिक के पास जाते हैं और हालत गंभीर होने के बाद ही उचित इलाज कराते हैं.

पीठ ने इसके बाद कहा कि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपनी अनिच्छा को दूर करना होगा.

टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, दोरजे ने कहा कि आदिवासी क्षेत्र संस्कृति, रीति-रिवाजों और आस्था से प्रभावित हैं. वे लगभग छह महीने काम की तलाश में शहरी क्षेत्रों में मौसमी प्रवास करते हैं. जब आदिवासी अपनी जमीन पर खेती करने के लिए लौटते हैं, तो वे आमतौर पर कमजोर होते हैं और उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छी स्थिति में नहीं रहता है.

दोर्जे ने कहा कि वे सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र में इलाज के लिए जाने के अनिच्छुक होते हैं.

दोरजे ने कहा, ‘संस्थागत प्रसव में वृद्धि हुई है, लेकिन चिकित्सा सलाह के खिलाफ महिलाएं भुमका (झाड़ फूंक करने वाले) के पास जाती हैं. जब मामला गंभीर हो जाता है तो वे अस्पतालों में जाते हैं.’

दोरजे ने कहा कि राज्य के विभागों को समन्वय की जरूरत है. उन्होंने कहा, ‘न केवल स्वास्थ्य बल्कि राज्य सरकार की अन्य एजेंसियों को एक साथ काम करना चाहिए. हमें यह जानना होगा कि वे सहयोग क्यों नहीं कर रहे हैं.’

पीठ ने कहा, ‘हम उनकी परंपराओं, संस्कृति का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन जब स्वास्थ्य सेवा की बात आती है, तो आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल होना पड़ता है.’

महाधिवक्ता आशुतोष कुंभकोनी ने कहा, ‘कहीं न कहीं गलती हमारी है क्योंकि हम आत्मविश्वास पैदा नहीं कर पाए हैं. (आदिवासी) महिला को सर्जरी से डर लगता है. सरकारी कर्मचारियों और डॉक्टरों को आत्मविश्वास जगाना चाहिए.’

इस पर पीठ ने कहा, ‘आप (राज्य) यह भी पता लगाएं कि क्या किया जा सकता है. कार्य योजना तैयार करें.’

पीठ ने एक व्यापक रिपोर्ट तैयार करने के लिए डॉ. दोरजे के प्रयास की सराहना की और राज्य को 3 जनवरी को अल्पकालिक योजना प्रस्तुत करने का निर्देश दिया.

पीठ ने कहा, ‘ऐसी अल्पकालिक योजना के आधार पर दीर्घकालिक योजना तैयार करने के लिए मामले में उठाए जाने वाले कदमों की जांच की जाएगी.’

उच्च न्यायालय ने दोरजे की ओर से पेश की गई रिपोर्ट को देखने और इस मुद्दे के हल के लिए राज्य सरकार को अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाओं के साथ आने का निर्देश दिया.

मालूम हो कि बीते सितंबर महीने में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था आदिवासी इलाकों में कुपोषण और चिकित्सा की कमी के कारण कोई मौत नहीं होनी चाहिए.

इससे पहले बीते 13 सितंबर को याचिका पर सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि आदिवासी समुदायों के लिए कल्याणकारी योजनाएं केवल कागज पर हैं और पूछा था कि महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण से बच्चों की मृत्यु रोकने के लिए राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है.

इस क्षेत्र में कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय याचिकाकर्ताओं ने अदालत को सूचित किया था कि इस साल अगस्त से सितंबर के बीच कुपोषण तथा इलाके में डॉक्टरों की कमी की वजह से 40 बच्चों की मृत्यु हो गई और 24 बच्चे मृत जन्मे.

अदालत ने कहा था, ‘अगर इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की मृत्यु हुई है, तो इन सभी योजनाओं का क्या फायदा? ये योजनाएं केवल कागज पर हैं. हम जानना चाहते हैं कि बच्चों की मृत्यु क्यों हो रही है और राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है.’

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)