अयोध्या में दलित भूमि का ट्रस्ट को हस्तांतरण ग़ैरक़ानूनी: रेवेन्यू कोर्ट

अयोध्या की राजस्व अदालत ने साल 1996 में दलित भूमि को महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट को हस्तांतरित किए जाने की प्रक्रिया को अवैध बताते हुए उक्त ज़मीन को राज्य सरकार को सौंप दिया है.

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अयोध्या. (फोटो: पीटीआई)

अयोध्या की राजस्व अदालत ने साल 1996 में दलित भूमि को महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट को हस्तांतरित किए जाने की प्रक्रिया को अवैध बताते हुए उक्त ज़मीन को राज्य सरकार को सौंप दिया है.

अयोध्या. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: अयोध्या की सहायक रिकॉर्ड अधिकारी (एआरओ) अदालत ने 22 अगस्त, 1996 को लगभग 21 बीघा (52,000 वर्ग मीटर) दलित भूमि को महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट (एमआरवीटी) को हस्तांतरित करने के सरकारी आदेश को अवैध घोषित कर दिया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने अब जमीन को सभी तरह के आदेशों से मुक्त करते हुए इसका स्वामित्व राज्य सरकार को सौंप दिया है.

हालांकि, कोर्ट ने ट्रस्ट के खिलाफ किसी कार्रवाई की सिफारिश नहीं की है क्योंकि इसमें कोई जालसाजी नहीं हुई थी.

एआरओ अदालत का फैसला इस अख़बार के अयोध्या में स्थानीय विधायकों, नौकरशाहों के करीबी रिश्तेदार और राजस्व अधिकारियों के परिजनों ने द्वारा जमीन खरीद को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित करने के पांच दिन बाद आया था.

इसके बाद विपक्ष ने ‘ज़मीन की लूट’ का आरोप लगाने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जांच के आदेश दिए थे. हाल ही में इसकी जांच रिपोर्ट सौंपी गई है.

इन भूमि सौदों के बीच एक पर हितों के टकराव संबंधी सवाल खड़े हुए थे. इन सौदों के कुछ खरीदार दलित निवासियों द्वारा एमआरवीटी को भूमि हस्तांतरित करने में हुई कथित अनियमितताओं की जांच करने वाले अधिकारियों के करीबी थे.

गैर-दलित द्वारा दलित व्यक्तियों की कृषि भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाने वाले भूमि कानूनों से बचने के लिए एमआरवीटी ने साल 1992 में बरहटा मांझा गांव में लगभग एक दर्जन दलित ग्रामीणों से जमीन के खंड खरीदने के लिए ट्रस्ट के साथ कार्यरत रोंघई नाम के एक दलित शख्स का इस्तेमाल किया था.

असिस्टेंट रिकॉर्ड अधिकारी भान सिंह ने इस अख़बार द्वारा संपर्क किए जाने पर बताया, ‘मैंने 1996 में नायब-तहसीलदार द्वारा  दिए सर्वे  को खारिज कर दिया है क्योंकि यह अवैध था. आगे की कार्रवाई के लिए मैंने इसे एसडीएम के पास भेज दिया है.  मैं तत्कालीन सर्वे-नायब-तहसीलदार (कृष्ण कुमार सिंह, अब सेवानिवृत्त) के खिलाफ कार्रवाई की भी सिफारिश कर रहा हूं.’

भान सिंह ने यह भी बताया कि किसी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है क्योंकि इसमें किसी भी तरह की जालसाजी नहीं पाई गई.

27 दिसंबर, 2021 के एआरओ आदेश में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, 1950 की धारा 166/167 के तहत कार्रवाई की सिफारिश की गई है.  धारा 166 एमआरवीटी को हुए भूमि के हस्तांतरण को अमान्य बना देगी, वहीं, धारा 167 के चलते उक्त भूमि सभी तरह के आदेशों से मुक्त कर सरकारी हो जाएगी. अयोध्या  एसडीएम प्रशांत कुमार ने संपर्क किए जाने पर इस बाबत टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

क्या था मामला

साल 1992 से 1996 के बीच महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट ने बरहटा माझा गांव और आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि खरीद की थी. इनमें से 21 बीघा जमीन ऐसी थी, जिसे दलितों से खरीदने के लिए भूमि कानून का पालन नहीं हुआ.

उत्तर प्रदेश भू राजस्व संहिता के अनुसार, कोई भी गैर दलित नीना जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति के किसी दलित से जमीन नहीं खरीदने सकता, लेकिन ट्रस्ट नेअपने एक कर्मचारु रोंघई के नाम से भूमि खरीद ली. 22 अगस्त, 1996 को इसी रोंघई ने ट्रस्ट को पूरी 52,000 वर्ग मीटर जमीन दस रुपये के स्टांप पेपर पर दान में दे दी. इस तरह न तो जमीन की प्रकृति बदली गई और न ही राजस्व स्टांप चुकाया गया.

इस भूमि हस्तांतरण की कथित अवैधता सितंबर 2019 में तब जिला प्रशासन के संज्ञान में आई थी, जब एमआरवीटी ने दलित भूमि के खंड बेचने शुरू किए.  तब ट्रस्ट को जमीन बेचने वाले दलितों में से एक ने उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ रेवेन्यू से शिकायत की थी कि उनकी जमीन को ‘अवैध रूप से स्थानांतरित’ किया गया है.

उनकी शिकायत पर फैजाबाद के अतिरिक्त आयुक्त शिव पूजन और तत्कालीन अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट गोरे लाल शुक्ला की एक जांच कमेटी बनी.

ररिकॉर्ड्स दिखाते हैं कि 1 अक्टूबर, 2020 को तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट अनुज कुमार झा ने इस समिति की रिपोर्ट को मंजूरी दे दी थी, जिसमें एमआरवीटी और कुछ सरकारी अधिकारियों के खिलाफ ‘गैर-रजिस्टर्ड दान अभिलेख (डीड) के जरिये (अनुसूचित जाति के व्यक्ति) की भूमि को ‘अवैध रूप से स्थानांतरित करने के लिए’ कार्रवाई की सिफारिश की गई थी.

इसे 18 मार्च, 2021 को अयोध्या संभागीय आयुक्त एमपी अग्रवाल द्वारा संस्तुति दी गई थी और अंततः 6 अगस्त, 2021 को एआरओ अदालत में 22 अगस्त, 1996 के ‘सुधार’ के आदेश और राज्य सरकार को ‘उक्त भूमि वापस करने’ के लिए एक मामला दायर किया गया था.

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