मध्य प्रदेश: सत्ता और विपक्ष के बीच ओबीसी आरक्षण को लेकर हो रही खींचतान की वजह क्या है

सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले से राज्य की भाजपा सरकार और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच इस बात पर घमासान मचा है कि दोनों में कौन बड़ा ओबीसी हितैषी है और कौन विरोधी. इस तनातनी का केंद्रबिंदु राज्य के पंचायत चुनाव रहे, जिन्हें लगभग सभी तैयारियां पूरी होने के बावजूद ऐन वक़्त पर निरस्त करना पड़ा.

/
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री​ शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक)

सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले से राज्य की भाजपा सरकार और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच इस बात पर घमासान मचा है कि दोनों में कौन बड़ा ओबीसी हितैषी है और कौन विरोधी. इस तनातनी का केंद्रबिंदु राज्य के पंचायत चुनाव रहे, जिन्हें लगभग सभी तैयारियां पूरी होने के बावजूद ऐन वक़्त पर निरस्त करना पड़ा.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री​ शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक)

मध्य प्रदेश की राजनीति में बीते कुछ सालों से जाति इस कदर हावी है कि वह चर्चाओं से जाती ही नहीं है. पदोन्नति में आरक्षण, एट्रोसिटी एक्ट आंदोलन और सवर्ण आंदोलन को झेल चुकी सूबे की सियासत बीते कुछ समय से अनुसूचित जनजाति वर्ग यानी आदिवासियों पर केंद्रित थी. लेकिन अब अचानक यह पूरी तरह से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) पर शिफ्ट हो गई है.

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से राज्य की भाजपा सरकार और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच यह लेकर घमासान मचा है कि दोनों में कौन बड़ा ओबीसी हितैषी है और कौन विरोधी? घमासान का केंद्रबिंदु राज्य के पंचायत चुनाव रहे, जिन्हें लगभग सभी तैयारियां पूरी होने के बावजूद ऐन वक्त पर निरस्त करना पड़ा.

करीब 23,000 जिला पंचायत, जनपद पंचायत और ग्राम पंचायत के लगभग 4 लाख पदों पर तीन चरणों में चुनाव होने थे. 6 जनवरी, 16 जनवरी और 28 जनवरी को मतदान प्रस्तावित था. मध्य प्रदेश निर्वाचन आयोग ने पूरी चुनावी तैयारी कर ली थी. दावेदारों में चुनाव चिह्न तक बंट गए थे. चुनावी सामग्री छप गई थी. लेकिन, प्रथम चरण के मतदान से महज दस दिन पहले आयोग को मजबूरन चुनाव निरस्त करना पड़ा और प्रदेश में बीते दो सालों से टलते आ रहे पंचायत चुनाव फिर से अनिश्चित काल के लिए टल गए.

इससे पहले, महीने भर तक राज्य की राजनीति में नाटकीय घटनाक्रम चला. जो कांग्रेस-भाजपा की नूरा-कुश्ती से शुरू होकर अदालतों के चक्कर काटते हुए ओबीसी आरक्षण पर आकर केंद्रित हो गया और अंतत: ग्रामीण निकायों के गठन में बाधक बना.

क्या है मामला 

21 नवंबर को प्रदेश भाजपा सरकार मध्य प्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज (संशोधन) अध्यादेश-2021 लाई. इसी के तहत राज्य निर्वाचन आयोग पंचायत चुनाव करा रहा था. अस्तित्व में आते ही इस अध्यादेश पर सवाल उठने लगे. इसे संविधान और पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम के विरुद्ध बताया गया.

इसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले याचिकाकर्ता मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता सैयद ज़ाफर द वायर को बताते हैं, ‘कांग्रेस सरकार ने 2019 में पंचायतों का परिसीमन और आरक्षण किया था, यह अध्यादेश लाकर भाजपा सरकार ने वह निरस्त कर दिया और 2014 के परिसीमन व आरक्षण के तहत चुनाव कराने का फैसला किया.’

बता दें कि मध्य प्रदेश में आखिरी पंचायत चुनाव वर्ष 2014-15 में हुए थे. कायदे से 2019-20 में चुनाव होने थे. इसलिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने नए सिरे से पंचायत परिसीमन कराकर रोटेशन के तहत आरक्षण लागू किया था. तब करीब 1,200 नई पंचायतें अस्तित्व में आईं. लेकिन, कांग्रेस सरकार गिर गई. भाजपा वापस सत्ता में आ गई. फिर कोरोना के चलते चुनाव टलते रहे.

विपक्ष में रहते भाजपा ने कमलनाथ सरकार के परिसीमन का विरोध किया था. सत्ता में आकर उसने अध्यादेश लाकर इसे रद्द भी कर दिया. साथ ही, सरकार ने अध्यादेश में ऐसा प्रावधान जोड़ा कि 2021 के चुनाव में 2014 का आरक्षण लागू हो. जबकि, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243 (डी) कहता है कि हर पांच वर्ष में होने वाले पंचायत चुनावों में आरक्षण रोटेशन से तय हो.

रोटेशन प्रणाली मोटे तौर पर ऐसे समझिए कि यदि 2014 में कोई पंचायत अनुसूचित जाति/जनजाति/ओबीसी/महिला वर्ग के लिए आरक्षित थी, तो अगले चुनाव में वहां किसी अन्य वर्ग को मौका मिले.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और कांग्रेस से राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने द वायर  को बताया, ‘2014 का आरक्षण लागू होने पर जो सीट तब महिला आरक्षित थी, वह 2021 में भी महिला आरक्षित रहती. मतलब 2026 यानी 12 वर्षों तक उस सीट पर पुरुषों को मौका नहीं मिलता. यही नियम अन्य वर्गों पर भी लागू होता.’

वे आगे कहते हैं, ‘छोटे स्तर पर हर व्यक्ति पंच-सरपंच का चुनाव लड़ने की महत्वाकांक्षा रखता है. इन्हीं महत्वाकांक्षाओं को संविधान में सम्मान दिया है, लेकिन भाजपा इनका कत्ल कर रही थी. सालभर पुराने आरक्षण के बजाए सात साल पुराने आरक्षण पर चुनाव करा रही थी.’

ज़ाफर बताते हैं, ‘इसके खिलाफ मध्य प्रदेश हाईकोर्ट और उसकी ग्वालियर-इंदौर खंडपीठों में विभिन्न लोगों ने याचिकाएं लगाईं. पहली सुनवाई 2 दिसंबर को हुई. सरकार को नोटिस जारी हुआ. संयोगवश निर्वाचन आयोग ने दो दिनों बाद यानी 4 दिसंबर को चुनावों की घोषणा कर दी.’

इस घोषणा से सरकार को लाभ हुआ. उसे अदालत में यह तर्क पेश करने का मौका मिल गया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 (ओ) के तहत चुनावी अधिसूचना जारी होने के बाद अदालत चुनाव पर रोक नहीं लगा सकती. इसलिए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया. तब याचिकाकर्ता 15 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. (विवादित अध्यादेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका सैयद ज़ाफर और जया ठाकुर पहले ही लगा चुके थे.)

यहीं से ओबीसी आरक्षण पर बखेड़ा शुरू हुआ, क्योंकि इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसंबर को पंचायत चुनावों में ओबीसी आरक्षण रद्द किया था और मध्य प्रदेश निर्वाचन आयोग को ओबीसी आरक्षित सीटें सामान्य श्रेणी में शामिल करने का आदेश दिया था.

आयोग ने आदेश पर अमल करते हुए ओबीसी आरक्षित सीटों पर चुनाव रोक दिए. बाकी सीटों पर चुनावी कार्यक्रम यथावत जारी रहा.

शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला

इस आदेश से प्रदेश की सियासत में सनसनी फैल गई. भाजपा सरकार और संगठन का लगभग हर बड़ा नेता कांग्रेस पर पिछड़ा वर्ग के खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाने लगा.

भाजपा प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा ने कहा, ‘चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाना तो केवल बहाना था. कांग्रेस योजनाबद्ध तरीके से ओबीसी के खिलाफ षड्यंत्र कर रही है. पहले नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण और अब पंचायत चुनावों के बहाने पिछड़ा वर्ग को नुकसान पहुंचा रही है.’

जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण रद्द किया, उसकी पैरवी विवेक तन्खा कर रहे थे. वीडी शर्मा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और मध्य प्रदेश के नगरीय विकास एवं आवास मंत्री भूपेंद्र सिंह ने तन्खा पर आरोप लगाया कि उन्होंने अदालत में ओबीसी आरक्षण का विरोध किया था. इस पर तन्खा ने उन्हें 10 करोड़ रुपये का मानहानि का नोटिस भेजा था, इसका जवाब न आने पर उन्होंने मुकदमा दर्ज किया है.

आरोप लगाने में कांग्रेसी नेता भी पीछे नहीं हैं. पूर्व मंत्री व कांग्रेस विधायक कमलेश्वर पटेल के शब्दों में, ‘कांग्रेस ने कभी ओबीसी आरक्षण समाप्त करने की बात नहीं की, बल्कि कमलनाथ सरकार ने तो 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण दिया था. षड्यंत्र तो भाजपा रच रही है. भाजपा-संघ की सोच हमेशा आरक्षण विरोधी रही है, इसलिए जानबूझकर चुनाव में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया था.’

इस संबंध में भाजपा प्रदेश मंत्री और प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने द वायर  से कहा, ‘27 फीसदी ओबीसी आरक्षण देने संबंधी कांग्रेसी दावों का सच यह है कि उन्होंने आरक्षण देते समय सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और मौजूदा नियम-कायदों का अध्ययन नहीं किया था, इसलिए अदालत में मामला पहुंचा तो सरकार की ओर से वकील तक खड़ा नहीं हुआ और आरक्षण पर रोक लग गई. मतलब कि ओबीसी आरक्षण पर उनकी नीयत में हमेशा ही खोट रहा है. वे केवल राजनीति करते हैं.’

वर्तमान अदालती आदेश के संबंध में कांग्रेस पर निशाना साधते हुए सरकार के बचाव में वे कहते हैं, ‘कांग्रेस के आरोपों में तथ्य क्या हैं? वे केवल भ्रमित कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट वे गए, न कि हम. उनका तर्क है कि आरक्षण के खिलाफ कोर्ट नहीं गए थे, रोटेशन के लिए गए थे. मैं पूछता हूं कि रोटेशन किस चीज का होता है? आरक्षण का ही तो रोटेशन होता है. मतलब कि उनका मुद्दा आरक्षण ही था.’

रजनीश आगे कहते हैं, ‘अदालत में उन्होंने महाराष्ट्र के गवली प्रकरण का हवाला दिया जिसमें ओबीसी आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट पूर्व में फैसला दे चुका है इसलिए तत्काल वह फैसला मध्य प्रदेश पर भी लागू हो गया. कांग्रेस और उसके वकील भली-भांति जानते होंगे कि अगर किसी मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले कोई फैसला सुनाया है तो स्वाभाविक तौर पर अन्य समान मसलों पर भी वह फैसला लागू होगा. इसलिए उनके वकील ने जानबूझकर गवली प्रकरण का उल्लेख किया और नतीजा सबके सामने है.’

दूसरी ओर, तन्खा आदेश के पीछे की पूरी कहानी बताते हैं, ‘पहली बात, हम चुनाव प्रक्रिया या आरक्षण को चुनौती नहीं दे रहे थे बल्कि उस क़ानून (अध्यादेश) के खिलाफ थे जिसके तहत चुनाव हो रहे थे. सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारे तथ्यों से सहमति जताई और आदेश दिया कि चुनाव नहीं रोक सकते, लेकिन चुनाव प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अधीन कर देते हैं. जनवरी में आपको सुनेंगे, अध्यादेश गलत हुआ तो रद्द कर देंगे.’

आगे जो वह बताते हैं उससे सरकार ही कटघरे में खड़ी नजर आती है. तन्खा ने बताया, ‘उक्त आदेश से हम संतुष्ट थे. सरकार को भी संतुष्ट होना चाहिए था क्योंकि चुनाव नहीं रोके गए, फिर भी उसी शाम (16 दिसंबर) उसने आपत्ति लगा दी कि उसका पक्ष जाने बिना आदेश हुआ है. जिससे सुनवाई अगले दिन के लिए आगे बढ़ गई.’

तन्खा के मुताबिक, अगले दिन अदालत ने सरकार और निर्वाचन आयोग के वकीलों से संवैधानिक तरीके से चुनाव न कराने को लेकर सवालात करते हुए समझाइश दी तो वे समझने तैयार नहीं थे. इससे खफा होकर अदालत ने महाराष्ट्र के संबंध में ओबीसी आरक्षण को लेकर दिए अपने फैसले का जिक्र करते हुए पूछा कि क्या आरक्षण निर्धारित करते समय उन नियमों का पालन हुआ है?

सरकार के वकीलों द्वारा उन नियमों (ट्रिपल टेस्ट) का पालन न किए जाने की बात कहने पर सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण रद्द करने का आदेश पारित कर दिया.

तन्खा सवाल करते हैं, ‘गलती सरकार की थी, समझ उनके वकीलों को नहीं थी, आरोप मुझ पर लगा रहे हैं. अदालत तब मुझसे नहीं, उनके वकीलों से मुखातिब हो रही थी. उन्हें कहना चाहिए था कि महाराष्ट्र का जजमेंट इस मामले से संबंध नहीं रखता या कुछ भी बोलकर बहस को अध्यादेश पर केंद्रित करते. इसलिए मुझे या कांग्रेस को कोसना गलत है.’

तन्खा की बातों के माने यह निकलते हैं कि यदि सरकार आपत्ति जताने नहीं पहुंचती तो ओबीसी आरक्षण रद्द नहीं होता.

ज़ाफर कहते हैं, ‘वे संविधान और सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखाकर ट्रिपल टेस्ट कराए बिना आरक्षण दे रहे थे. कोर्ट ने इसका स्वत: संज्ञान ले लिया तो चोरी पकड़ी गई. हमारा क्या दोष? सरकार ईमानदार थी तो ट्रिपल टेस्ट क्यों नहीं कराया? संवैधानिक दायरे में आरक्षण देते तो ऐसी नौबत क्यों आती? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि याचिका किसने लगाई, महत्वपूर्ण यह है कि सरकार संविधान के हिसाब से नहीं चले तो विपक्ष की क्या गलती?’

इस संबंध में रजनीश कहते हैं, ‘ट्रिपल टेस्ट कराना-न कराना बाद की बात है. मुख्य बात यह है कि याचिका लगाने अदालत वे पहुंचे, इसलिए आरक्षण निरस्त हुआ.’

ज़ाफर बताते हैं, ‘जिस याचिका पर सुनवाई के दौरान आरक्षण रद्द हुआ वह मेरी और जया ठाकुर की नहीं, बल्कि मनमोहन नागर की थी. वे मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में हारकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे. हमने तो सीधा सुप्रीम कोर्ट में रिट पिटीशन डाली थी जिसे 15 दिसंबर को ही सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट भेज दिया था, जो अभी लंबित है. फिर भी भाजपा झूठ फैला रही है कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी आरक्षण रद्द कराने के लिए याचिका लगाई थी.’

गौरतलब है कि मंत्री भूपेंद्र सिंह ने सदन में कहा था कि ठाकुर और ज़ाफर ने ओबीसी आरक्षण के खिलाफ याचिका डाली थी. ज़ाफर ने खुला पत्र लिखकर उनके आरोपों का खंडन किया है.

खुद को ‘ओबीसी हितैषी’ साबित करने की होड़ 

एक ओर दोनों दल एक-दूसरे को पिछड़ा वर्ग का गुनाहगार बता रहे हैं तो दूसरी ओर स्वयं को सबसे बड़ा हितैषी भी साबित की होड़ है.

कांग्रेस अपने कार्यकाल में दिए 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को तो गिना ही रही है, साथ ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ द्वारा इस मुद्दे पर सदन में स्थगन प्रस्ताव लाकर चर्चा की मांग करना, कांग्रेसी नेताओं द्वारा क़ानूनी विकल्पों पर विचार करने की बात कहना और भाजपा सरकार पर सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी डालने के लिए दबाव बनाना, खुद को ओबीसी हितैषी साबित करने की कवायद का ही हिस्सा हैं.

अमूमन विपक्ष के स्थगन प्रस्ताव आसानी से स्वीकार नहीं होते लेकिन कमलनाथ का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार हुआ क्योंकि मामला वोट बैंक का था. ओबीसी के कोर वोट बैंक वाली भाजपा के सामने कोई विकल्प नहीं था.

प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सदन में यह संकल्प पारित हुआ कि चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ ही कराए जाएंगे. इस संकल्प पर भी दोनों ही दल एकजुट थे.

राज्य के वरिष्ठ पत्रकार अनुराग द्वारी कहते हैं, ‘यह वोट बैंक की नौटंकी है. दोनों दल दिखाना चाहते हैं कि वे पिछड़ा वर्ग के सबसे बड़े हितैषी हैं. मामले में न कांग्रेस दूध की धुली है और न भाजपा. यह सही है कि कांग्रेस रोटेशन और परिसीमन के मुद्दे पर कोर्ट गई, लेकिन मामला ओबीसी आरक्षण का हो गया. जिससे उसके सामने होम करते ही हाथ जलने वाली स्थिति बन गई.’

सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका लगाई थी लेकिन अदालत ने तत्काल सुनवाई से इनकार कर दिया, तो दो ही दिन बाद (26 दिसंबर) उसने वह विवादित अध्यादेश वापस ले लिया जिसके तहत चुनाव हो रहे थे. इस कदम को भाजपा ने ऐसा बताकर प्रचारित किया कि पिछड़े वर्ग के हित में सरकार ने स्वयं को संकट में डालने का जोखिम उठाया है.

उधर मजबूरन आयोग को चुनाव निरस्त करने पड़े. कांग्रेस ने इसे अपनी जीत बताया कि सरकार ने असंवैधानिक अध्यादेश वापस ले लिया.

दूसरी तरफ सरकार ने राज्य में ओबीसी की जनगणना शुरू करा दी, ताकि सुप्रीम कोर्ट में आबादी के आधार पर आरक्षण के समर्थन में आंकड़े पेश कर सके.

इस बीच, प्रदेश के ओबीसी संगठन भी लामबंद हो गए हैं. दो जनवरी को ओबीसी महासभा के बैनर तले मुख्यमंत्री आवास के घेराव का प्रयास हुआ. इसमें कई ओबीसी संगठनों ने भागीदारी की. इसे रोकने के लिए सरकार ने लगभग भोपाल की सीमाएं सील कर दीं थीं. कई गिरफ्तारियां भी हुईं.

भाजपा ने इसके लिए कांग्रेस को अराजकता फैलाने का जिम्मेदार ठहराया है, जबकि आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी पर कांग्रेस ने यह कहते हुए सरकार पर हमला किया है कि वह ओबीसी की आवाज दबा रही है.

इस बीच केंद्र सरकार भी मामले में कूद पड़ी है. उसने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी डाली है. कुल मिलाकर करीब आधा दर्जन पुनर्विचार याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में हैं.

वहीं, अध्यादेश वापस लेने के चलते कमलनाथ सरकार का 2019-20 का परिसीमन वापस अस्तित्व में आ गया था, जिसे रद्द करने के लिए सरकार चार दिन बाद ही (30 दिसंबर) फिर नया अध्यादेश ले आई.

नए और पुराने अध्यादेश में क्या अंतर?

ज़ाफर बताते हैं, ‘नए व पुराने अध्यादेश में दो बड़े अंतर हैं. पहला, पुराने अध्यादेश की अवधि एक साल थी जिसमें चुनाव न होने पर वह रद्द हो जाता जबकि नए की डेढ़ साल है. दूसरा, पुराने में 2014 का आरक्षण लागू था जबकि नए में आरक्षण पर कुछ नहीं बोला है.’

ज़ाफर नए अध्यादेश पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते, बस इतना कहते हैं कि नए अध्यादेश से इतना स्पष्ट है कि पंचायतों का परिसीमन अब न 2014 वाला होगा और न 2019 वाला. यह नये सिरे से होगा.

अंत में एक अहम सवाल कि आखिर वर्तमान शिवराज सरकार, पिछली कमलनाथ सरकार के परिसीमन और रोटेशन को रद्द करके 2014 वाली स्थिति लागू करने पर क्यों अड़ी थी?

इस पर तन्खा कहते हैं, ‘सच क्या है… भगवान जाने, लेकिन मुझे जो बताया गया वो यह है कि 2014 का रोटेशन भाजपा ने किया था. इसलिए वह उन्हें लाभ पहुंचाने वाला था.’

इस विवाद के बीच हुई विधायक दल की एक बैठक में ऐसा ही आरोप मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कांग्रेस पर लगाते हुए कहा था कि कमलनाथ सरकार ने रोटेशन और परिसीमन गलत और भेदभावपूर्ण तरीके से किया था. इसलिए हमने रद्द किया था.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq