उत्तर प्रदेश चुनाव: योगी आदित्यनाथ की अयोध्या से हिजरत के मायने क्या हैं

उत्तर प्रदेश भाजपा में विधानसभा चुनाव के सिलसिले में जो कुछ भी ‘अघटनीय’ घट रहा है, वह दरअसल उसके दो नायकों द्वारा प्रायोजित हिंदुत्व के दो अलग-अलग दिखने वाले रूपों का ही संघर्ष है. योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से दूर किए जाने से साफ है कि अभी तक प्रदेश में योगी की आक्रामकता से मात खाता आ रहा मोदी प्रायोजित हिंदुत्व अब खुलकर खेलने की तैयारी कर रहा है.

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश भाजपा में विधानसभा चुनाव के सिलसिले में जो कुछ भी ‘अघटनीय’ घट रहा है, वह दरअसल उसके दो नायकों द्वारा प्रायोजित हिंदुत्व के दो अलग-अलग दिखने वाले रूपों का ही संघर्ष है. योगी आदित्यनाथ को अयोध्या से दूर किए जाने से साफ है कि अभी तक प्रदेश में योगी की आक्रामकता से मात खाता आ रहा मोदी प्रायोजित हिंदुत्व अब खुलकर खेलने की तैयारी कर रहा है.

योगी आदित्यनाथ. (फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या अथवा मथुरा से विधानसभा चुनाव लड़ने की संभावनाओं को भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थकों द्वारा पिछले दिनों जैसा ‘मीडिया हाइप’ दिया गया, उसके मद्देनजर स्वाभाविक ही है कि योगी के अपने गृहनगर गोरखपुर से मतदाताओं का सामना करने को कहे जाने को लेकर न सिर्फ उनके लिए असुविधाजनक प्रश्न पूछे जा रहे हैं बल्कि जितने मुंह उतनी बातें हो गई हैं.

विडंबना यह है कि इस चक्कर में उनके चुनाव लड़ने के साथ यह कहकर जोड़ी जा रही नैतिक चमक भी फीकी हुई जा रही है कि वे पिछले अठारह सालों में खुद के लिए प्रत्यक्ष जनादेश मांगने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं.

इससे पहले 2003 में मैनपुरी के तत्कालीन समाजवादी पार्टी सांसद मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने संभल जिले की गुन्नौर विधानसभा सीट खाली कराकर उपचुनाव लड़ा और रिकॉर्ड एक लाख तिरासी हजार वोटों से जीते थे. लेकिन उनके बाद से योगी तक के सारे मुख्यमंत्री दल व विचारधारा का भेद किए बिना या अप्रत्यक्ष चुनाव के रास्ते विधान परिषद की सदस्यता प्राप्तकर अपना काम चलाते रहे हैं.

बहरहाल, अब जो हालात हैं, उनमें सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का, 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए जिनको बेदखलकर दिया और योगी को मुख्यमंत्री बनाया था, प्रबल प्रतिद्वंद्विता के चलते भाजपा को धन्यवाद देते हुए यह तंज करना ठीक जगह चोट करता है कि इससे पहले कि सपा चुनाव हराकर योगी को गोरखपुर यानी उनके घर भेजती, उसी ने भेज दिया है.

लेकिन मीडिया के उस हिस्से के सामने बड़ी मुश्किल आ खड़ी हुई है, जो योगी को गोरखपुर से प्रत्याशी बनाने के भाजपा के ऐलान से ऐन पहले तक उनके अयोध्या से चुनाव लड़ने के फायदे गिना रहा था और अब अपने दर्शकों, श्रोताओं व पाठकों को उनके अयोध्या से लड़ने से उन्हें और भाजपा दोनों को हो सकने वाले नुकसान गिना रहा है.

कहां तो बेचारे पत्रकार योगी के गुरु अवैद्यनाथ के वक्त से उनकी गोरक्षपीठ व अयोध्या में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के आंदोलन के अभिन्न आपसी संबंधों पर बलि-बलि जा रहे और मुख्यमंत्री बनने से अब योगी द्वारा किए गए अयोध्या के दौरों की संख्या बताते नहीं थक रहे थे, साथ ही दावे कर रहे थे कि उनके अयोध्या से नामांकनपत्र भरते ही समूचे पूर्वांचल में भाजपा की संभावनाएं आसमान चूमने लग जाएंगी और वह किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे मुमकिन कुछ सीटों के नुकसान की भरपाई कर लेगी और कहां अब योगी के गोरखपुर से लड़ने का औचित्य सिद्ध करने में द्रविड़ प्राणायाम करने को अभिशप्त हैं.

इन्हीं पत्रकारों के ताजा शब्दों में कहें, तो अयोध्या के जनसंघ के वक्त से ही हिंदुत्ववादियों के प्रभाव वाली विधानसभा सीट होने के बावजूद उसका जातीय समीकरण जिस तरह योगी के विपरीत था, एक जाति के लोगों की उनके प्रति नाराजगी मुखर हो रही थी और जिस तरह यहां से उनका टिकट कट जाने के बाद वे व्यवसायी खुशियां मना रहे हैं, जो उनकी अयोध्या में त्रेतायुग उतार देने वाली उनकी सरकार की विकास योजनाओं के कारण रोटी-रोटी खोने व विस्थापित होने के कगार पर हैं, उसके लिहाज से योगी का गोरखपुर से लड़ने का फैसला ही बेहतर है.

हालांकि इन पत्रकारों की इस सवाल का जवाब देने में आनाकानी बदस्तूर है कि क्या अयोध्या के प्रतिकूल जातीय समीकरणों के चलते रणछोड़ बनना योगी के उस आक्रामक हिंदुत्व की मतदानपूर्व पराजय नहीं है, जिसका अलम लिए फिरने का वे दावा करते हैं?

कई ‘ज्ञानी’ पत्रकार तो अब योगी के लिए गोरखपुर को अयोध्या से बेहतर सिद्ध करने के लिए अयोध्या को अपने शासकों के लिए मनहूस बताने में भी संकोच नहीं कर रहे. भले ही भाजपा को केंद्र तक की सत्ता का भरपूर सुख अयोध्या के राम मंदिर मुद्दे की बदौलत ही मिला हो.

उनमें कई कदम आगे बढ़कर यह दावा करने वाले भी हैं कि दरअसल, योगी भाजपा को सांप और खुद को नेवला बताने व उसमें भगदड़ मचाने वालों के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को सबक सिखाने गोरखपुर गए हैं. ज्ञातव्य है कि मौर्य गोरखपुर से कुछ ही दूर स्थित पडरौना विधानसभा सीट से विधायक हैं.

लेकिन मौर्य के समर्थकों का दावा इसके सर्वथा उलट है. उनके अनुसार यह भाजपाई हिंदुत्व से मौर्य की बगावत का ही प्रतिफल है कि भाजपा को डैमेज कंट्रोल के लिए एक सौ सात उम्मीदवारों की पहली सूची में उनसठ प्रतिशत से ज्यादा टिकट ओबीसी व दलित जातियों को देने पड़े हैं.

साथ ही उसे एक सामान्य सीट पर भी एक दलित प्रत्याशी को टिकट देना पड़ा और योगी को अयोध्या से हटाकर उनके हिंदुत्व से फोकस हटाना पड़ा है. अन्यथा, ये समर्थक पूछते हैं: जब इस बगावत से पहले भाजपा की कोर कमेटी ने योगी के अयोध्या से चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी थी और अंतिम फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर छोड़ दिया था तो इस बीच प्रधानमंत्री की असहमति के सिवा ऐसा क्या हुआ कि योगी न सिर्फ अयोध्या बल्कि हिंदुत्व के दूसरे केंद्र मथुरा को भी पीठ दिखा गए?

मौर्य समर्थकों के दावे में कम से कम इतना तो सत्य है ही कि उनके साथ छोड़ जाने के बाद से ही ऐसी चर्चाएं हवा में तैर रही थीं कि भाजपा को महसूस हो गया है कि उसे जैसे भी बने, योगी को आक्रामक हिंदुत्व के उस एजेंडा से पीछे हटाना ही होगा, जो इस भगदड़ की जड़ में है.

भाजपा अपने अतीत में भी हिंदुत्व के रास्ते सत्ता तक का सफर संकटग्रस्त होने के हर मौके पर उसे छोड़ने का भ्रम रचती रही है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन वाले दिनों में उसने अपने तीन बड़े और विवादास्पद मुद्दों को इस तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया था कि कई समाजवादी समझ बैठे थे कि अब वह कभी उनकी ओर जाएगी ही नहीं.

जनता पार्टी में टूट के बाद छह अप्रैल, 1980 को अपने पुनर्जन्म के बाद उसने दीनदयाल उपाध्याय द्वारा दी गई एकात्म मानववाद की विचारधारा को गांधीवादी समाजवाद से प्रतिस्थापित कर दिया था और कई विचारकों के अनुसार उसके घाट पर आत्महत्या करते-करते बची थी.

यह तो अभी 2014 की ही बात है जब उसके नये नायक नरेंद्र मोदी खुद का और उसका चोला बदलकर अचानक ‘विकास के महानायक’ बन गए और उसे नई बुलंदियों तक ले गए. लेकिन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक उनके इस महानायकत्व की कलई खुलने लगी तो कब्रिस्तान बनाम श्मशान और ईद बनाम होली दीवाली करने पर उतर आए थे और चूंकि समाजवादी पार्टी के अंदरूनी झगड़ों में फंसी अखिलेश सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी चरम पर थी, चुनाव नतीजों को अपने अनुकूल करने में सफल रहे थे.

लेकिन मौर्य समर्थकों के दावों के विपरीत जानकारों की मानें, तो इस मामले को भाजपा के बहुप्रचारित योगी-मोदी अंतर्विरोध से जोड़े बगैर उससे जुड़े किसी भी विश्लेषण को सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंचाया जा सकता.

इस अंतर्विरोध की शुरुआत दरअसल, तभी हो गई थी, जब मोदी की मंशा के विपरीत, कहते हैं कि, भाजपा का पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ योगी आदित्यनाथ पर ‘कृपालु’ हो उठा और वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे. हम जानते हैं कि तब से अब तक ढकने-तोपने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह अंतर्विरोध बढ़ता, उघड़ता और योगी व मोदी दोनों की महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष में बदलता गया है.

यहां विस्तार में जाकर इसकी मिसालें गिनाने का अवकाश नहीं है लेकिन यह बात निर्णायक तौर पर समझी जा सकती है कि भाजपा में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सिलसिले में जो कुछ भी ‘अघटनीय’ घट रहा है और जिसके कारण वह प्रतिद्वंद्वियों से ही नहीं अपने घर में भी उलझी हुई दिखती है, वह दरअसल, उसके दो नायकों द्वारा प्रायोजित हिंदुत्व के दो अलग अलग दिखने वाले रूपों का ही संघर्ष है.

इसमें से एक के ‘प्रवर्तक’ नरेंद्र मोदी हैं, जिसे फिलहाल, देश के कॉरपोरेट का भी समर्थन प्राप्त है. दूसरे रूप की कमान मोदी की भोंडी किस्म की नकलें करके उनका विकल्प बनना चाहने वाले योगी के हाथ है, जिन्हें गुजरात के वक्त से ही मोदी के बर्ताव से असहज रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शह है.

इनमें मोदी द्वारा प्रायोजित हिंदुत्व उनकी जाति के बहाने खुद को पिछड़ों व दलितों के प्रति दरियादिल प्रदर्शित कर अपनी सत्ता की उम्र लंबी करना चाहता है, जबकि योगी का हिंदुत्व उन्हें उस रूप में ‘पचाने’ को तैयार नहीं है. इस कारण उससे असुरक्षित महसूस कर रहे दलितों-पिछड़ों को लगता है कि हिंदू के नाम पर उन्हें इकट्ठा कर उनके समुदायों का हक लूटा जा रहा है.

योगी को अयोध्या से दूर कर दिए जाने से साफ है कि अब तक उत्तर प्रदेश में योगी की आक्रामकता से मात खाता आ रहा मोदी प्रायोजित हिंदुत्व अब खुलकर खेलने की तैयारी कर रहा है.

लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि राज्य के विधानसभा चुनाव में भाजपा अपनी टेक हिंदुत्व से हटा देगी क्योंकि योगी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में विकास को इस तरह पागल किए रखा है कि उसके पास सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने के लिए कुछ बचा ही नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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