क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह आस्था के नाम पर लोगों को जीवनयापन से वंचित कर दे?

खान-पान और आस्था के नाम पर लोगों को नये-नये अंधकूपों में धकेला जा रहा है.

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Allahabad: Uttar Pradesh Chief minister Yogi Adityanath along with Deputy chief minister Keshaw Prasad Maurya and Akhara Parishad President Narendra Giri and other BJP leader perform ritual Aarti at Sangam in Allahabad on Saturday. PTI Photo (PTI6_3_2017_000215B)

खान-पान और आस्था के नाम पर लोगों को नये-नये अंधकूपों में धकेला जा रहा है.

Allahabad: Uttar Pradesh Chief minister Yogi Adityanath along with Deputy chief minister Keshaw Prasad Maurya and Akhara Parishad President Narendra Giri and other BJP leader perform ritual Aarti at Sangam in Allahabad on Saturday. PTI Photo (PTI6_3_2017_000215B)
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (प्रतीकात्मक तस्वीर: पीटीआई)

होटल मालिक मुस्तफा हुसैन (बदला हुआ नाम) और अंडा बिक्रेता रामप्रवेश पटेल (बदला हुआ नाम) जो कम से कम डेढ़ दो दशकों से वृंदावन के इलाके में अपना कारोबार चलाते रहे हैं, इन दिनों बेहद चिंतित हैं. विडंबना यही है कि इस किस्म की चिंताएं उनके जैसे सैकड़ों लोगों को घेरे हैं, जबसे योगी सरकार ने आनन-फानन में अपना फैसला सुनाया है और वृंदावन और पास के बरसाना के क्षेत्रा को ‘पवित्र तीर्थ स्थल’ घोषित किया है. इन शहरों की पवित्रता की दुहाई देते हुए उसने इन क्षेत्रों में अंडा, मीट और शराब पर पाबंदी लगाई है.

फिलवक्त़ यह भी नहीं मालूम है कि मुस्तफा हुसैन, रामप्रवेश पटेल जैसे लोग- जो इसी पेशे में लंबे समय से लगे हुए हैं- अब अपनी आजीविका कैसे चलाएंगे? सरकार की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति में प्रस्तुत ऐलान को औचित्य प्रदान करने के लिए कहा गया है कि वृंदावन ‘भगवान क्रष्ण की जन्मस्थली और उनके जेष्ठ भ्राता बलराम की क्रीडास्थली के रूप में विख्यात है.’ और ‘बरसाना श्री राधा रानी की जन्मस्थली और क्रीडास्थली’ के रूप में विख्यात है.

अंडा, मांसाहारी भोजन और शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाने के बाद गोया लोगों की चिंताओं को दूर करने के लिए पर्यटन मंत्री लक्ष्मीनारायण पांडेय ने कहा है कि सरकार इस क्षेत्र में कुछ करोड़ रुपयों का निवेश करने वाली है ताकि उन्हें धार्मिक पर्यटन के लिए अधिक आकर्षक बनाया जाए और इसी बहाने लोगों को रोजगार मिले.

फिलवक्त़ हम इस बहस में न भी जाएं कि किस तरह मिथकशास्त्र/माइथाॅलोजी की बातों को ऐतिहासिक तथ्य के तौर पर पेश किया जा रहा है, मगर यह सवाल जरूर उठाया जाना चाहिए कि क्या लोकतंत्र में सरकार को यह अधिकार है कि वह जनता के एक हिस्से के आस्था की दुहाई देते हुए लोगों को जीवनयापन के अधिकार से वंचित कर दे?

बहरहाल धर्म विशेष के लिए पवित्र होने के नाम पर इलाकों/शहरों को एक तरह से ‘सुरक्षित धार्मिक क्षेत्र’ यानी सेफ रिलीजियस जोन घोषित करने का सिलसिला इधर बीच खूब परवान चढ़ा है. आप कह सकते हैं कि 2014 में जबसे केंद्र में भाजपा पूर्ण बहुमत से आई है तबसे यह सिलसिला अधिक तेज हो चला है.

मालूम हो कि 2014 में ही भाजपा के पूर्ण बहुमत से केंद्र में सत्तारोहण के बाद गुजरात के पाटण जिले के पलीटाना नगर को- जहां जैनियों के तमाम मंदिर हैं और जो उनका एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है- जैन साधुओं की चार दिनी भूख हड़ताल के बाद, राज्य सरकार ने ‘शाकाहारी इलाका’ घोषित किया गया था, जहां मांसाहारी पदार्थ बेचना और बनाना ‘कानून के उल्लंघन’ में शुमार किया गया था. और यह इस सबके बावजूद कि एक लाख आबादी वाले इस नगर की 25 फीसदी आबादी मुस्लिम थी. इतना ही नहीं स्थानीय सरकारी अधिकारियों ने बताया था कि नगर की चालीस फीसदी आबादी मांसाहारी है जिनमें सिर्फ मुस्लिम ही नहीं कोली जैसे हिंदू समुदाय भी शामिल हैं.

कुछ साल पहले चुनावी आपाधापी में मध्य प्रदेश के काबिना मंत्री एवं पूर्व मुख्यमंत्री जनाब बाबूलाल गौड़ की तरफ से जारी हुए एक आदेश में भाजपा सरकार द्वारा पवित्र नगरी घोषित किए गए चंद नगरों के बारे में विशेष सूचना प्रकाशित की गई थी जिसमें स्थानीय निवासियों के तौर उनकी आम जिंदगी को लेकर कुछ दिशा-निर्देश जारी किए गए थे.

मसलन किस तरह इन ‘पवित्र नगरियों’ में अंडों तथा मछली, मीट जैसे मांसाहारी खाद्य पदार्थों की बिक्री संभव नहीं होगी आदि. निश्चित ही जनाब गौड़ के इस आदेश में नया कुछ नहीं था. एक तरह से वह अपनी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती के कार्य को ही आगे बढ़ा रहे थे.

उमा भारती ने वर्ष 2003 के अंत में जब वे मध्य प्रदेश में भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री बनी थीं, तब अमरकंटक तथा अन्य ‘धार्मिक नगरों में’ मांस-मछली आदि ही नहीं बल्कि अंडे के बिक्री और सेवन पर पाबंदी लगा दी थी. उसी वक्त यह प्रश्न उठा था कि किस तरह एक ही तीर से न केवल अहिंदुओं को बल्कि हिंदू धर्म को मानने वालों के बहुविध दायरे पर अल्पमत वर्ण हिंदुओं का एजेंडा लादा जा रहा है.

जिन दिनों पंजाब में अतिवादी सिख नेता भिंडरावाले की गतिविधियों ने जोर पकड़ा था, उन दिनों उनकी तरफ से इसी किस्म की ‘आचार संहिता’ लागू करवाने की बात की जा रही थी. स्वर्णमंदिर जहां स्थित है उस अमृतसर में तथा सिखों के लिए पवित्र अन्य स्थानों पर खाने-पीने की किस तरह की चीजें बिक सकती हैं या नहीं बिक सकती हैं इसके बारे में फरमान भी उनकी ओर से जारी हुए थे.

अगर बारीकी से पड़ताल करें तो पाएंगे कि अंडा, मीट, मछली आदि पर ‘तीर्थ स्थलों’ में पाबंदी का मामला महज आस्था से जुड़ा मसला नहीं है, कहीं न कहीं उसका ताल्लुक जाति और वर्ग से भी जुड़ा है. अपने एक आलेख ‘कास्ट, क्लास एंड एग्ज’ में जाने माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने इस पर रोशनी डाली थी.

इस लेख में उन्होंने भाजपा शासित राज्यों में मिड-डे-मील से अंडे को बाहर करने के निर्णय पर सवाल उठाते हुए बताया था-

‘भारतीय समाज में खाने की च्वाइस पर तथा उसे साझा करने पर लगाई गई सीमाएं एक तरह से जाति व्यवस्था को द्रढ करने के लिए जरूरी होता है. और ऐसे प्रतिबंधों के स्वयंभू कर्णधार खुद विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से आते हैं जिनका इस प्रणाली के टिके रहने में स्वार्थ शामिल होता है.’

ऐसे निर्णय एक तरह से भारत के बारे में लोकप्रिय छवि को ही पुष्ट करते हैं कि भारत का बहुलांश शाकाहारी है, जबकि व्यापक सर्वेक्षणों ने इस बात को साबित किया है कि यह एक मिथक है. अपने बहुचर्चित ‘पीपुल आॅफ इंडिया’ प्रोजेक्ट में कुमार सुरेश सिंह ने पहले ही बताया था कि भारत के अधिकतर समुदाय मांसाहारी हैं.

आज से एक दशक पहले द हिंदू-आईबीएन-सीएनएन द्वारा संयुक्त रूप से किए गए सर्वेक्षण में- जिसे सीएसडीएस ने अंजाम दिया था- बताया था कि ‘महज 31 फीसदी भारतीय शाकाहारी है. यह आंकड़ा परिवारों के लिए 21 फीसदी है जहां सभी सदस्य शाकाहारी हों. बाकी 9 फीसदी आबादी ‘एगेटेरियन’ है अर्थात ऐसे शाकाहारी जो अंडे खाते हैं.

वैसे इस परिघटना को हवा देने में महज धर्म विशेष के इर्द-गिर्द राजनीति का संचालन करने वाले संगठन ही आगे नहीं रहते है. अभी पिछले ही साल जब पंजाब के चुनाव सिर पर थे तब आम आदमी पार्टी के कर्णधार अरविंद केजरीवाल ने यह बाकायदा ऐलान किया था कि अगर उनकी पार्टी जीतती है तो वह अम्रतसर को ‘पवित्र नगर’ का दर्जा प्रदान करेगी. (यह अलग बात है कि वह चुनाव हार गए.) इतना ही नहीं वह स्वर्ण मंदिर के आसपास शराब, मीट और टोबैको के उपभोग पर भी रोक लगाएंगे.

उनके मुताबिक खालसा को जन्म देने वाले आनंदपुर साहिब को भी पवित्र नगर का दर्जा दिया जाएगा. लोगों ने तब याद दिलाया था कि जिन दिनों वह वाराणसी से चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने अपने बनारस संकल्प में अन्य कुछ मांगों के अलावा इस बात का भी विशेष उल्लेख किया था कि वह वाराणसी को ‘पवित्र नगरी’ का दर्जा दिलाएंगे.

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कंडेय काटजू का बयान भी सुर्खियां बना था जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा था कि ऐसे बयान भले ही फौरी तौर पर वोटों में बढ़ोत्तरी कर दें, मगर वह मुल्क के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को किस तरह प्रभावित करते हैं, इसे हम बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर स्थापित करने के लिए चले आंदोलन से भी देख सकते हैं.

इस बात पर भी जोर दिया जाना जरूरी है कि ऐसी कोशिशें मुल्क की साझी, मिली-जुली संस्क्रति के ताने-बाने को प्रभावित करती हैं. मिसाल के तौर पर विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, रुझानों से बने शहर बनारस को देखें- जहां महज हिंदुओं एवं बौद्धों के ही सर्वोत्कृष्ठ स्थान नहीं हैं, बल्कि जैनियों के कई तीर्थंकरों के जन्मस्थान भी यही हैं, यहां तक इस्लाम के मानने वालों के भी कुछ अहम स्थान हैं जिस नगरी ने कबीर, रैदास एवं तुलसी जैसे महान संतों को जन्म दिया था.

दिलचस्प है कि ऐसे ही रुझानों के चलते वर्ष 2013 में आंध्र प्रदेश की तिरुमला पहाड़ियों की तलहटी में थोंडावडा के पास तिरुपति मंदिर से तेरह किलोमीटर दूर बन रही ‘हीरा इंटरनेशनल इस्लामिक युनिवर्सिटी’ को बिल्कुल अलग ढंग के विरोध का सामना करना पड़ा था.

गौरतलब है कि हीरा ग्रुप जो एक ग्लोबल फार्चून कंपनी है जो कमोडिटीज तथा शैक्षिक व्यवसाय में भी मुब्तिला है, उसके तहत मुस्लिम महिलाओं के लिए इस कॉलेज का निर्माण किया जा रहा था. हिंदू साधुओं के एक हिस्से ने इलाके की पवित्रता की दुहाई देते हुए इस निर्माणाधीन संस्थान को वहां से हटाने की मांग की थी.

‘सात पहाड़ियों की पवित्रता की रक्षा’ के नाम पर ‘तिरुमला तिरुपति पवित्रता संरक्षण वेदिके’ नाम से एक साझा मंच के बैनर तले हिंदू गर्जना नामक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था.

हिंदूवादी संगठनों की अत्यधिक सरगर्मी हमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के कार्यकाल को याद दिलाती है. याद रहे कि उन्हीं के नेतृत्व वाली आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने तिरुमला-तिरुपति और राज्य के 19 अन्य चर्चित मंदिरों वाले नगरों में अहिंदू आस्थाओं के प्रचार-प्रसार पर पाबंदी लगाने के लिए अध्यादेश 3 और उसी से संबंधित दो सरकारी आॅर्डर (जीओ) जारी किए गए थे.

उसी वक्त विश्लेषकों ने इसे ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों’ की तर्ज पर ‘विशेष धार्मिक क्षेत्रों’ के निर्माण की योजना के तौर पर संबोधित किया था, जहां अन्य धर्मियों के लिए किसी भी तरह की गतिविधि करने पर- यहां तक कि पूजा, सामाजिक काम, शैक्षिक संस्थाओं का संचालन तथा अन्य धार्मिक कार्य सभी पर रोक लगा दी गई हो.

अगर कल्पना करें कि हमारे मुल्क में मथुरा या बरसाना माॅडल को या तिरुमला संरक्षण वेदिके द्वारा प्रस्तावित तिरुपति माॅडल को जगह-जगह लागू किया जाएगा तो आप पाएंगे कि उन्हीं तर्क के आधार पर कहीं अल्पमत में रहने वाले हिंदुओं के लिए, कहीं अल्पमत में रहने वाले सिखों के लिए या ईसाइयों या अन्य धर्मावलंबियों के लिए संविधानप्रदत्त अपने आस्था के अधिकार पर अमल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है.

कहा जाता है कि धर्म और राजनीति के बीच का रिश्ता एक तरह से सारतः पवित्र और सेक्युलर के बीच के रिश्ते की तरह होता है. और समाजों की धर्मनिरपेक्षीकरण की लंबी यात्रा एक तरह से राज्य एवं समाज के संचालन से ‘पवित्र’ अर्थात धर्माधारित तत्व को खारिज करते हुए उसे सेक्युलर आधारों पर पुनर्गठित करने की यात्रा है.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साठ साल पहले- बंटवारे के बाद के रक्तरंजित वातावरण में- संविधान निर्माताओं ने यह कठिन संकल्प लिया कि वह धर्म एवं राजनीति के बीच के इस अलगाव को सुनिश्चित करेंगे. इस संकल्प के बावजूद ऐसे अवसर आते गए हैं जब इस अलगाव की दीवारें टूटी हैं, जब नगरों को धर्म/संप्रदाय विशेष के लिए ‘पवित्र’ घोषित किया गया है.

कहा जाता है कि 21वीं सदी अधिक समावेशी सदी रहेगी. दूसरी तरफ हम देख रहे हैं कि लोगों के खान-पान के आधार पर, उनकी आस्था के नाम पर उन्हें नये-नये घेट्टों में धकेला जा रहा है. कहीं-कहीं इसके लिए च्वाइस की दुहाई भी दी जा रही है. विडंबना यही है कि राजनीति में सेक्युलर ताकतों के बहुमत के बावजूद समाजनीति में सामने आ रहे इस नए विखंडन पर कोई आवाज़ उठ नहीं पा रही है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)