ग्राउंड रिपोर्ट: बात बनारस की

2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान अति-उत्साही काशी की जनता, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में ऊर्जाविहीन लग रही है.

2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान अति-उत्साही काशी की जनता, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में ऊर्जाविहीन लग रही है.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)
वाराणसी: 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही वाराणसी भारतीय राजनीति का केंद्रबिंदु बना हुआ है. देश के प्रधानमंत्री यहीं से चुनकर संसद में गए हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान यहां की जनता ने 5,81,022 मत देकर नरेंद्र मोदी को संसद भेजा था.

लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान अति-उत्साही काशी की जनता, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में ऊर्जाविहीन लग रही है. यूं तो चुनाव लोकतंत्र में त्योहार की तरह ही मनाया जाता है, लेकिन इस बार जनता निराश और निरुत्साहित लग रही है.

द वायर से बातचीत में काशी के विभिन्न बुद्धिजीवी वर्ग की राय भी कुछ ऐसी ही दिखी.

वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य काशी की समस्याओं को बड़े सलीके से उर्दू साहित्य के एक शेर से बयां करते हुए कहते हैं, ‘एक दो का जिक्र क्या सारा जिस्म है छलनी, दर्द परेशां हैं कहा से उठे.’

अमिताभ आगे कहते हैं, ‘बनारस की तकलीफें इतनी हैं कि अभी बयां करना मुश्किल है. प्रदेश को दो दोस्त मिज़ाज़ की ऐसी सरकारें चाहिए जिसके संबंध आपस में (केंद्र व राज्य) दोस्ताना हो, जो हमनवा (दोस्त) भी.

काशी की समस्याओं को गिनाते हुए वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति शर्मा कहते हैं, ‘इस बात में कोई दो मत नहीं कि काशी दुनिया का प्राचीनतम जिंदा शहर है, लेकिन दुखद पहलू ये है कि ये शहर अपनी विरासत अपनी पहचान धीरे-धीरे खोता चला जा रहा है.’

शर्मा आगे कहते हैं, ‘शहर की परिधि पहले ही सीमित थी. मैदागिन और गोदौलिया क्षेत्र ही पारंपरिक काशी के हिस्से थे. जबकि अन्य क्षेत्र बाहरी थे लेकिन इस क्षेत्र में ही बाज़ार और अन्य विकास किए गए जिससे इस क्षेत्र की आबादी अत्यधिक बढ़ गई. आज शहर पूरी तरह से ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण से त्रस्त है. यहां सड़क किनारे पैदल यात्रियों के लिए उपयोग होने वाली पटरियां भी काट दी गई हैं, जिससे पैदल यात्रियों के लिए तो कुछ बचा ही नहीं है. साफ़-सफाई पर भी पहले की सरकारों ने कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया- खासकर राज्य सरकारों ने तो काशी की बुनियादी सुविधाओं की उपेक्षा की है. अनुशासन के नाम पर सरकारों ने सिर्फ दिशा-निर्देश जारी किए हैं जबकि संसाधन के नाम पर कोई भी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है.’

वाराणसी के उद्योगपति आरके चौधरी भी राज्य सरकार के व्यापारियों के प्रति उदासीन नीतियों से व्यथित दिखे.

चौधरी कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश का चुनाव विकास बनाम जातिवाद के फेर में बंध जाता है जबकि चुनाव का मुख्य मुद्दा विकास, चुनाव आते ही विलुप्त हो जाता है. इस चुनाव में हम लोगों ने विभिन्न मतदाता जागरूकता कार्यक्रम चलाए हैं जिनमें जनता से अपील की गई है, ‘चुनाव में वोट जाति-संप्रदाय के आधार पर नहीं, विकास के नाम पर करें.’

वे आगे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश की जनसंख्या सबसे अधिक है और यहां पर औद्योगीकीकरण के भी पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं, लेकिन आज भी लाखों युवा रोज़गार के लिए दूसरों राज्यों में पलायन करते हैं. राज्य सरकार की उद्योगों को विकसित करने के प्रति उदासीनता इसके लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार है. आज अगर गुजरात, महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश अगर बढ़ा है तो इसके पीछे औद्योगीकीकरण एक बड़ा कारक था. बीते पांच साल में उद्योगों का भी पलायन हुआ है और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी बुरा ही रहा है, लेकिन एक उम्मीद है कि प्रदेश में ऐसी सरकार आएगी जो उद्योगों को बढ़ावा देगी.’

सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य व उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य शतरुद्र प्रकाश कहते हैं, ‘पूर्वांचल में नगरीकरण नहीं हो रहा है, गाज़ीपुर, चोलापुर, जौनपुर, आज़मगढ़ जैसे इलाकों से भीड़ बहुत आती हैं. अगर इन इलाकों का नगरीकरण हो जाए तो काशी को जाम की समस्या से कुछ हद तक निज़ात मिल जाएगी. इन इलाकों की स्थिति ये है कि यहां शिक्षा, रोज़गार और बाज़ार तीनों ही क्षेत्र पिछड़े हुए हैं. इससे इन क्षेत्रों के लोगों को बाज़ार, रोज़गार और शिक्षा के लिए काशी की ओर आना पड़ता है, जिससे शहर के वासियों को जाम व अन्य तरह की तकलीफें झेलनी पड़ती हैं.’

प्रकाश कहते हैं, ‘यहां की आधारशिला बुनकर और खेती थी. नोटबंदी के बाद यहां बुनकरी पर भी काफी प्रभाव पड़ा है. लूम भी यहां पर तकनीकी रूप से काफी पिछड़े हैं. इसके बाज़ार का भी पतन हो चुका है. यही हाल खेती का भी है. काशी की बात करें तो यहां के कुल क्षेत्रफल 1500 वर्ग किमी में से भी अधिकांश भाग में खेती के क्षेत्रों में कटौती की गई है, जिससे उत्पादन में भी कटौती आई है और किसान भी निराश हुआ है.’

काशी की गंगा-जमुनी तहज़ीब का एक मज़बूत आधार यहां के बुनकर भी हैं. द वायर से बातचीत में योजना आयोग के पूर्व सदस्य व बुनकर सोसाइटी के प्रेसिडेंट हाजी रेहमत्तुला अंसारी कहते हैं, ‘चुनाव में जितनी भी पार्टियां आ रही हैं उनमें से किसी का भी मक़सद बुनकरों की बेहतरी के लिए काम करना नहीं है.’

वे आगे कहते हैं, ‘आज बुनकर उद्योग, मरीज़ होकर आईसीयू में पहुंच गया है और अंतिम सांस ले रहा है. लोन देना या इंश्योरेंस देना बुनकरों की समस्या का हल नहीं है. लोन तो किसानों को भी दिया जाता है लेकिन आज भी किसान आत्महत्या कर रहा है. ज़रूरत है व्यवस्था के बुनियादी ढांचे को सुधारने की.’

आज़ादी के पहले बुनकरों के इतिहास को बताते हुए हाजी कहते हैं, ‘अंग्रेजों को भी हथकरघा उद्योग और इससे उत्पन्न होने वाले रोज़गार का अहसास था. वे जानते थे कि अगर इस उद्योग पर ध्यान नहीं दिया तो गरीब तबके के कारीगर बेरोज़गार हो जाएंगे और अंत तक इन्होंने हथकरघा परंपरा को कभी लुप्त नहीं होने दिया.’

वाराणसी के कारोबारी नवीन पाठक कहते हैं कि शहर में आज़ व्यापारी भयभीत हैं और असुरक्षित महसूस कर व्यापार करता है. बुनियादी सुविधाएं सड़क, बिजली, पानी भी नदारद हैं, जिससे व्यापार भी प्रभावित होता है. राज्य को ऐसी सरकार चाहिए जो इन समस्याओं से निजात दिलाए और जिसके कार्यकाल में व्यापारी सुरक्षित महसूस कर सके.

वाराणसी और पूर्वांचल में गंगा नदी विशेष दर्जा रखती है. विगत चार दशक से गंगा के निर्मलीकरण के लिए प्रयासरत संकट मोचन फाउंडेशन के प्रेसिडेंट प्रो. विशंभर नाथ मिश्र कहते हैं, ‘चुनाव आते ही लोगों को गंगा की याद आ जाती है जबकि 1986 से गंगा सफाई के नाम पर अप्रासंगिक कार्य हो रहे हैं और आम जन के पैसों को बर्बाद किया जा रहा है. ‘पब्लिक मनी’ को बड़े साइंटिफिक तरीके से ख़र्च किया जाना चाहिए.’

गंगा सफाई पर मिश्र कहते हैं, ‘केंद्र सरकार के गंगा निर्मलीकरण के प्रयास तो हम भी तीन साल से देख रहे हैं लेकिन धरातल पर हमें कोई योजना नज़र नहीं आई. तुलसी घाट पर तो आज मीथेन के झाग भी निकलते हैं. दुखद है कहना लेकिन सरकार के कॉस्मेटिक अरेंजमेंट से गंगा का निर्मलीकरण नहीं हो पाएगा.’

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