ग्राउंड रिपोर्ट: हमारे लोकतंत्र में घुमंतू समुदाय को कब मिलेगा हक़?

घुमंतू समुदाय गांव के सार्वजनिक और सांस्कृतिक जीवन में घुले-मिले हैं. वे विकसित हो रहे जनतंत्र में अपना स्पष्ट हिस्सा मांग रहे हैं.

घुमंतू समुदाय गांव के सार्वजनिक और सांस्कृतिक जीवन में घुले-मिले हैं. वे विकसित हो रहे जनतंत्र में अपना स्पष्ट हिस्सा मांग रहे हैं.

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प्रतीकात्मक तस्वीर. (फोटो साभार: counterview.org)

गोंडा: आप वोट क्यों देते हैं? इसके उतने जवाब हो सकते हैं जितने इस देश में वोटर हैं.

‘मैं इसलिए वोट दे रहा हूं कि मैं इस गांव में अभी हाल ही में बसा हूं. मेरा नाम वोटर वोटर वाली लिस्ट में था. इससे देखकर ही लोगों को कालोनी मिलती है. मुझे भी मिल जाएगी. यह बात कहकर वह वोट डालने चला गया. वह मतदाता महावत समुदाय का था.’

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के सिसई ग्रामसभा में इस व्यक्ति का मतदाता पहचान पत्र 2005 में बना. वह इस मतदाता पहचान पत्र की मदद से न केवल भारतीय जनतंत्र की संरचना में शामिल हुआ, बल्कि वह उसे उतना ही बना रहा है जितना कि किसी मेट्रो में स्थित कोई पढ़ा-लिखा नागरिक.

मतदाता पहचान पत्र की सहायता से कोई भी व्यक्ति भारतीय राजनीतिक स्पेस में एक वैध हितधारक के रूप में शामिल हो जाता है. यह हिस्सेदारी कितनी भी छोटी क्यों न हो लेकिन महत्वपूर्ण होती है. इस ग्रामसभा में 1313 वोट हैं जो विभिन्न पुरवों में बसी विभिन्न जातियों से मिलकर बनता है.

इस ग्रामसभा में विधानसभा चुनाव की वर्तमान मतदाता सूची में 18 वोट महावतों के हैं. पहली बार देखने में यह संख्या कोई प्रभावशाली संख्या नहीं लगती है लेकिन जनतंत्र में हर मत बहुमूल्य है और उसका आदर होना चाहिए. जनतंत्र को अपने चुनावी रूप में थोड़ा सा विनम्र होकर अपवंचित समूहों के पास जाना चाहिए.

अब वह सिसई ग्रामसभा के ‘कार्टोग्राफिक मार्जिन’ पर बसे महावतों के बीच जा रहा है लेकिन उनकी बस्ती अभी भी मूलभूत सुविधाओं से महरूम है जो राज्य और केंद्र सरकारें अपने ‘कमजोर नागरिकों’ को प्रदान करती हैं, जैसे इण्डिया मार्का हैंड, इंदिरा आवास योजना या शौचालय.

उनकी बस्ती में जो वोट हैं, वे उनका उनका राजनीतिक मूल्य निर्धारित करते हैं. यह बात ग्रामप्रधान, विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले या इसका इरादा रखने वाले लोगों को पता है. यह बात महावतों को भी पता है कि उनके मत से सरकार बन बिगड़ सकती है. इसलिए महावत आपस में एक गोलबंदी का निर्माण करते हैं जो उन्हें राजनीति में प्रवेश दिलाती है.

इसलिए जैसा रजनी कोठारी कहा करते थे कि राजनीति गोलबंदी करने और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए पहले से मौजूद और उभरती हुई निष्ठाओं की शिनाख्त करती है और फिर उनका अपने हक में इस्तेमाल करती हैं.

महावतों और ऐसी ही तमाम घुमंतू जातियों पर राजनीतिक पार्टियों की नज़र है और वे भी इन पार्टियों पर नज़र गड़ाए हुए हैं. वास्तव में महावत और ऐसी ही कई जातियां भारतीय राजनीति के चुनावी अखाड़े में शामिल हो रही हैं जिन्हें चुनाव विश्लेषक और समाज विज्ञानी उपेक्षित करते रहे हैं.

यह जातियां दलित जातियों से भिन्न हैं जिन्हें घुमंतू और विमुक्त समुदाय कहते हैं. यह ऐतिहासिक रूप से एक जगह पर न रहकर लगतार घूमती रहती थीं और खुले स्थानों, मैदानों, बागों में ठहरकर पशुपालन, पशुओं की चिकित्सा, नाच गाना, करतब, जड़ी बूटी के व्यापार, कुश्ती और लाठी सिखाने के काम से अपना पेट भरती थीं.

यदि दलितों को चार वर्णों पर आधारित जाति व्यवस्था के उच्चताक्रम से उपजी हिंसा और बहिष्करण का शिकार होना पड़ा तो घुमंतू जातियां अंग्रेजी शासन का शिकार बनीं. 1871 के क्रिमिनल ट्राइब एक्ट से पूरे देश में दो सौ के लगभग
समुदायों को अपराधी जनजाति में घोषित कर दिया गया.

भारत के सामाजिक और विधिक क्षेत्र में घुमंतू समुदायों के लिए यह एक सामूहिक हादसा था. 1921 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट का विस्तार किया गया और कई अन्य समुदाय इस कानून की जद में ले आए गए.

देश को 1947 में आजादी मिली, भारत का संविधान बनाया गया और सबको बराबरी का हक़ मिला कि वह वोट डाल सके. 1952 में उन समुदायों को विमुक्त समुदाय का दर्जा दिया गया जो क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के तहत अपराधी घोषित किए गए थे.

यह एक प्रकार से यह बताना था कि अमुक समुदाय अब अपराधी नहीं रह गए हैं! यह कानून की बिडंबना थी कि उन्हें एक पहचान से मुक्त कर दूसरी कम अपमानजनक पहचान से नवाज दिया गया. 1959 में हैबीचुअल अफेंडर एक्ट ने पुलिस का ध्यान फिर उन्हीं समुदायों की ओर मोड़ दिया जो अब विमुक्त थे. यह सब आजाद भारत में हो रहा था.

इधर हाल ही में चीजें बदली हैं. उत्तर प्रदेश में पिछले दो-तीन दशकों में जो राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उसने इन समुदायों को पंचायतीराज संस्थाओं के माध्यम से भारत की बृहत्तर राजनीतिक संरचनाओं से जोड़ दिया है.

घुमंतू समुदाय पहले पंचायतीराज संस्थाओं से जुड़े. वे गांव के सार्वजनिक और सांस्कृतिक जीवन में घुले-मिले हैं और अब वे भारत में विकसित हो रहे जनतंत्र में अपना स्पष्ट हिस्सा मांग रहे हैं. अप्रैल 2014 में नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करने आए थे.

जब वे इलाहाबाद में एक बड़ी रैली को संबोधित कर रहे थे तो इन समुदायों के एक प्रतिनिधिमंडल ने उनसे आरक्षण की मांग की और एक ज्ञापन सौंपा. जब उनकी सरकार बनी तो भिखूजी इदाते की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया है.

आयोग का कार्यकाल अभी पूरा नहीं हुआ है और वह देश के विभिन्न हिस्सों के घुमंतू और विमुक्त जनजातियों के प्रतिनिधियों से मिल रहा है. वे अपने पिछड़ेपन का दोष सरकार की नीतियों को देते हैं और इस बात की आवश्यकता महसूस करते हैं कि नीतियों के कार्यान्वयन पर नजर रखी जाय.

इसकी वकालत रेणके कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में किया है. यह तो आने वाली सरकारों पर निर्भर करेगा कि वे इन आयोगों की रिपोर्ट मानकर उस पर कोई कदम उठाएं और सामाजिक न्याय की परियोजनाओं को अगले चरण में ले जाएं लेकिन उत्तर प्रदेश के गांवों में आधारभूत स्तर के बदलाव जनतंत्र की संरचनाओं में से निकल रहे हैं.

11 मार्च के नतीजों का इंतज़ार वह महावत भी कर रहा है, लेकिन उसकी अपेक्षाएं आपसे बिलकुल अलग हैं. इन घुमंतू समुदायों के बारे में कभी शायर असराल-उल-हक़ मजाज़ ने कहा था-
बस्ती से थोड़ी दूर, चट्टानों के दरमियां
ठहरा हुआ है ख़ानाबदोशों का कारवां
उनकी कहीं जमीन, न उनका कहीं मकां
फिरते हैं यूं ही शामों-सहर ज़ेरे आसमां

यह जनतंत्र शायद उन्हें थोड़ी सी जमीन और थोडा सा आसमान दे सके.

(रमाशंकर सिंह ने अभी हाल ही में जी. बी.पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है)

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